@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

विदेशी शब्दों की बाढ़


मारे साहित्य के प्रत्येक युग में विदेशी शब्दों की एक बाढ़ सी हमारे यहाँ आई है।  हमारा अपना युग भी इस का अपवाद नहीं है।  और यह एक ऐसी चीज है जिस का जल्दी ही अन्त नहीं होगा।  विदेशी धरती में विकसित नए विचारों से हमारा परिचय अपने साथ नए शब्दों को भी ले आता है।  लेकिन इस में कोई शक नहीं कि बिना जरूरत या बिना उपयुक्त कारण के हमारी भाषा में विदेशी शब्दों की खिचड़ी पकाने का आग्रह सहज बुद्धि और परिष्कृत रुचि के विरुद्ध है।  लेकिन यह आग्रह न तो हमारी भाषा का कुछ बाल बाँका कर सकता है, न ही हमारे साहित्य का।  यह केवल उन्हीं के लिए बुरा सिद्ध होगा जिन के सिर पर यह सवार है।  लेकिन इस की दूसरी, विरोधी अति, अर्थात अपरिमित शुद्धता का भी कोई भिन्न नतीजा नहीं निकलेगा।  दोनों एक ही सिक्के को दो पहलू हैं।  भाषा का एक अपनी आत्मा, उस की अपनी प्रतिमा है।  इसलिए उन ढेर सारे विदेशी शब्दों में से जिन का समावेश किया गया, केवल कुछ ही जीवित रह सके, बाकी अपने आप गायब हो गए।  इसी प्रकार, नए गढ़े गए शब्दों का भी वही भाग्य होगा, - कुछ प्रचलित होंगे और बाकी लुप्त हो जाएंगे। 

-विस्सारिन ग्रिगोरियेविच बेलिंस्की (1811-1848) प्रसिद्ध रूसी आलोचक

ज्ञान का, और अन्धविश्वासों का सूत्रपात




मानव सदा अपनी आदिम अवस्था में नहीं रह सकता था, सदा प्रकृति और गोचर जगत की नाल से जुड़ा नहीं रह सकता था।  पशु ही ऐसा है जो प्रकृति से कभी अनमेल या बेसुरेपन का अनुभव नहीं करता, किन्तु मानव? न केवल बाह्य प्रकृति से, वरन् स्वयं अपने से भी उस का द्वंद्व चलता रहता है।  यह असंगति इसे झनझनाती  और व्यथित करती है, और यह व्यथा उसे सदा आगे बढ़ने को प्रेरित करती है।  कभी कभी ऐसा होता है कि प्रकृति के साथ यह वैमनस्य, यह अंतर्विरोध इतना भयानक रूप ले लेता है कि मानव सत्य की टोह छोड़ कर ऑथेलो की भाँति अन्धी झुंझलाहट और क्षोभ से त्रस्त किसी भुलावे को पकड़ने के लिए, यहाँ तक कि एकदम औघड़ जादू-टोनों तक में पड़ने के लिए विकल हो उठता है।  यह जैसे भी हो, उस जानलेवा द्वंद्व को भूलना और उस से निकल भागना चाहता है¡  ... यहीं से ज्ञान का, और अन्धविश्वासों का भी सूत्रपात होता है...¡

- अलेक्सान्द्र इवानोविच हर्ज़न (1812-1870)

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

एक पेजी मार्क्सवाद

हुत लोग हैं जो मार्क्सवाद पर उसे बिना जाने बात करते हैं।  उन्हें लगता है कि मार्क्सवाद को समझना कठिन है या वह बहुत विस्तृत है उस में सर कौन खपाए। लेकिन मार्क्सवाद को समझना कठिन नहीं है। यूँ तो किसी भी दर्शन को समझने के लिए बहुत कुछ करना होता है। इसे यूँ समझ लीजिए कि कार्ल मार्क्स ने अपनी मूल प्रारंभिक पुस्तक "राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" लिखने के लिए पंद्रह वर्षो तक अनुसंधान कार्य किया और अपने आर्थिक सिद्धान्त का आधार तैयार किया। उन्हों ने अपने अन्वेषण के निष्कर्षों को अर्थशास्त्र के एक वृहत् ग्रंथ में सूत्रबद्ध करने की योजना बनाई। इस ग्रन्थ का पहला भाग जून 1859 में प्रकाशित हुआ। उस के प्रकाशन के तुरन्त बाद दूसरा भाग प्रकाशित करने का इरादा मार्क्स का था। लेकिन अगले विस्तृत अध्ययन के कारण उन्हों ने पूंजी लिख डाली। 

"राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" की जो भूमिका मार्क्स ने लिखी उस में एक पृष्ठ के एक पैरा में अपने सिद्धान्त, जो बाद में मार्क्सवाद की रीढ़ माना गया को स्पष्ट किया है।  जो लोग मार्क्सवाद को समझना चाहते हैं उन्हें इस एक पैरा में सब कुछ मिल सकता है और इच्छा होने पर बाद में वे और आगे अध्ययन कर सकते हैं। आप इस एक पृष्ठ की मार्क्सवाद की रूपरेखा को "एक पेजी मार्क्सवाद" की संज्ञा दे सकते हैं। 


क्या है मार्क्सवाद?


