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शनिवार, 31 मई 2008

प्रजातंत्र की जय हो!


Republic Nepal

राजा तब तक ही राजा रह सकता है जब तक जनता को प्रिय होता है। जनता के लिए अप्रिय होने पर पहला अवसर प्राप्त होते ही जनता राजा को उखाड़ फेंकती है। यही सब कुछ हुआ नेपाल में भी। नेपाल की राजशाही समाप्त हुई। अब नेपाल गणतंत्र है। नेपाली गण की इस विजय और गणतंत्र की स्थापना के भावों को संजोया है महेन्द्र "नेह" ने इस ग़जल में.........

प्रजातंत्र की जय हो!

* महेन्द्र 'नेह' *



उछली सौ-सौ हाथ मछलियाँ ताल की।

चौड़े में उड़ गईं धज्जियाँ जाल की।


गूँज उठी समवेत दहाड़ कहारों की।

नहीं ढोइंगे राजा 'जू' की पालकी।


आजादी के परचम फहरे शिखरों तक।

खुशबू फैली गहरे लाल गुलाल की।


उमड़ पड़े खलिहान, खेत, बस्तियाँ गाँव।

कुर्बानी दे पावन धरा निहाल की।


टूट गया आतंक फौज बन्दूकों का।

शेष कथा है विक्रम औ बैताल की।


सामराज के चाकर समझ नहीं पाए।

बदली जब रफ्तार समय की चाल की।


प्रजातंत्र की जय हो, जय हो जनता की।

जय हो जन गण उन्नायक नेपाल की।

nepal Republic 1

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सोमवार, 26 मई 2008

जानलेवा और मारक हो चुकी है आरक्षण की औषध ------------ कोई नई औषध खोज लाएँ अनुसंधानकर्ता

गुर्जर आंदोलन पर मुख्यमंत्री वसुन्धरा के रवैये को समझा जा सकता है। वे कहती हैं - सब्र की भी सीमा होती है: वसुंधरा अगर हम आज की राजनीति के चरित्र को ठीक से समझ लें। उसी तरह गुर्जर आंदोलन के नेता बैसला के इस बयान से कि पटरियों पर होगा फैसला: बैसला आंदोलन के चरित्र को भी समझा जा सकता है।

पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आरक्षण की जो चिकित्सा संविधान ने तय की थी उसे वोट प्राप्ति के लिए रामबाण समझ लेने और लगातार बढ़ाए जाने से जो स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, गुर्जर आंन्दोलन उसी का उप-उत्पाद है। एक लम्बे समय तक किसी औषध का प्रयोग होता रहे तो उस के साइड इफेक्टस् भी खतरनाक होने लगते हैं और वह जानलेवा भी साबित होने लगती है। सभ्य समाज ऐसी औषधियों का प्रयोग और उत्पादन प्रतिबंधित कर देती है। ऐसा भी होता है कि अगर आप कब्ज या ऐसे ही किसी मर्ज के रोगी हों, और कब्ज को दूर करने के लिए किसी एक औषध को लगातार लेते रहें तो वह औषध का रूप त्याग कर नित्य भोजन का अत्यावश्यक भाग बन जाती है। धीरे धीरे वह अपना असर भी खोना प्रारंभ कर देती है। फिर औषध की या तो मात्रा बढ़ानी पड़ती है, या फिर औषध ही बदल देनी पड़ती है।
आरक्षण जिसे एक रोग की चिकित्सा मात्र के लिए औषध के रूप में लाया गया था। यहाँ तक कि उस की "एक्सपायरी डेट" तक भी निर्धारित कर दी गई थी। उसे अब औषध की सूची से निकाल कर खाद्य की सूची में शामिल कर लिया गया है। इस लिए नहीं कि वह रोग की चिकित्सा है या रोगी के लिए जीवन रक्षक है। अपितु इसलिए कि कथित चिकित्सक समझ रहे हैं कि अगर यह दवा बन्द कर दी गई तो रोगी उस के कब्जे से भाग लेगा और इस से उस के धन्धे पर असर पड़ेगा। चिकित्सक शोध नहीं करते शोधकर्ता और ही होते हैं। जब कोई औषध बेअसर होने लगती है तो वे नयी औषध के लिए अनुसंधान करते हैं, और नयी औषध लाते हैं। तब जानलेवा औषधियों को प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
इस गुर्जर आंदोलन की आग नहीं बुझेगी। कोई समझौते का मार्ग तलाश भी कर लिया जाए तो वह केवल आग पर राख डालने जैसा होगा। आग अन्दर- अन्दर ही सुलगती रहेगी। ये न समझा जाए कि वह अन्य समाजों में न फैलेगी। कहीं ऐसा न हो कि यह वाकई एक दावानल का रूप ले ले।
ये चिकित्सक (राजनैतिक दल) कभी भी नयी औषध का आविष्कार नहीं करेंगे। क्यों कि ये धन्धा करने आए हैं। चिकित्सा की परंपरा को विकसित करने नहीं। इन के भरोसे समाज, देश और मानव जाति को नहीं छोड़ा जा सकता है। अनुसंधानकर्ता ही कोई नयी औषध ले कर आएंगे तो मानव जाति बचेगी।
मेरा विनम्र आग्रह है उन सामाजिक अनुसंधानकर्ताओं से जो समाज के प्रति अपने दायित्व  को पहचानते हैं, कि वे इस काम मे लगें। कोई नयी औषध तलाश कर लाएँ, जिस से इस मारक, जानलेवा औषध आरक्षण को प्रतिस्थापित किया जा सके। वरना इतिहास न तो इन चिकित्सकों को माफ करेगा और न ही अनुसंधानकर्ताओं को।

