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गुरुवार, 30 मई 2013

बांझ अदालतें

मैं 2004 से एक बुजुर्ग महिला का मुकदमा लड़ रहा हूँ। उन के पति ने अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए एक और मकान बनाया था। उसे एक फर्म को किराए पर दे दिया। फिर फर्म के एक पार्टनर के भतीजे ने उसी नाम से एक फर्म और रजिस्टर करवा ली। मूल फर्म तो शहर से कारोबार समेट कर चल दी और भतीजा उस मकान में पुरानी फर्म का साइन बोर्ड लगा कर नई फर्म का कारोबार करता रहा। महिला ने मकान खाली करने को कहा तो भतीजे ने खाली करने से मना कर दिया। महिला की उम्र 73 वर्ष की थी और बीमार रहती थी तो उस ने अपने बेटे को मुख्तार आम बनाया हुआ था वही मुकदमे को देखता था। मुकदमे में 2010 में निर्णय हुआ और मकान खाली करने का निर्णय हो गया। तब तक महिला की उम्र अस्सी के करीब हो गई। उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ नागरिकों के मुकदमे वरीयता से निपटाने का स्थाई निर्देश दे रखा है लेकिन इस के बावजूद प्रक्रिया की तलवार का लाभ उठाने  में कोई भी वकील नहीं चूकता। पेशी पर कोई न कोई बिना किसी आधार के कोई न कोई आवेदन प्रस्तुत होता।  मैं तुरन्त उसी वक्त उस उत्तर देता। तब भी बहस के लिए अगली तिथि दे दी जाती। आदेश होने पर उच्च न्यायालय में उस की रिट कर दी जाती। इसी तरह तीन वर्ष गुजर गए। 

हिला का पुत्र नरेश इतना मेहनती कि वह हर पेशी के पहले मेरे दफ्तर आता मुकदमें की तैयारी करवाता और पेशी के दिन सुबह अदालत खुलते ही अदालत में उपस्थित रहता। आज उसी मुकदमे में पेशी थी और हम सोचते थे कि आज बहस सुन ली जाएगी। 

मुझे कल रात देर तक नींद नहीं आई। सुबह उठा तो निद्रालू था। मैं प्रातः भ्रमण निरस्त कर एक घंटा और सोया। फिर भी तैयार होते होते मुझे देरी हो गई।  मैं नौ बजे अदालत पहुँचा और जाते ही अपने सहायकों और क्लर्क से पूछा कि नरेशआया क्या? लेकिन उन्हों ने मना कर दिया। मुझे आश्चर्य था कि आज उस का फोन भी न आया, जब कि वह इतनी देर में तो चार बार मुझे फोन कर चुका होता। मैं ने तुरंत उसे फोन किया। फोन उस की बेटी ने उठाया। मैं ने पूछा नरेश कहाँ है। बेटी ने पूछा - आप कौन अंकल? मैं ने अपना नाम बताया तो वह तुरन्त पहचान गई और रुआँसी आवाज में बोली कि पापा जी को तो कल रात हार्ट अटैक हुआ और वे नहीं रहे। 

मैं जब अदालत के इजलास में पहुँचा तो आज विपक्षी और उन के वकील पहले से उपस्थित थे। जब कि आज से पहले कभी भी वे अदालत द्वारा तीन चार बार पुकारे जाने पर भी नहीं आते थे। मैं ने अदालत को कहा कि बहस सुन ली जाए। तब विपक्षी ने तुरन्त कहा कि आज बहस कैसे होगी नरेश का तो कल रात देहान्त हो गया है। मैं ने उन्हें कहा कि नरेश इस प्रकरण में पक्षकार नहीं है उस की मृत्यु से यह मुकदमा प्रभावित नहीं होता इस कारण से बहस सुन ली जाए। लेकिन न्यायाधीश ने कहा कि केवल कल कल ही न्यायालय और खुले हैं उस के बाद एक माह के लिए अवकाश हो जाएगा। मैं निर्णय नहीं लिखा सकूंगा। इस लिए जुलाई में ही रख लेते हैं।  मैने विपक्षी उन के वकीलों को उन के द्वारा मेरी पक्षकार के पुत्र की मृत्यु के आधार पर पेशी बदलने पर बहुत लताड़ा लेकिन वे अप्रभावित रहे। न्यायालय को भी कहा कि वह प्रथम दृष्टया बेबुनियाद आवेदनों की सुनवाई के लिए भी समय देता है जिस के नतीजे में मुकदमों का निस्तारण नहीं होता और न्यायार्थी इसी तरह न्यायालयों के चक्कर काटते काटते दुनिया छोड़ जाते हैं। लेकिन न तो इस का प्रतिपक्षी और उन के वकीलों पर इस का कोई असर था और न ही अदालत पर। मुकदमे में दो माह आगे की पेशी दे दी गई।   