पने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बन्धते हैं जो अपरिहार्य एवं उन की इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन सम्बन्धों का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है – व ह असली बुनियाद है, जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिस के अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्कर्या को निर्धारित करती है। मनुष्यों की चेतना उन के अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उलटे उन का सामाजिक अस्तित्व उन की चेतना को निर्धारित करता है। अपने विकास की एक खास मंजिल पर पहुँच कर समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियाँ तत्कालीन उत्पादन सम्बन्धों से, या – उसी चीज को कानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है – उन सम्पत्ति सम्बन्धों से टकराती है।, जिन के अंतर्गत वे उस समय तक काम करती होती है। ये सम्बन्ध उत्पादन शक्तियों के विकास के अनुरूप न रह कर उन के लिए बेड़ियाँ बन जाते हैं। तब सामाजिक क्रांति का युग शुरु होता है। आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ समस्त वृहदाकार ऊपरी ढाँचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है। ऐसे रूपान्तरणों पर विचार करते हुए, एक भेद हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपान्तरण है, जो प्रकृति विज्ञान की अचूकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर वे कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्यबोधी, या दार्शिनिक, संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं, जिन के दायरे में मनुष्य इस टक्कर के प्रति सचेत होते हैं और उस से निपटते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी राय इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, उसी तरह हम ऐसे रूपान्तरण के युग के बारे में स्वयं उस युग की चेतना के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते। इस के विपरीत भौतिक जीवन के अन्तर्विरोधों के आधार पर ही, समाज की उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार पर ही इस चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए। कोई भी समाज व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती, जब तक उस के अन्दर तमाम उत्पादन शक्तियाँ, जिन के लिए उस में जगह है, विकसित नहीं हो जातीं और नए, उच्चतर उत्पादन सम्बन्धों का आविर्भाव तब तक नहीं होता जब तक कि उन के अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट नहीं हो चुकतीं। इसलिए मानव जाति अपने लिए हमेशा ऐसे ही कार्यभार निर्धारित करती है, जिन्हें वह सम्पन्न कर सकती है। कारण यह कि मामले को गौर से देखने पर हमेशा हम यही पाएंगे कि स्वयं कार्यभार केवल तभी उपस्थित होता है, जब उसे सम्पन्न करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियाँ पहले से तैयार होती हैं, या कम से कम तैयार हो रही होती हैं। मोटे तौर से ऐशियाई, प्राचीन, सामन्ती एवं आधुनिक, पूंजीवादी उत्पादन प्रणालियाँ समाज की आर्थिक संरचना के अनुक्रमिक युग कही जा सकती हैं। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया के अन्तिम विरोधी रूप हैं – व्यक्तिगत विरोध के अर्थ में नहीं, वरन् व्यक्तियों के जीवन की सामाजिक अवस्थाओं से उद्भूत विरोध के अर्थ में विरोधी हैं। साथ ही पूंजीवादी समाज के गर्भ में विकसित होती हुई उत्पादन शक्तियाँ इस विरोध के हल की भौतिक अवस्थाएँ उत्पन्न करती हैं। अतः इस सामाजिक संरचना के साथ मानव समाज के विकास का प्रागैतिहासिक अध्याय समाप्त हो जाता है।


-कार्ल मार्क्स, राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास की भूमिका से (1859)

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

मनुष्य समाज का भविष्य क्या है?