रविवार, 25 मई 2008

गुर्जर-2............यह आँदोलन है या दावानल ?

कोटा के आज के अखबारों में गुर्जर आंदोलन छाया हुआ है।

अखबारों ने जो शीर्षक लगाए हैं, उन्हें देखें.....................

सिकन्दरा में कहर - हालात बेकाबू, 23 और मरे, दो दिन में 39 लोग मारे गए, 100 से अधिक घायल - जवानों ने की एसपी व एसडीएम की पिटाई - हिंसक आंदोलन बर्दाश्त नहीं...वसुन्धरा - तीन कलेक्टर दो एसपी बदले - मौत का बयाना - कोटा में आज दूध की सप्लाई बंद, हाइवे पर जाम लगाएँगे - रेल यातायात ठप, बसें भी नहीं चलीं - टिकट विंडो भी रही बन्द - कोटा-दिल्ली-आगरा के बीच रेल सेवाएँ ठप,यात्रियों ने आरक्षण रद्द कराए, परेशानी उठानी पड़ी, रेल प्रशासन को करोड़ों का नुकसान, कई परीक्षाएँ स्थगित - लाखों के टिकट रद्द - श्रद्धांजली देने के खातिर गूजर नहीं बाँटेंगे दूध - ट्रेनें रद्द होने से कई परीक्षाएँ रद्द - एम.एड. परीक्षा टली - प्री बी.एड परीक्षा बाद में होगी - रेलवे ट्रेक की भी क्षति - श्रद्धांजलि देने की खातिर गुर्जर नहीं बाँटेंगे दूध - गुर्जर आंन्दोलन की आँच हाड़ौती में भी फैली - नैनवाँ पुलिस पर हमला - चार पुलिसकर्मी घायल- गर्जरों ने पहाड़ियों पर जमाया मोर्चा - राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर बाणगंगा नदी के पास जाम - कोटा शिवपुरी ग्वालियर सड़क संपर्क दो घंटे बन्द रहा - बून्दी बारां व झालावाड़ में जाम - स्टेट हाईवे 34 पर आवागमन बन्द - रावतभाटा रोड़ पर देर रात जाम - बून्दी जैतपुर में जाम पुलिसकर्मी पिटे - झालावाड़ बसें बन्द - 17 गुर्जर बन्दियों ने दी अनशन की धमकी - सेना सतर्क, बीएसएफ पहुँची, आरफीएसएफ की एक कम्पनी बयाना जाएगी - हर थाने को दो गाड़ियाँ - रात को दबिश - हाड़ौती के कई कस्बों में आज बन्द - राजस्थान विश्व विद्यालय की परीक्षाएं स्थगित - पटरी पर कुछ भी नहीं - ... प्रदेश में अशांति की अंतहीन लपटें - भरतपुर बयाना के हालात=पटरियाँ तोड़ी फिश प्लेटें उखाड़ी - दूसरे दिन बयाना में पहुँची सेना, शव लेकर रेल्वे ट्रेक पर बैठे रहे बैसला - डीजीपी ने हेलीकॉप्टर से लिया जायजा - चिट्ठी