ज से 34 बरस पहले जब मैं वकालत के पेशे में आया था तो सोचा था मेरा पेशा उन लोगों को न्याय दिलाने में मदद करने का है जो समाज के अन्याय से त्रस्त हैं। जब भी मैं किसी व्यक्ति को अपनी मदद से न्याय प्राप्त करने में सफल होते देखता तो प्रसन्न हो जाता था। लेकिन इन 34 बरसों में न्याय की यह दुनिया इतनी बदल चुकी है कि अदालतों पर काम का चार गुना बोझा है। कोई न्यायाधीश न्याय करना भी चाहे तो समय पर नहीं कर सकता। जब वह कर पाता है तब तक न्यायार्थी दुनिया छोड़ चुका होता है या फिर उस की कमर टूट चुकी होती है। अब तो एक नए न्यायार्थी के मेरे पास आते ही यह सोचना पड़ता है कि इसे क्या कहा जाए। मैं आकलन करता हूँ तो अधिकांश मामलों में पाता हूँ कि न्याय प्राप्त करने में इसे जितने कष्ट न्यायार्थी को उठाने पड़ेंगे उस से तो अच्छा यह है कि वह इन बांझ अदालतों से न्याय की आस ही न लगाए।                                                     

गुरुवार, 23 मई 2013

राजस्थान में श्रम कानूनों का प्रवर्तन पैरालाइज्ड

राजस्थान में श्रमिकों की स्थितियाँ बहुत बुरी हैं। राज्य का श्रम विभाग जो श्रम कानूनों के प्रवर्तन कराने का काम करता था वह पैरालाइज कर दिया गया है। विभाग में स्वीकृत पदों से आधे भी अधिकारी नहीं हैं। वर्षों तक स्टाफ के पद रिक्त रखे जाते हैं और फिर उन्हें समाप्त कर दिया जाता है। श्रम न्यायालय ठीक से काम नहीं कर रहे हैं। कोटा संभाग की स्थिति इस से भी बुरी है। वहाँ कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त,वेतन भुगतान, ग्रेच्युटी, न्यूनतम वेतन आदि के मामले देखने वाली पाँच में से चार अदालतों में कोई पीठासीन अधिकारी नहीं है। कोटा के श्रम न्यायालय में पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं और एक मामले में पेशी ही चार-छह माह की जाती है। कुछ मुकदमे तो ऐसे हैं जो तीस से भी अधिक वर्षों से लंबित हैं।
न्ही समस्याओं को ले कर अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (एआईसीटीयू) की राजस्थान इकाई राजस्थान ट्रेड यूनियन केंद्र की कोटा डिवीजनल कमेटी ने आज मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया और इन समस्याओं को समाप्त करने की दिशा में तत्काल कदम नहीं उठाए जाने पर आंदोलन चलाने और उसे राज्यव्यापी बनाने की चेतावनी दी। ज्ञापन निम्न प्रकार है -

ज्ञापन
दिनांक – 23.05.2013

प्रतिष्ठा में,

श्री अशोक गहलोत

मुख्यमंत्री, राजस्थान सरकार

जयपुर

द्वारा – जिला कलेक्टर, कोटा

विषय- 
कोटा में स्थित श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण में स्वीकृत स्टाफ की नियुक्ति करने, दो अतिरिक्त श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण और स्थापित करने तथा इन अधिकरणों में सक्षम न्यायाधीशों की नियुक्ति करने तथा श्रम विभाग को सक्षम बनाए जाने के संबंध में ज्ञापन एवं मांग पत्र।

मान्यवर,

राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र निम्न आग्रह करता है-

1. यह कि कोटा एक पुराना औद्योगिक नगर है। उसी अनुपात में यहाँ औद्योगिक विवाद भी उत्पन्न होते हैं तथा उसी अनुपात में श्रम कानूनों के प्रवर्तन के लिए मशीनरी की नितान्त आवश्यकता है। इस के लिए वर्तमान में यहाँ एक संयुक्त श्रम आयुक्त, एक सहायक श्रम आयुक्त के कार्यालय हैं। इन के अंतर्गत चार जिले हैं। कोटा में वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम, ग्रेच्यूटी भुगतान अधिनियम, कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त व अन्य उद्देश्यों के लिए दो न्यायालय स्थापित हैं तथा बाराँ, झालावाड़ व बूंदी में एक एक न्यायालय स्थापित हैं। किन्तु इन में से केवल कोटा में एक पीठासीन अधिकारी नियुक्त है कोटा की एक तथा तीनों जिलों के तीन कुल चार न्यायालयों में कोई पीठासीन अधिकारी नियुक्त नहीं है। इन चारों कार्यालयों में स्टाफ भी पर्याप्त नहीं है। जिस के कारण स्थिति यह है कि अक्सर ही बाराँ, झालावाड़ और बूंदी में स्थित श्रम विभाग के कार्यालयों में कार्य दिवस के दिन भी ताला लगा रह जाता है। कार्यालय खोलने वाला भी कोई नहीं होता है। इस के अलावा श्रम विभाग को उन के नियमिति कार्यों के अलावा दूसरे दूसरे कई काम दे दिए जाते हैं जिस से कानून के प्रवर्तन और न्यायालयों के कार्य अक्सर बाधित होते रहते हैं। मुकदमों में बरसों बरस तारीखे पड़ती रहती हैं। यहाँ तक कि बहस हो जाने के बाद भी महीनों तक पत्रावलियों में निर्णय नहीं होते।