र्गहीन मानव समाज एक सपना नही अपितु यथार्थ है। मानव समाज को अस्तित्व में आए दो लाख वर्ष हुए हैं। इन में से 90 से 95 प्रतिशत समय उस ने वर्गहीन समाज की अवस्था में ही बिताया है। मनुष्य जीवन का मात्र पिछले दस हजार वर्षों का काल ही ऐसा है जिन में वर्गों का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। पृथ्वी पर मनुष्य के आविर्भाव से आज तक के काल का केवल पाँच प्रतिशत के अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त करना कि वर्गहीन समाज एक सपना है अपने आप में एक सपना है। साम्यवाद मनुष्य समाज से एक वर्ग को समाप्त कर देने मात्र से स्थापित नहीं हो सकता। उस के लिए मनुष्य समाज के सभी वर्गों का समूल नाश होना आवश्यक है। साम्यवाद तभी संभव है। सभी वर्गों के समूल नाश की बात से केवल वे लोग इन्कार करते हैं जो किसी न किसी प्रकार से शोषण पर आधारित व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं और शोषकों और शोषण की व्यवस्था की रक्षा में खड़े हैं। मुझे उन लोगों पर हँसी आती है जो "साम्यवादी शासन" की बात करते हैं। साम्यवाद में तो शासन होता ही नहीं वह तो मानव समाज की शासनहीनता की अवस्था है। सभी समान हों तो कौन किस पर शासन करेगा? साम्यवाद और शासन में तो उतना ही बैर है, जितना रोशनी और अंधकार में। जब कोई वर्ग ही नहीं होगा तो कौन किस पर शासन करेगा? वर्गीय शासन में जनता शब्द या तो कोई अर्थ नहीं रखता और यदि रखता है तो उस से केवल वे लोग भासित होते हैं जो शोषक वर्ग के शिकार हैं। वास्तव में जनता एक भ्रामक शब्द है। समाज में शोषक होते और शोषित होते हैं। वर्तमान समाज व्यवस्था में जब पूंजीपति वर्ग ने अपने ही जाए उजरती मजदूरों के वर्ग के हाथों अपनी मृत्यु को निश्चित जान कर अपनी रक्षा के लिए सामंतवाद के समूल नाश के अपने कर्तव्य से च्युत हो कर उन से समझौता किया और अनेक ऐसे वर्गीय समूहों को जीवित रहने दिया जो खुद एक और श्रमजीवियों के शोषण में जुटे हैं तो दूसरी ओर सरमाएदारों के शोषण के शिकार भी हैं। यह पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग ही हैं जो मनुष्य समाज के सभी सदस्यों को जनता की संज्ञा प्रदान कर के भेड़ों और भेड़ियों की युति को रेवड़ बताने के भ्रम को जीवित रखते हैं। जब तक मनुष्यों की खाल में भेड़िये मौजूद हैं साम्यवाद किसी प्रकार संभव नहीं। ये भेड़िये ही हैं जो साम्यवाद के विरोधी हैं जो अपनी अवश्यंभावी मृत्यु के टल जाने को जनता द्वारा साम्यवाद के विचार को कूड़े के ढेर में फेंक देना घोषित करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि “वर्गहीन समाज भले स्थापित हो जाय पर शासनहीन होना सम्भव नहीं लगता। आदिम समय से ही मनुष्य मनुष्य पर शासन करता आया है। जानवरों तक में यह प्रवृत्ति पायी जा सकती है। काश मनुष्य की यह इच्छा सच हो पाती पर शायद यह (शासनहीनता की स्थिति) व्यावहारिक रूप से कभी नहीं हो सकेगा।” इस तरह सोचने वाले लोग मनुष्य जीवन के 95 प्रतिशत काल को मनुष्य जीवनकाल के संपूर्ण अनुभव को 100 प्रतिशत पर थोप रहे होते हैं। शासन को तो सभ्यता के युग ने उत्पन्न किया है। उस के पहले के इतिहास में शासन कहाँ था? कोई जरा इतिहास से खोज कर तो बताए। इस धारणा को भी शोषक वर्गो ने अपनी अवश्यम्भावी मृत्यु को कुछ समय के लिए टालने के लिए जन्म देता है और उसे प्रचारित करता है। इस के बिना तो वे पाँच बरस भी जीवित नहीं रह सकते।