आने तक नहीं हटेंगे बैसला- गुर्जर आन्दोलन = गुस्सा+ जोश= पाँच किलोमीटर - यह तो धर्मयुद्ध है - जोर शोर से पहुँची महिलाएँ - चाहे चारों भाई हो जाएँ कुर्बान - मेवाड़ में सड़कों पर उतरे गुर्जर - राजसमन्द में हाईवे जाम - हजारों गुर्जरों का बयाना कूच - छिन गया सुख चैन- ठहरी साँसें - अटकी राहें - सहमी निगाहें - हैलो भाई तुम ठीक तो हो - कई रास्ते बंद जयपुर रोड़ पर खोदी सड़क - 8 कार्यपालक मजिस्ट्रेट नियुक्त - किशनगढ़ भीलवाड़ा बन्द सफल - दो गुर्जर नेता गिरफ्तार - करौली -टोक में सड़कें सुनसान - चित्तौड़गढ़ अजमेर अलवर और करौली आज बन्द - सहमे रहे लोग आशंकाओं में बीता दिन - शकावाटी में भी बिफरे गुर्जर - नीम का थाना में एक बस को आग के हवाले किया - चार बसों में तोड़ फोड़ - बस चालक घायल कई जगह रास्ता जाम- पाटन में सवारियों से भरी बस को आग लगाने का प्रयास - सीकर झुन्झुनु के गुढ़ागौड़ जी व खेतड़ी में गुर्जरों की सभाएँ और सीएम का पुतला फूँका ............

..........................................आपने पढ़े खबरों के हेडिंग ये एक दिन के एक ही अखबार से हैं। दूसरे अखबार से शामिल नहीं किये गए हैं। अब आप अंदाज लगाएँ कि यह आँदोलन है या दावानल ?

इस दावानल का स्रोत कहाँ है? वोटों के लिए और सिर्फ वोटों के लिए की जा रही भारतीय राजनीति में ?  पूरी जाति,  वह भी पशु चराने और उन के दूध से आजीविका चलाने वाली जाति से आप क्या अपेक्षा रख सकते हैं। यह पीछे रह गए हैं तो उस में दोष किस का है? इन के साथ के मीणा अनुसूचित जाति में शामिल हो कर बहुत आगे बढ़ गए हैं। गुर्जरों को यह बर्दाश्त नहीं। उन्हें राजनीतिक हल देना पड़ेगा। पर मीणा वोट अधिक हैं। उन्हें नाराज कैसे करें?

  

पिछड़ेपन को दूर करने की नाकाम दवा आरक्षण के जानलेवा साइड इफेक्टस हैं ये।

ये आग भड़क गई है। नहीं बुझेगी आरक्षण से। पीछे कतार में अनेक जातियाँ खड़ी हैं।

आरक्षण को समाप्ति की ओर ले जाना होगा। पिछड़ेपन को दूर करने और समानता स्थापित करने का नया रास्ता तलाशना पड़ेगा। मगर कौन तलाशे?

बुधवार, 21 मई 2008

क्या आप एक प्रोफेशनल हैं?