2. यह कि इन चारों जिलों के लिए केवल एक श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित है। जिस में लगभग पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं। एक मुकदमें में चार से छह माह तक की पेशी होती है और वर्ष में कभी दो तो कभी तीन पेशी एक मुकदमे में होती है। नतीजा यह है कि मुकदमे 10 -10, 20-20 वर्ष तक लंबित रहते हैं। कुछ मुकदमे तो पिछले तीस वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं। श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है या वे रिटायर हो जाते हैं। इस से सरकार का मंतव्य यही प्रतीत होता है कि श्रमिकों की किसी समस्या को हल करने की जरूरत नहीं है। लंबे समय तक मुकदमा लंबित रहने से श्रमिक या तो रिटायर हो जाएगा या मर जाएगा तो अपने आप ही विवाद समाप्त हो जाएगा। इस से राजस्थान भर में नियोजकों के हौंसले बढ़े हैं और वे खुले आम मजदूरों का शोषण करते हैं और कानूनों का उल्लंघन करते हैं। श्रम विभाग में जो मशीनरी काम कर रही है उस पर नियोजकों का उचित और अनुचित रीति से इतना दबाव है कि वे श्रमिकों की कोई बात सुनते ही नहीं हैं। सुनते भी हैं तो इस तरह कार्यवाही करते हैं कि श्रमिकों को उन के अधिकार मिलें ही नहीं और नियोजक उन की मनमानी चलाते रहें।

3. यह कि इस का कारण है कि श्रम विभाग और श्रम न्यायालय में पर्याप्त स्टाफ नहीं है, पर्याप्त से आधे भी अधिकारी नहीं हैं। स्वीकृत पदों पर नियुक्तियाँ नहीं की जाती हैं और कुछ वर्ष बाद उन पदों को समाप्त कर दिया जाता है। श्रम न्यायालय को राजस्थान सरकार आज तक एक कंप्यूटर तक नहीं दे सकी जब कि यह काम दस वर्ष पूर्व ही हो जाना चाहिए था। लेकिन न तो पिछली सरकार ने और न ही इस सरकार ने यह काम किया। अब जो कंप्यूटर लगा भी है वह उच्चन्यायालय के कोष से लगा है। जब कि यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी थी।

4. यह कि कोटा में जितने मुकदमों की संख्या है उस के लिए कोटा में कम से कम चार श्रम न्यायालय स्थापित होने चाहिए थे। अजमेर, उदयपुर, भीलवाड़ा में पाँच सौ मुकदमों से कम होने पर भी पूरे एक एक न्यायालय स्थापित हैं। उस हिसाब से तो कोटा में दस न्यायालय होने चाहिए थे। लेकिन कम से कम चार न्यायालयों की तुरंत आवश्यकता है। दो न्यायालय तो तुरंत नए खोले जाने की आवश्यकता है जिस से कोटा में स्थित विवादों को जल्दी से जल्दी निपटाया जा सके।

5. यह कि श्रम न्यायालयों के लिए राजस्थान उच्च न्यायालय अपने जिला न्यायाधीश श्रेणी के न्यायाधीश डेपुटेशन पर भेजता है। पंद्रह वर्ष पूर्व तक जो न्यायाधीश डेपुटेशन पर भेजे जाते थे वे अनुभवी और औद्योगिक मामलों को निपटाने में सक्षम होते थे तथा इतने वरिष्ठ होते थे कि दो चार वर्ष उपरान्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त हो जाते थे। लेकिन विगत पंद्रह वर्षों में श्रम समस्याओं की तरफ राज्य सरकार का उदासीनता का रुख देख कर तथा उन्हें डेपुटेशन पर मिलने वाली सुविधाएँ न देने के कारण उच्च न्यायालय ने अपने अच्छे न्यायाधीशों को नियुक्त करना बंद कर दिया है। वे यहाँ ऐसे न्यायाधीश नियुक्त करते हैं जो यहाँ औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए सक्षम ही नहीं होते।