क्सर यह सन्देह प्रकट किया जाता है कि ये शोषक भेड़िये साम्यवाद की खाल में भी मौजूद हैं जो साम्यवाद के नाम पर शासन करने का मंसूबा पालते रहते हैं। तो उन के लिए जवाब हाजिर है कि भेड़िए साम्यवाद की खाल जरूर पहन सकते हैं। क्यों कि जब मौत आती है तो सियार शहर की ओर भागते हैं। हर समाजवाद और साम्यवाद विरोधी शासक ने समाजवाद का नारा जोरों से लगाया है। उन में हिटलर भी शामिल है और इंदिरागांधी भी।  लोग यह भी कहते हैं कि इतिहास में हजारों चीजें हैं जो वापस लौट कर नहीं आतीं। उसी तरह वर्गहीन समाज भी लौट कर नहीं आ सकता। वे सही कहते हैं कि हजारों चीजें है जो वापस नहीं लाई जा सकतीं। लेकिन मैं कहता हूँ कि किसी भी चीज को वापस नहीं लाया जा सकता और न ही किसी भी समाज को पीछे नहीं ले जाया जा सकता। हालांकि लोग और अनेक इतिहासकार यह घोषणा भी करते रहते हैं कि इतिहास दोहराया जाता है। लेकिन इतिहास कभी खुद को नहीं दोहराता। विकास की गति वृत्ताकार नहीं होती। वह गोलाकार कमानी (Spring) की तरह होती है। इस अवधारणा को अब तक के इतिहास ने बार बार प्रमाणित किया है। चीजें लौटती है लेकिन पहले से अधिक विकसित रूप में। हमें जानना चाहिए कि मनुष्य समाज में वर्गो की उत्पत्ति क्यों कर हुई? वे क्या कारक थे जिन्होंने वर्गों को उत्पन्न किया? वर्गीय सत्ताएँ बार बार सत्ताच्युत की गई हैं, नए वर्गों ने पुराने वर्गों को हटा कर अपने वर्ग के लिए मुक्ति प्राप्त की है और अपनी सत्ता स्थापित की है। लेकिन इस पूंजीवाद ने उजरती मजदूरों के एक नए वर्ग को पैदा किया है (जिस में उच्च वेतनभोगी तकनीशियन, वैज्ञानिक और प्रबंधक भी सम्मिलित हैं) जो लगातार मुक्ति के लिए संघर्षरत है। उजरती मजदूरों का यह वर्ग अत्यन्त विशाल है। 
पूंजीवाद ने स्वयं अपने विकास के इस चरण में साबित कर दिया है कि पूंजीपति वर्ग मनुष्य समाज के लिए बिलकुल बेकार की चीज है, समाज में उस के लिए कोई काम नहीं है वह मनुष्य समाज के लिए एक व्यर्थ का बोझा मात्र है।  स्वयं पूंजीपति वर्ग ने सभी प्रकार के कामों को वेतनभोगी उजरती मजदूरों को करने को सौंप दिया है और उन्हें वे सफलतापूर्वक कर रहे हैं। पूंजीवादी विचारक उजरती मजदूरों के इस वर्ग को अनेक फर्जी उपवर्गों में विभाजित करते है। लेकिन ये सभी विभाजन आभासी हैं उन का समाप्त होना अवश्यंभावी है। यही वह क्रांतिकारी वर्ग है जिसे वर्तमान सत्ता को समाप्त करना है। लेकिन यही वह वर्ग भी है जो शासन कर के स्वयं मुक्त नहीं हो सकता। उस की मुक्ति और विजय इसी में है कि वह मनुष्य समाज से सदैव के लिए वर्गों का उन्मूलन कर दे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो प्रतिक्रांति ही उस का भविष्य बन जाती है।  यह प्रतिक्रांति फिर से पूंजीपति वर्ग को जीवनदान देती है और उस की सत्ता की अस्थाई पुनर्स्थापना करती है। जब जब भी उजरती मजदूरों के इस सर्वहारा वर्ग ने पूंजीवाद को परास्त करने के उपरान्त मनुष्य समाज से तमाम वर्गों के उन्मूलन के संघर्ष को स्थगित किया है वहाँ प्रतिक्रांतियाँ हुई हैं। लेकिन यह नया विशाल वर्ग अपने अनुभवों से लगातार सीखता है और सीख रहा है। उस ने अपनी मुक्ति के संघर्ष को त्यागा नहीं है, वह इसे त्याग भी नहीं सकता। उसने अपने संघर्ष को और अधिक मजबूत किया है। आरंभ में यह संघर्ष केवल सुविधाएँ हासिल करने का होता था। लेकिन जब वह देखता है कि सुविधाएँ तो उस से बार बार छीन ली जाती हैं तो वह अपनी सत्ता स्थापित करने में इस का हल पाता है और जब वह यह अनुभव हासिल कर लेता है कि उस की सत्ता को भी बार बार पदच्युत कर दिया जाता है तो वह वर्गों के समूल नाश की और आगे बढ़ता है। वह वर्ग मुक्ति की कामना और उस के लिए संघर्ष का कभी त्याग नहीं कर सकता। उस की मुक्ति वर्गों के उन्मूलन में है जिसे वह एक दिन हासिल कर के रहेगा। साम्यवाद ही मानव समाज का भविष्य है।

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

दुनिया के सभी श्रमजीवी एक कौम हैं।

ब किसी ऐसे कारखाने में अचानक उत्पादन बंद हो जाए, जिस में डेढ़ दो हजार मजदूर कर्मचारी काम करते हों और प्रबंधन मौके से गायब हो जाए तो कर्मचारी क्या समझेंगे? निश्चित ही  मजदूर-कर्मचारी ही नहीं जो भी व्यक्ति सुनेगा वही यही सोचेगा कि कारखाने के मालिक अपनी जिम्मेदारी से बच कर भाग गए हैं।   इस दीवाली के त्यौहार के ठीक पहले पिछली पांच नवम्बर को यही कुछ कोटा के सेमटेल कलर लि. और सेमकोर ग्लास लि. कारखानों में हुआ।  गैस और बिजली के कनेक्शन कट गए।  प्रबंधन कारखाने को छोड़ कर गायब हो गया।  मजदूर कारखाने पर ड्यूटी पर आते रहे। कुछ कंटेनर्स में रिजर्व गैस मौजूद थी। कुछ दिन उस से कारखाने के संयंत्रों को जीवित रखा।  फिर खतरा हुआ कि बिना टेक्नीकल सपोर्ट के अचानक प्रोसेस बंद हो गया तो विस्फोट न हो जाए।  फिर भी प्रबंधन न तो मौके पर आया और न ही उस ने कोई तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई।  जैसे तैसे मजदूरों ने अपनी समझबूझ और अनुभव से कारखाने के प्रोसेस को बंद किया।  तीन माह हो चले हैं प्रबंधन अब भी मौके से गायब है।