इस प्रश्न पर कि क्या आप एक प्रोफेशनल हैं? साइंटोलॉजी (सत्य का अध्ययन) के प्रवर्तक एल. रॉन हबार्ड क्या कहते हैं?  जरा उस की बानगी देखिए-

आप कैसे देखते हैं? बात करते हैं , लिखते हैं, कैसे चलते हैं? और कैसे काम करते हैं? ये बातें यह निर्धारित करती हैं कि आप एक प्रोफेशनल हैं, या एक शौकिया।  कोई भी समाज प्रोफेशनलिज्म के महत्व पर जोर नही देता, इसलिए लोगों का मानना है कि शौकिया काम करने के तरीके सामान्य श्रेणी के हैं।

विद्यालय और विश्वविद्यालय उन छात्रों को भी स्नातक का तमगा दे देते हैं, जो अपनी भाषा को भी ठीक से पढ़ना नहीं जानते। ड्राइविंग लायसेंस के लिए टेस्ट देते समय आप जरूरी सवालों में से साठ प्रतिशत के सही और बाकी के गलत जवाब देकर भी लायसेंस प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन यह शौकिया रवैया है।

प्रोफेशनल रवैया इस से अलग है। कोई भी चाहे तो अपने रवैये में बदलाव कर के खुद को प्रोफेशनल बना सकता है। यही बात चिट्ठाकार, लेखक और कोई भी अन्य काम करने वाले के लिए सही है। ऐसा किया जा सकता है, बशर्ते कि आप अपनी कुछ बातों पर ध्यान दें।

  • आप कभी भी, कुछ भी यह सोच कर नहीं करें कि आप एक शौकिया काम कर रहे हैं।
  • आप कुछ भी करें,  तो उसे यह सोच कर करें कि आप एक प्रोफेशनल हैं, और प्रोफेशनल स्तर के अनुरूप करने का प्रयास करें।
  • अगर आप कोई भी काम यह सोच कर करते हैं कि आप केवल खेल रहे हैं, या आनंद ले रहे हैं तो इस काम को करने से आप को कोई संतोष नहीं मिलेगा। क्यों कि इस काम को करने पर आप खुद पर गर्व नहीं कर सकते।
  • आप अपने दिमाग को इस तरह से ढालें कि जो भी आप को करना है, वह एक प्रोफेशनल की तरह करना है और काम की गुणवत्ता को प्रोफेशनल स्तर तक ले जाना है।
  • आप अपने बारें में लोगों को यह कहने का मौका नहीं दें कि आप एक शौकिया जीवन जी रहे हैं।
  • प्रोफेशनल्स परिस्थिति का अध्ययन करते हैं और उस का सामना करते हैं, वे उन से कभी भी शौकिया के तौर पर नहीं निपटते।
  • इसलिए इसे जीवन के प्रथम सबक के रूप में सीख लेना चाहिए कि जिनका दृष्टिकोण प्रोफेशनल होगा वे किसी भी क्षेत्र में सफल हो सकेंगे, यहाँ तक कि जिन्दगी को जीने में भी, और वे ही अपने को अच्छा प्रोफेशनल बना पाएंगे।

138 वर्षीय हाजी हबीब ने नहीं मनाया जन्मदिन

राष्ट्रीय सहारा पर प्रकाशित जयपुर राजस्थान की इस खबर को जरुर पढ़ें। लिंक यहाँ मौजूदहै।