6. यह कि कोटा के श्रम न्यायालय में वर्तमान पीठासीन अधिकारी विगत दो वर्ष से अधिक समय से नियुक्त हैं। लेकिन उन्हों ने हमारे राजस्थान ट्रेड यूनियन केंद्र के प्रतिनिधि के विरुद्ध आदेश पारित कर रखा है कि वे उन की बहस ही नहीं सुनेंगे। एक जज जो अपने ही न्यायालय में लंबित मुकदमों की बहस सुनने से खुले आम इन्कार करता है उसे उस न्यायालय में पदस्थापित रखना कहाँ तक न्यायोचित है? हमारे प्रतिनिधि के अतिरिक्त भी सभी ट्रेड यूनियनों के प्रतिनधि वर्तमान पीठासीन अधिकारी के समक्ष काम नहीं करना चाहते। राजस्थान सरकार को ऐसे अधिकारी को तुरंत उस का डेपुटेशन समाप्त कर उच्च न्यायालय वापस भेज देना चाहिए।

7. यह कि उक्त परिस्थितियों में कोटा के समस्त श्रमिक वर्ग में सरकार के प्रति असंतोष व्याप्त है। उस का यह असंतोष कभी भी बड़े आंदोलन का रूप ले सकता है। जिस से राज्य सरकार और प्रशासन को परेशानी झेलनी पड़ सकती है। वर्तमान में कोटा में सेमटेल के दो कारखाने बंद हुए हैं, उन के श्रमिक लगातार पिछले सात माह से आंदोलन पर हैं। लेकिन राज्य का श्रम विभाग उन को उन के अधिकार दिलाना तो दूर रहा उन्हें उन के काम किए हुए दिनों का वेतन भी नहीं दिला सका है। राजस्थान सरकार के श्रम विभाग के मुख्यालय तक ने हाथ खड़े कर दिए हैं कि वे कानूनों की पालना नहीं करवा सकते। श्रमिकों की इस से बुरी स्थिति राज्य में और क्या हो सकती है? और राज्य सरकार के लिए इस से अधिक शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है?

इन तमाम परिस्थितियों में हमारा आप से आग्रह है कि आप इस स्थिति को स्वयं संभालें और राज्य के श्रम विभाग और श्रम न्यायालय के स्वरूप को सुधारने के लिए तुरन्त आवश्यक कदम उठाएँ। अन्यथा राज्य के श्रमिकों में अन्दर ही अन्दर आग सुलग रही है। राज्य भर में बड़ा श्रमिक आंदोलन खड़ा हो सकता है जो राजनैतिक परिस्थितियों को भी बुरी तरह प्रभावित करेगा और राज्य सरकार को पछताना पड़ेगा कि उस ने समय रहते आवश्यक कदम क्यों न हीं उठाए। हम अभी आप के समक्ष निम्न मांगे प्रस्तुत कर रहे हैं इन पर तुरन्त विचार किया जा कर एक दो सप्ताह में ही निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है।

हमारी मांगें-

1- राज्य के श्रम विभाग को सक्षम बनाया जाए। सभी कार्यालयों में तथा न्यायालयों में पर्याप्त स्टाफ और पर्याप्त अधिकारियों की नियुक्ति की जाए।

2- श्रम विभाग से संबंधित न्यायालयों में लंबित मुकदमों का निर्णय निश्चित समयावधि में होना निश्चित किया जाए। कोटा में सहायक श्रम आयुक्त के रिक्त पद तथा बूंदी, बाराँ और झालावाड में श्रम कल्याण अधिकारी के रिक्त पदों को तुरंत भरा जाए।

3- कोटा में तुरन्त दो अतिरिक्त श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित किए जाएँ।

4- कोटा के श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण के वर्तमान पीठासीन अधिकारी का डेपुटेशन तुरंत निरस्त कर यहाँ सक्षम पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति की जाए।

5- कोटा में स्थापित वर्तमान श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण में रिक्त पदों पर तुरन्त नियुक्ति की जाए।

हमारा अनुरोध है कि उक्त मामलों मे तुरन्त राज्य सरकार क्या कदम उठा रही है उस से हमें अगले दो सप्ताह में सूचित किया जाए। दो सप्ताह में राज्य सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र आंदोलन आरंभ करेगा। अन्य ट्रेड यूनियनों के साथ सहयोग करते हुए इसे व्यापक आंदोलन का रूप देने का प्रयत्न करेगा और इसे राज्य व्यापी बनाने के पथ पर आगे बढ़ेगा।

आशा है आप इसे गंभीरता से लेंगे।

भवदीय

(आर.पी. तिवारी)

अध्यक्ष
राजस्थान ट्रेड यूनियन केंद्र
जिला कमेटी, कोटा (राजस्थान)

रविवार, 12 मई 2013

शादी में और क्या होना चाहिए?