ब कंपनी का चेयरमेन कहता है कि कारखानों के उत्पादों की बाजार में मांग नहीं है इस लिए उन्हें नहीं चलाया जा सकता।  सारी दुनिया इस बात को जानती है कि कारखाने और उद्योग अमर नहीं हैं।   वे आवश्यकता होने पर पैदा होते हैं और मरते भी हैं, उन की भी एक उम्र होती है।  इन कारखानों के साथ भी ऐसा ही हुआ है और यह कोई नई घटना नहीं है।  सभी उद्योगों के प्रबंधकों को अपने कारखानों के बंद होने की यह नियति बहुत पहले पता होती है।  वे जानते हैं कि उन के उत्पाद के स्थान पर एक नया उत्पाद बाजार में आ गया है, जल्दी वह उन के उद्योग के उत्पाद का स्थान ले लेगा और उन का कारखाना अंततः बंद हो जाएगा।  उन्हें चाहिए कि वे कारखाने को बंद करने की प्रक्रिया तभी आरंभ कर दें।   अपने कर्मचारियों और मजदूरों को बताएँ कि उन की योजना क्या है? और वे कब तक कर्मचारियों को रोजगार दे सकेंगे? जिस से कर्मचारी अपने लिए काम तलाशने की कोशिश में जुट जाएँ। जब तक उन्हें इन कारखानों में काम मिलना बंद हो वे अपने रोजगार की व्यवस्था बना लें।  जब वे नए रोजगार के लिए जाने लगें तो उन्हें उन का बकाया वेतन, ग्रेच्युटी और भविष्य निधि आदि की राशि नकद मिल जाए।  

लेकिन कोई कारखानेदार ऐसा नहीं करता।  वह कर्मचारियों और मजदूरों में यह भरोसा बनाए रखने का पुरजोर प्रयत्न करता है कि कारखाना बंद नहीं होगा।  वे कैसे भी उसे चलाएंगे।  हालांकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे प्रकृति से नहीं लड़ सकते और कारखाना अवश्य बंद होगा।  तब प्रबंधक उद्योग में लगी पूंजी से अधिक से अधिक धन निकालने लगते हैं।  उसे खोखला करने पर उतर आते हैं।  कोशिश करते हैं कि वित्तीय संस्थाओं से अधिक से अधिक कर्ज लें।  इस के लिए वे कारखाने की सभी संपत्तियों को गिरवी रख देते हैं।  अंत में उद्योग की संपत्तियों पर भारी कर्ज छूट जाता है इतना कि उस से किसी तरह कर्ज न चुकाया जा सके, और छूट जाते हैं मजदूरों कर्मचारियों के बकाया वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि की राशियाँ।  उ्द्योगों के ये स्वामी कर्मचारियों को जो वेतन देते हैं उस में से भविष्य निधि, जीवन बीमा आदि के लिए कर्मचारियों के अंशदान की कटौती करते हैं लेकिन उन्हें भविष्य निधि योजना और जीवन बीमा आदि को जमा नहीं कराते।  ये भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अमानत में खयानत/गबन का गंभीर अपराध है।  पर कोई पुलिस उन के इस अपराध का प्रसंज्ञान नहीं लेती। 

द्योगिक कंपनी एक दिन बीमार कंपनी बन जाती है और बीमार औद्योगिक कंपनियों के पुनर्वास बोर्ड को आवेदन करती है कि उसे बचाया जाए। अजीब बात है यहाँ वक्त की मार से मरने वाले उद्योग का खाना खुराक  समय से पहले बंद कर के उसे मारने का पूरा इंतजाम किया जाता है और फिर उसे बीमार और यतीम बना कर समाज के सामने पेश कर दिया जाता है कि अब उसे बचाने की जिम्मेदारी समाज की है।  यही आज का सच है।   आज अधिकांश उद्योग आधुनिक हैं और उन में उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। सैंकड़ों हजारों लोग मिल कर उत्पादन करते हैं। उन के बिना उत्पादन संभव नहीं, लेकिन उन में से कोई भी न तो उत्पादन के साधनों का स्वामी है और न ही उत्पादित माल की मिल्कियत उस की है। उत्पादन के साधनों और उत्पादित माल दोनों पर पूंजीपतियों का स्वामित्व है जिन के बिना भी ये चल सकते हैं, जो खुद अपने ही किए से बिलकुल बेकार की चीज सिद्ध हो चुके हैं। 