मौजूदा जरूरत की बीस फीसदी अदालतों में मुकदमे बहुत लंबे चलते हैं।  इस बीच मुवक्किल लगातार संपर्क में रहते हैं तो उन से मुहब्बत के रिश्ते कायम होना स्वाभाविक है। वैसे भी जब तक मुझे कोई मुवक्किल पसंद नहीं होता तो उस का मुकदमा मैं नहीं करता। ऐसे ही एक मुवक्किल से कोई पच्चीस साल पहले परिचय हुआ था। फिर वे बड़े भाई से हो गए। जीवन में उन्हों ने बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ खोया भी, लेकिन जीवन पूरा जीवट से जिया। कोई पचास बरस पहले पसंद की लड़की से मंदिर में माला पहन पहना कर ब्याह किया। फौज की नौकरी की, छोड़ी फिर कारखाने में क्लर्क रहे। यूनियन के नेतृत्व भी किया और फिर जिस दिन मालिक ने देखा कि मौका है तो उन्हें नौकरी से निकाल भी दिया। वे मुकदमा लड़ते रहे। और मुकदमे तो फिर भी जल्दी निपट जाते हैं। लेकिन मजदूरों के मुकदमे शायद कभी नहीं निपटते। कम से कम आठ दस साल तो लेबर कोर्ट निपटा देती है। फिर मालिक हाईकोर्ट चला गया तो वहाँ तो मुकदमों का अंबार है। वैसे भी बड़ी अदालतों को नेताओं-अभिनेताओं के मुकदमों से फुरसत कहाँ जो मजदूरों के मुकदमे निपटाएँ। तो वे चलते रहते हैं। मजदूर आस लगाए बैठा रहता है शायद इस जिन्दगी में फैसला हो जाए। हो भी जाता है तो उसे लागू कराने में जीवन समाप्त हो जाता है। 
दो हफ्ते पहले उन का फोन आया। छोटे बेटे की शादी तय कर दी है। 12 मई को गोदावरी स्कूल में आना है। कोई कार्ड नहीं, कोई बुलावा नहीं। हम ने कहा पहुँच जाएंगे। आज दिन में उन्हें फोन कर के पूछा कार्यक्रम क्या है? तो कहने लगे बस आठ बजे आना है। माला पहनाएंगे और खाना खाएंगे और बस मौज करेंगे। 
हम सवा आठ बजे पहुँचे। स्कूल के बीच के मैदान में भोजन की संक्षिप्त व्यवस्था थी। एक और मंच बना था। दू्ल्हा दुलहिन की कुर्सी खाली थी। मंच के नजदीक संगीत जरूर बज रहा था। वे दरवाजे से घुसते ही मैदान में दिखाई दे गए। हम ने उन के एक दो चित्र ले लिए। इतने में किसी ने पूछा दूल्हा दुलहिन कहाँ हैं? 
- दोनों ब्यूटी पार्लर गए हैं। अभी आते होंगे। आप तो भोजन कीजिए।
किसी ने उन्हें लिफाफा देना चाहा। उन्हों ने सख्ती से इन्कार कर दिया।
म चुपचाप खाने की तरफ चल दिए। प्लेट उठाई, सलाद लिया और आगे बढ़ गए। एक पनीर मटर थी पर तरी बहुत थी, आगे बढ़े तो भरवाँ टिंडे, वे भी बहुत चिकने थे, हम और आगे बढ़ गए।  दही का रायता दिखा एक प्याली भर लिया। आगे रसगुल्ले थे, एक उठाया। फिर दाल की बर्फी, वह भी एक उठा ली। आगे गरम पूरियाँ थीं सादा और पालक वाली, एक एक वे भी उठायी। फिर थी दाल की कचौरियाँ जिन के बिना कोटा में शादी की दावत मुश्किल होती है। एक वह भी उठायी। फिर दाल थी, सादी, यानी बिना लहसुन प्याज की, पर मसालेदार थी, स्वाद की कमी को ढकने के लिए लहसुन की जरूरत न थी। आगे तंदूर था, पर तंदूर की कच्ची पक्की हमें पसंद नहीं थी। सोचा जरूरत हुई तो पूरी उठा लेंगे। 
हम भोजन करने लगे तो वे भी पास आ गए। पूछने लगे भोजन कैसा है। हमें तो स्वादिष्ट लगा था। हम ने कह दिया कि मजा आ गया। 
धर मंच पर हलचल हुई थी। दूल्हा पहुँच गया था। हम भी भोजन से निपट कर उधर मंच की ओर बढ़ चले। ढोल बजने लगा और दुलहिन भी एक दो लड़कियों के साथ मंच पर थी। फिर कुछ देर हलचल होती रही। फिर मालाएँ आ गईं। दुल्हिन दूल्हे के गले में डालने लगी तो दूल्हा पंजों पर ऊंचा हो गया। यही क्रिया दुबारा दोहराई गई। दुलहिन शरमा कर पीछे हट गई, ऐसे कि जैसे अब नहीं पहनाएगी। दूल्हा जरा सुस्त हुआ और उस ने लपक कर माला दूल्हे के गले में डाल दी। दुल्हा सकपका गया। इस बार पाँव के पंजे पिछड़ गए थे। 
दूल्हे ने आसानी से माला दुलहिन के गले में डाल दी। दुलहिन पीछे हटना चाहती थी पर हट न सकी। इस बीच कैमरे और मोबाइल रोशनियाँ चमकाते रहे। मैं ने भी एक चित्र लेने के लिए मोबाइल निकालने को जेब की तरफ हाथ बढ़ाया तो वे कहने लगे लिफाफा नहीं चलेगा।.
मैं ने भी कहा- आप को लिफाफा दे कौन रहा है और आप होते कौन हैं लेने वाले?
खैर, कुछ लोग नवयुगल को बधाई देने मंच पर चढ़ते और उतर आते। मैं ने भी उत्तमार्ध को इशारा किया और मंच पर चढ़ा दूल्हे को बधाई दी। इस बीच उत्तमार्ध ने लिफाफा दुलहिन को पकड़ा दिया। उस ने उस के पैर छू कर शुभकामनाएँ झटक लीं। 
म मंच से नीचे उतरे तो उन से पूछ लिया। अब आगे क्या कार्यक्रम है? वे बताने लगे...
दुलहिन का पिता पंडित है और अध्यापक भी। अभी हवन करा कर सप्तपदी करा देंगे। हमारी तरफ से तो दोनों ने माला पहन ली शादी हो गयी। रात को एक दो बजे तक घर पहुँच जाएंगे।
दुलहिन मोहल्ले की है? मैं ने पूछा।
-नहीं बहुत दूर उत्तर प्रदेश के हरदोई की है। औदिच्य ब्राह्मण हैं। एक शादी में लड़की वालों के साथ हरदोई से आए थे। यहाँ व्यवस्था में बेटा भी था। दुर्घटना ये हुई कि फेरे होने के पहले दुलहिन के पिता का देहान्त हो गया। किसी को नहीं बताया। बेटा काम में जुटा था तो उसे बताया। उस ने चुपचाप एंबुलेंस की व्यवस्था कर दुलहिन के पिता के शव को रवाना किया। फिर शादी हुई। बेटे का स्वभाव देख कर कुछ दिन बाद लड़की के पिता आए और शादी पक्की कर गए। मैं ने उन्हें तभी कह दिया था कि हमें कुछ नहीं चाहिए। लड़की को ले आओ एक दिन मित्रों रिश्तेदारों को बुला कर भोजन कराएंगे, लड़के लड़की एक दूसरे को माला पहनाएंगे और शादी हो जाएगी। वे कहने लगे फेरे तो कराने होंगे। मैं ने कह दिया- वह तुम्हारी मर्जी है। 
शादी में कोई ढाई तीन सौ लोग उपस्थित थे। कोई बैंड नहीं, कोई घोड़ी नहीं, कोई जलूस नहीं। पर शादी बहुत शान्त और मधुर थी।  शादी में और क्या होना चाहिए? एक नया घर बस गया।