मारी सरकारें, वे राज्यों और केंद्र में बैठी सिर्फ आश्वासनों की जुगाली करती हैं।  वे बीमार कंपनियों को स्वस्थ बनाने के अस्पताल के नाम पर बीआईएफआर और एएआईएफआर जैसी संस्थाओं को स्थापित करती हैं।  वे इस बात की कोई व्यवस्था नहीं करतीं जिस से यह पता लगाया जा सके कि वक्त की मार में कौन से उद्योग अगले 2-4-5 सालों में बंद हो सकते हैं।  यदि वे इस के लिए कोई काम करें तो फिर उन्हें यह भी व्यवस्था करनी होगी कि बंद उद्योगों के मजदूरों को कहाँ खपाया जाए, उन के लिए वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।  यह भी व्यवस्था बनानी जाए कि बंद होने वाले उद्योग के कर्मचारियों को उन का वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि आदि की राशि समय से मिल जाए।  लेकिन देश और देश की जनता की ठेकेदार सरकारें ये व्यवस्था क्यों करने लगीं।  वे मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों और श्रमजीवी बिरादरी का प्रतिनिधित्व थोड़े ही करती हैं।  जब उन की पार्टियों को वोट लेने होते हैं तभी वे सिर्फ इस का नाटक करती हैं।  उन्हें तो अपने मालिकों (पूंजीपतियों, जमींदारों और विदेशी पूंजीपतियों की चाकरी बजानी होती है।)  ये चाकरी वे पूरी मुस्तैदी से करती हैं।  वे कहती हैं उन्हों ने बकाया वेतन के लिए, बकाया ग्रेच्युटी के लिए और भविष्य निधि की राशि मजदूरों को मिले उस के लिए कानून बना रखे हैं। उन्हों ने ऐसे कानून भी बना रखे हैं जिस से बड़े कारखाने सरकार की अनुमति के बिना बंद न हों।  (छोटे कारखानों को जब चाहे तब बंद होने की कानून से भी छूट है) लेकिन कारखाने फिर भी बंद होते हैं।  मजदूरों कर्मचारियों के वेतन फिर भी बकाया है, उन की ग्रेच्यूटी बकाया है।  भविष्य निधि में नियोजक के अंशदान की बात तो दूर उन के खुद के वेतन से काटा गया अंशदान भी पूंजीपति आसानी से पचा गए हैं, डकार भी नहीं ले रहे हैं।   कानून श्रमजीवी जनता के लिए फालतू की चीज है। क्यों कि उन्हें लागू करने वाली मशीनरी के लिए सरकार के पास धन नहीं है।  थोड़ी बहुत मशीनरी है उस के पास बहुत काम हैं। वे इस काम को करेंगे तब तक खून पीने वाले ये पंछी न जाने कहाँ गायब हो चुके होंगे।  यह मशीनरी पूरी तरह से पूंजीपतियों की जरखरीद गुलाम हो चुकी है। 

तो रास्ता क्या है?  जब तक श्रमजीवी जनता केवल अपनी छोटी मोटी आर्थिक मांगों के लिए ही एक बद्ध होती रहेगी तब तक उस की कोई परवाह नहीं करेगा।  अब तो वे इस एकता के बल पर लड़ कर वेतन बढ़ाने तक की लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकते।  आज राजनीति पर पूंजीपतियों और भूस्वामियों का कब्जा है। राजनीति उन के लिए होती है।  सरकारें उन के लिए बनती हैं। श्रमजीवी जनता के लिए नहीं।  श्रमजीवियों के लिए सिर्फ और सिर्फ आश्वासन होते हैं।  मजदूरों और कर्मचारियों को यह समझाया जाता है कि राजनीति बुरी चीज है और उन के लिए नहीं है,  वह केवल पैसे वालों के लिए है।  दलित और पिछड़े श्रमजीवियों को समझाया जाता है कि यह ब्राह्मण है इस ने तुम्हारा सदियों शोषण किया है, ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्रमजीवी को समझाया जाता है कि वे जन्मजात श्रेष्ठ हैं, इस के आगे उन्हें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों में बाँटा जाता है।  इस से भी काम नहीं चलता तो उन्हें मर्द और औरत बना कर कहा जाता है कि  औरतें तो कमजोर हैं और सिर्फ शासित होने के लिए हैं चाहें वे किसी उम्र हों,  चाहे घर में हों या बाहर हों। श्रमजीवियों को इस समझ से छुटकारा पाना होगा।  संगठित होना होगा।  एक कौम के रूप में संगठित होना होगा।  उन्हें समझना होगा कि दुनिया के सभी श्रमजीवी, मजदूर, किसान, कर्मचारी, विद्यार्थी, महिलाएँ एक कौम हैं।  उन्हें श्रमजीवियों की अपनी इस कौम के लिए आज के सत्ताधारी पूंजीपतियों, जमीदारों से सत्ता छीननी होगी।  ऐसी सत्ता स्थापित करनी होगी जो धीरे धीरे श्रमजीवियों के अलावा सभी कौमों को नष्ट कर दे और खुद भी नष्ट हो जाए। 

खैर, फिलहाल तीन माह हो रहे हैं सेमटेल कलर और सेमकोर ग्लास के 1800 श्रमिकों को कारखानों में खाली बैठे डटे हुए।  प्रबंधन गायब है।  वह राजधानी दिल्ली में सरकार और कानून की सुरक्षा में बैठा बैठा एलान कर रहा है कि कारखाना अब चल नहीं सकता।  वह मजदूरों की पाई पाई चुका देगा।  लेकिन कारखानों की जमीन बेच कर।  मजदूरों को पता है कंपनी पर कर्जा है, ऐसा कर्जा जो सीक्योर्ड (डेट) कहलाता है।  कानून कहता है कि पहले सीक्योर्ड क्रेडिटर का चुकारा किया जाएगा।  मालिक ने कारखाना बंद करने के बहुत बाद में सरकार को कारखाना बंद करने और  बीआईएफआर को कंपनी को बीमार घोषित करने के आवेदन पेश कर दिए हैं। सीक्योर्ड क्रेडिटरों को चुकारा करने के बाद कंपनी के पास कुछ नहीं बचना है।  सरकार कहती है कि जमीन औद्योगिक उपयोग की है और लीज पर है उसे अन्य कामों के लिए बेचा नहीं जा सकता।  औद्योगिक उपयोग के लिए बेचने पर जो रकम मिलेगी उसे सीक्योर्ड क्रेडिटर पचा जाएंगे।  मजदूरों कर्मचारियों के लिए न कोई कानून है और न कोई सरकार।  श्रम विभाग के पास केवल आश्वासन पर आश्वासन हैं।  तमाम प्रतिक्रिया वादी दल और संगठन जिन में भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सम्मिलित हैं खूब उछलकूद मचा रहे हैं कि वे मजदूरों को उन के हक दिला कर रहेंगे।  मजदूरों को चार माह से वेतन नहीं मिला है।  उन के घर किस से चल रहे हैं?  उन के बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं? किसे पता?