बुधवार, 1 मई 2013

हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

मई दिवस 2013 पर गुनगुनाइए साथी महेन्द्र नेह का यह अमर गीत ...



हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ... 
                              - महेन्द्र नेह


म करवट लेते वक्त की जिन्दा गवाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

म झुक नहीं सकते किसी तूफान के आगे
हम रुक नहीं सकते किसी चट्टान के आगे
कुर्बानियों की राह के जाँबाज राही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

म को नहीं स्वीकार ये धोखे की तकरीरें
हम को नहीं मंजूर ये पाँवों की जंजीरें
हम लूट के ज़ालिम ठिकानों की तबाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

म ने बहुत से जार, कर बेजार छोड़े हैं
हम ने अनेकों हिटलरों के दाँत तोड़े हैं
हम शाहों को मिट्टी चटाती लोकशाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

ह धार हँसिए की हमे बढ़ना सिखाती है
हम को हथौड़े की पकड़ बढ़ना सिखाती है
हम हर अंधेरे के मुकाबिल कार्यवाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...


रविवार, 28 अप्रैल 2013

ये आग नहीं बुझेगी

ल सुबह टंकी पर चढ़े सेमटेल-सेमकोर पिक्चर ट्यूब कारखानों के श्रमिक प्रशासन से बातचीत और आश्वासनों के बाद शाम को टंकी से नीचे उतर गए। पर प्रश्न है कि क्या प्रशासन उन्हें उन का बकाया वेतन दिलवा सकेगा? कारखाने 7 नवम्बर 2012 को बंद हुए थे। अक्टूबर 2012 के पूरे महिने श्रमिकों ने पूरी मेहनत से काम किया था और क्षमता से अधिक उत्पादन किया था। उस माह का वेतन भी आज तक बकाया है। इस वेतन को वसूल करने के लिए एक मुकदमा श्रमिकों की ओर से वेतन भुगतान प्राधिकारी के यहाँ पेश किया गया। जिस में निर्णय हुए आज चार माह हो चुके हैं। लेकिन न तो राज्य सरकार मालिक से वेतन की वसूली कर सकी है और न ही वसूल करने के लिए कंपनियों की संपत्ति पर कुर्की का कोई आदेश जारी कर सकी है। उलटे मालिक ने कारखाने बंद करने की जो अनुमति सरकार से मांगी थी उस आवेदन का 60 दिन में निर्णय कर के मालिक को सूचित न करने के कारण मालिक को स्वतः ही अनुमति मिल गई है। 

 
स से स्पष्ट है कि राजस्थान सरकार मालिकों के साथ है। मजदूरों के लिए उस के पास कुछ नहीं है। लगता है सरकार में बैठे मंत्रियों कि निगाहें इस कारखानों की बेशकीमती जमीन को हथिया कर उसे  बिल्डरों को बेच कर करोड़ों के वारे न्यारे करने की योजना की तरफ हैं। मजदूरों का क्या वे छह माह से हकों की लड़ाई लड़ रहे हैं कितने दिन लड़ेंगे। जब खाने को नहीं बचेगा और किरानी और मकान मालिक अपने पैसों के लिए दबाव डालेंगे तो वे अपने आप मैदान छोड़ कर भाग जाएंगे।  आज देश में जो सरकारें हैं वे इसी तरह काम कर रही हैं। उन्हें काम करने वालों से बस इतना मतलब है कि काम करने के वक्त वे काम करते रहें। उन्हें उन की मजदूरी और उन के हक मिलें न मिलें इस की उन्हें कोई परवाह नहीं।

लेकिन जो आग मजदूरों में, उन के परिवारों के सदस्यों में, स्कूल जाने वाले बच्चों में पैदा हुई है वह नहीं बुझेगी। सरकार और पूंजीपति समझ रहे हैं कि उस पर राख पड़ जाएगी। पर आग तो आग है, वह राख के नीचे भी सुलगती रहेगी। फिर यह आग पेट की भूख से पैदा हुई है जो कभी नहीं बुझती।  इन मजदूरों के परिवार कुछ महिनों में अपने अपने गाँव चले जाएंगे या फिर रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों में चले जाएंगे। सरकार, नौकरशाह और पूंजीपति समझेंगे काम खत्म। लेकिन ये लोग देश के जिस भी हिस्से में जाएंगे आग को साथ ले जाएंगे।  

रकार, नौकरशाह और पूंजीपति जान लें कि उन्हों ने हनुमान नाम के बंदर की पूंछ में आग लगा दी है। उस की पूंछ की यह आग तभी बुझेगी जब लंका के तमाम सोने के महल आग की भेंट न चढ़ जाएंगे।

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मजदूरों के पास लड़ने और मर मिटने के सिवा रास्ता क्या है?

सेमकोर ग्लास लि. और सेमटल कलर लि. के पिक्चर ट्यूब बनाने वाले दो कारखाने कोटा में हैं। पिछली नवम्बर में दोनों कारखानों को चलता छोड़ कर प्रबंधन चलता बना। कारखाना रह गया और मजदूर रह गए। कारखाना बंद हो गया। प्रबंधन ने अनेक दस्तावेजों में खुद यह माना कि कारखाना बंद हो गया है और अब वह नहीं चला सकता। लेकिन कारखाना सरकार से इजाजत लिए बिना बंद करना अपराध है। इस लिए बाद में कारखाना बंद करने की अनुमति के लिए सरकार के पास प्रबंधन ने आवेदन प्रस्तुत किया। मई और जून 2013 में कारखाने को बंद करने की अनुमति मांगी गई। राजस्थान सरकार ने न तो अनुमति दी और न ही इन्कार किया। कुल मिला कर प्रबंधन को अनुमति मिलना मान लिया गया क्यों कि कानून यह है कि यदि राज्य सरकार आवेदन देने के 60 दिन में आवेदन को निरस्त करने का आदेश प्रबंधन को न पहुँचाए तो प्रबंधन को यह मानने का अधिकार है कि उसे कारखाना बंद करने की अनुमति मिल गई है। यानी सरकार ने अनुमति नहीं दी, उस में सरकार को आदेश लिखना पड़ता जिस में कलम घिसती ऊपर से मजदूरों का बुरा बनना पड़ता। इसलिए सरकार चुप हो गयी। अब जबर किसी को मारे और राजा जी चुप रहें इसे राजा जी का अन्याय थोड़े ही कहा जाएगा। अब कारखाने के मालिक खुश हैं और मजदूर साँसत में। 