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं

कोई पाँच बरस पहले ब्लागिरी शुरु हुई थी। पहले ब्लाग तीसरा खंबा आरंभ हुआ और लगभग एक माह बाद अनवरत। धीरे धीरे गति बढ़ी और हर तीन दिन में कम से कम दो पोस्टें लिखने लगा। लेकिन 2011 में आ कर गति कम हुई,  सप्ताह में तीन चार पोस्टें रह गईं। 2012 में केवल 53 पोस्टें हुई, औसत सप्ताह में केवल एक पर आ कर टिक गया। इस वर्ष तो जनवरी निकला जा रहा है लेकिन एक भी पोस्ट न हो सकी। कहा जा सकता है कि ब्लागिरी से मोह टूट रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। अखबार, पत्रिकाएँ और पुस्तकें जिस तरह लेखन और विचारों को प्रकाश में लाने के माध्यम है उसी तरह ब्लागिरी भी है। सब से अच्छा तो यह है कि यह एक स्वयं प्रकाशन माध्यम है। जिस पर आप केवल खुद ही नियंत्रण रखते हैं। 
ब्लागिरी की गति कम होने के अनेक कारण रहे हैं। जिन में कुछ तो मेरे अपने स्वास्थ्य संबंधी कारण हैं। दिसंबर 2011 में हर्पीज जोस्टर का शिकार होने के बाद, दाँतों ने कष्ट दिया और उस के तुरंत बाद ऑस्टिओ आर्थराइटिस ने जकड़ा जिस के कारण एक पैर में लिगामेंट का स्ट्रेन भुगतना पड़ा। ऑस्टियो आर्थराइटिस नियंत्रण में है पर उस ने दोनों घुटनों के कार्टिलेज को जो क्षति पहुँचाई है उस की भरपाई में समय लगेगा। जब किसी व्यक्ति के चलने फिरने में बाधा आती है तो उस की सभी गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। आय के साधन जो व्यक्ति और परिवार को चलाने के लिए महत्वपूर्ण हैं उन्हें नियमित रूप से चलाए रखना आवश्यक होता है।  उन कामों को करने के उपरान्त समय इतना कम शेष रहता है कि अन्यान्य गतिविधियों मंद हो जाती हैं। यही मेरे साथ भी हुआ।
र्ष 2011 के अंत में तीसरा खंबा ब्लाग को एक स्वतंत्र वेबसाइट में परिवर्तित किया गया था। यह साइट कानूनी विषयों पर है और जोर इस बात पर है कि कानूनी मामलों पर पाठकों का विधिक शिक्षण हो तथा अधिक से अधिक मामलों पर आम पाठक की सहायता की जा सके। तीसरा खंबा अनेक बाधाओं के बावजूद लगभग निरंतर है। वर्ष 2012 में उस पर 330 पोस्टें लिखी गईं। यदि सप्ताह का एक दिन अवकाश का समझ लें तो औसतन प्रतिदिन एक पोस्ट से अधिक इस साइट पर लिखी गई है। अधिकांश पोस्टों में पाठकों को उन की कानूनी समस्याओं के हल सुझाए गए हैं। एक समस्या का हल सुझाने और उसे वेबसाइट पर लाने में कम से कम एक से दो घंटे तो लगते ही हैं।  मैं समझता हूँ कि एक व्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन के लिए इतना समय व्यतीत करना पर्याप्त है।
तीसरा खंबा का एक खास उद्देश्य है। लेकिन अनवरत ब्लाग अपने विचारों व लेखन को और अपनी मनपसंद रचनाओं को सामने लाने का माध्यम बना। उसी से हिन्दी के ब्लाग जगत में मेरी पहचान बनाई।  पाँच वर्ष की ब्लागिरी की ओर पीछे मुड़ कर झाँकता हूँ तब महसूस होता है कि बिना किसी योजना के बहुत कुछ कर डाला गया।  लेकिन जो कुछ किया गया उसे कुछ योजना बद्ध रीति से और तरतीब से भी किया जा सकता था। पिछले दो माह इसी विचार में निकले कि वहाँ क्या किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यह समय भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है। जब समाज पूरी तरह से बदलाव चाहता है। लेकिन प्रश्न यही हैं कि समाज में किस तरह का बदलाव कैसे संभव है।  समाज कोई एक  व्यक्ति या समूहों की इच्छा से नहीं बदलता। समाज की भौतिक आर्थिक परिस्थितियाँ उसे बदलती हैं।  वे ही नए शक्ति समूह खड़े करती हैं जो समाज को बदलते हैं। निश्चित रूप से यह अध्ययन का विषय है।  इस समय में मुझे क्या करना चाहिए? अनवरत ब्लाग का उपयोग किस तरह करना चाहिए? यही सोच रहा हूँ।  पर सोच की इस प्रक्रिया के बीच अनवरत का यह ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है। अनवरत को अनवरत रहना चाहिए। इस लिए यह तय किया है कि सप्ताह में कम से कम एक बार पोस्ट अवश्य लिखी जाए और इस की गति को बढ़ा कर सप्ताह में 3-4 पर लाया जाए।
 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

अपनी राजनीति खुद करनी होगी

दिन भर अदालत में रहना होता है। लगभग रोज ही जलूस कलेक्ट्री पर प्रदर्शन करने आते हैं। पर उन में अधिकतर बनावटी होते हैं।  उस रोज बहुत दिनों के बाद एक सच्चा जलूस देखा। वे सेमटेल कलर ट्यूब उद्योग के श्रमिक थे। ठीक दीवाली के पहले उन के कारखाने को प्रबंधन छोड़ कर भाग गया। श्रमिक उसे कुछ दिन चलाते रहे। लेकिन कच्चा माल और बिजली और गैस कनेक्शन कट जाने से कारखाना बंद हो गया। कारखाना अब श्रमिकों के कब्जे में है उद्योगपति कोटा आने से डर रहा है। कहता है वह अब उद्योग को चलाने की स्थिति में नहीं है। अर्थात उद्योग सदैव के लिए बंद हो गया है। कानून में प्रावधान है कि उद्योग बंद हो तो कंपनी या उद्योग का स्वामी श्रमिकों को बकाया वेतन, मुआवजा. ग्रेच्चूटी आदि का भुगतान करे और उन के भविष्य निधि खातों का निपटान करे। लेकिन उद्योगपति की नीयत ठीक नहीं है। इसे श्रमिक, सरकार और नगर के बहुत से लोग जानते हैं। उद्योगपति कहता है उसे कारखाने में पड़ा माल बेच लेने दिया जाए फिर वह श्रमिकों को बकाया दे देगा। लेकिन बहुत से उद्योगपति श्रमिकों का बकाया चुकाए बिना कारखाना बंद कर भाग चुके हैं और श्रमिक लड़ते रह गए।

श्रमिकों को बकाया दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की है। पर सरकार तो खुद पूंजीपतियों की है। उस का कहना है कोई कानून नहीं है जो कि श्रमिकों को उन का बकाया दिला सके। लेकिन सरकार के पास अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। वह चाहे तो उद्योग की संपत्ति कुर्क कर के कब्जा कर सकती है। करोड़ों रुपए कथित जनहित कामों में लुटा कर ठेकेदारो को अमीर बनाने वाली सरकार चाहे तो श्रमिकों का बकाया अपने पास से चुका कर उद्योग की संपत्ति कुर्क और नीलाम कर के उसे वसूल कर सकती है। बिना अनुमति कोई उद्योगपति कारखाने को बंद नहीं कर सकता, यह अपराध है। चाहे तो सरकार उद्योगपति के विरुद्ध अपराधिक मुकदमा चला सकती है। इस अपराध को संज्ञेय और अजमानतीय बना दिया जाए तो उन्हें गिरफ्तार भी कर सकती है। पर वह अपने ही आकाओं के खिलाफ ऐसा क्यों करने लगी?


द्योग बंद होने का कारण स्पष्ट है। बाजार में कलर पिक्चर ट्यूबों का स्थान एलईडी आदि ने ले लिया है उन की मांग कम होती जा रही है, मुनाफा कम हो गया है। उद्योगपति को मुनाफा चाहिए। वह इस उद्योग से पूंजी निकाल चुका है। बाकी को निकालने में सरकार उस की मदद करेगी। लेकिन मजदूरों की नहीं।


जदूर समझने लगे हैं कि उन की किसी को परवाह नहीं। कभी साथ लगते भी हैं तो इलाके के छोटे किसान उन का साथ देते हैं जो उन के स्वाभाविक परिजन हैं। उन्हें अपने जीवन सुधारने हैं तो खुद ही कुछ करना होगा। यह सब वे अपनी एकता के बल पर ही कर सकते हैं। उन्हें खुद अपनी एकता का निर्माण करना होगा और फिर किसानों की। उन्हें अपने नेता खुद बनाने होंगे जो उन के साथ दगा न करें। बिना मजदूर किसानों की एकता का निर्माण कर सत्ता पर कब्जा किेए वे अपने जीवन में तिल मात्र सुधार नहीं ला सकते। उन्हें खुद अपनी राजनीति खुद करनी होगी।