कारखाने अभी कागज में बंद नहीं है। एक मई में और दूसरा जून में बंद होगा। मजदूरों को अक्टूबर 2012 से वेतन नहीं मिला है। मजदूर खूब आंदोलन कर चुके हैं। उन्हों ने सब किया है। सरकार और प्रशासन कहता है कि वे उन की पूरी मदद करेंगे। लेकिन कोई करता नहीं है। परदे के पीछे से सब मालिक की मदद करने पर उतारू हैं। अब मजदूर न सरकार का पेट भर सकता है और न अफसरों का वह तो केवल कारखाने का मालिक ही भर सकता है। मजदूर पहले मार्च 2013 में पानी की टंकी पर चढ़ गए थे। तब मुख्यमंत्री के आश्वासन पर उतरे थे। आज तक कुछ नहीं हुआ तो आज फिर टंकी पर चढ़े हुए हैं। सरकार ने इस बार कुछ ठान लिया है। टंकी के नीचे जो मजदूर इकट्ठे थे उन्हें पकड़ कर शहर के विभिन्न थानों में बैठा दिया गया है। विपक्षी दल भाजपा की भी इस मामले में वही नीति है जो मौजूदा कांग्रेस सरकार की है। उस ने भी मजदूरों से सहानुभूति दिखाने के सिवा पिछले सात महीने में कुछ नहीं किया, यहाँ तक कि मजदूरों के साथ खड़ा तक न हुआ। उसे अपना राज लाना है। ताकि मौजूदा सरकार के स्थान पर वे मालिकों की चाकरी बजा सकें।  मजदूरों के पास लड़ने और मर मिटने के सिवा रास्ता क्या है?

जदूर जानते हैं कि कारखाने नहीं चलेंगे। वे केवल कारखाना बंद होने की अनुमति जिस दिन के लिए मिली है उस दिन तक का वेतन उन्हें मिले, छंटनी का मुआवजा मिल जाए और उनकी ग्रेच्यूटी व प्रोवीडेण्ट फण्ड का पैसा मिल जाए। ये सब उन के कानूनी अधिकार हैं।  फिर वे जाएँ और कहीं और रोजगार तलाशें। लेकिन मालिक केवल नवम्बर 2013 तक का वेतन देना चाहता है और उसी हिसाब से मुआवाजा आदि। वह भी तब देगा जब मजदूर इस पर  समझैौता कर लें उस के आठ-दस महिने बाद। तब तक मजदूर क्या करें? मालिक जानता है कि कानूनी हक वह न देगा तो मजदूर अदालत जाएंगे जहाँ अगले बीस साल फैसला नहीं होने का। तब तक मजदूर कहाँ बचेंगे। इस लिए कानूनी हक क्यों दिया जाए। सरकार में इतना दम नहीं कि वह मालिक से मजदूरों का हक दिलवा दे। उसे सिर्फ मजदूरों पर लाठी भाँजना, गोली दागना, उन्हें जेल भेजना, दंडित करना आता है वही कर रही है। मजदूर समझ रहे हैं कि अब जब तक निजाम को बदला नहीं जाता। खुद एक राजनैतिक ताकत बन कर इस पर कब्जा नहीं किया जाता तब तक उन्हें न्याय नहीं मिलेगा। वे जानते हैं कि ये रास्ता दुष्कर है लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं। कब तक ऐसे ही पिटते लुटते रहेंगे?

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

ओ........! सड़कवासी राम! ...

हरीश भादानी जन कवि थे। 
थार की रेत का रुदन उन के गीतों में सुनाई देता था।
आज राम नवमी के दिन उन का यह गीत स्मरण हो आया ...

ओ! सड़कवासी राम!

  • .हरीश भादानी

ओ! सड़कवासी राम!
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों दर रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम।
ओ! सड़कवासी राम!


सोच के सिर मोर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन तुझको
ये चितेरे
आलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलती शाम।
ओ! सड़कवासी राम!

 
पोर घिस घिस
क्या गिने चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फेंके गए हैं
ऐषणाओं के पहरुए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
कर ली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम।
ओ! सड़कवासी राम!