सोमवार, 19 मई 2008

अटक जाती है सुई, चूड़ी-बाजे की तरह

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शायद नए लोगों को तो पता भी नहीं होगा कि डीवीडी के पहले सीडी और उस से भी पहले कैसेट, और उस से भी पहले म्युजिक रिकॉर्ड करने के लिए एक साधन हुआ करता था ग्रामोफोन। इस में एक थाली के आकार की प्लेट पर ध्वनि वलयों के रुप में अंकित होती थी। इसी कारण ग्रामोफोन को "चूड़ी-बाजा" भी कहते थे।इस प्लेट को ग्रामोफोन रिकॉर्ड कहा जाता था, इस के मध्य में एक सूराख होता था। ग्रामोफोन की डिस्क जिस के मध्य में एक कील सी होती थी। इस डिस्क पर ग्रामोफोन रिकार्ड को उस के मध्य के सूराख को कील में फंसा कर चढ़ा दिया जाता था। फिर यांत्रिक चाबी के जरिए उस डिस्क को घुमाया जाता था, जिस से रिकॉर्ड भी घूमते हुए नाचने लगता था। इस के घूमना शुरु करने के बाद ग्रामोफोन पर लगे एक हाथनुमा छड़ को जिस के एक सिरे पर एक सुई लगी होती थी सुई के सहारे रिकॉर्ड के बाहरी सिरे पर रख दिया जाता था। नाचते हुए रिकार्ड पर सुई सरकती हुई मध्य में कील की तरफ सरकते हुए रिकॉर्ड पर दर्ज ध्वन्यांकन को पढ़ती थी जिसे बाद में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से स्पीकर तक पहुंचा कर मधुर संगीत का आनन्द लिया जाता था।

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कभी कभी सुई सरकने के स्थान पर एक ही वलय पर अटक जाती थी और उस एक वलय पर अंकित ध्वनि ही दोहराई जाती रहती थी। जैसे - वहाँ अगर "मैं जाऊं" अंकित होता तो ग्रामोफोन "मैं जाऊं" "मैं जाऊं" "मैं जाऊं" "मैं जाऊं" ही दोहराता रहता था जब तक कि उसे मैनुअली ठीक नहीं किया जाता था।

अब आप कहेंगे। मैं इस पुराण को क्यों बाँच रहा हूँ तो इस की वजह यह है कि इस सीडी डीवीडी के जमाने में न्यूज चैनलों की सुई रोज किसी न किसी वलय पर अटक जाती है। बाकी का रिकॉर्ड बजता ही नहीं है। सिर्फ एक वलय ही बजता रहता है।

मार्के की बात यह कि यह सुई मैनुअली भी तब तक नहीं हटती है। जब तक कि रिकार्ड टूट न जाए। रिकार्ड का श्रवण तक अधूरा रह जाता है।

एक टूटते ही चैनल वाले फिर दूसरा रिक़ार्ड चढा देते हैं, वह चलता रहता है टूटने तक। ये चैनल वाले अपनी सुई क्यों नहीं बदल देते जो हर बार अटकती रहती है, बार-बार अटकती है। कोई रिकार्ड पूरा बजने ही नहीं देती।

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शुक्रवार, 16 मई 2008

छिपा आतंकवाद, खुला आतंकवाद

जयपुर धमाकों ने अनेक जानें ले लीं। अनेक घायल हुए, उन में अनेक ऐसे होंगे जो अब कभी भी सामान्य जीवन व्यतीत नहीं कर पायेंगे। अनेक ऐसे भी होंगे जो कदमों की दूरी से इन हादसों के दर्शक रहे होंगे, और उन के दिलों-दिमागों पर इन घटनाओं ने जो असर छोड़ा होगा वह शायद जीवन भर न जाए। हफ्तों, महीनों और बरसों तक उन के मस्तिष्क में वे धमाके गूँजते रहेंगे। शवों के परखच्चे दिखाई देते रहेंगे। अनेक होंगे जो हादसों की जगह जाने से न जाने कितने दिनों तक कतराते रहेंगे, और आने जाने के लिए लम्बे रास्ते चुनते रहेंगे। न जाने कितनी माँएँ होंगी जो अपने बच्चों को महिनों तक भीड़ भरे मंदिरों तक जाने से रोकती रहेंगी और मुहल्ले की हदों से आगे न जाने की हिदायत देती रहेंगी। बमों से निकले छर्रों का विश्लेषण पुलिस और फोरेंसिक विशेषज्ञ कर लेंगे। लेकिन इन हादसों से निकल कर दहशत के जो छर्रे अनेक लोगों के दिलों-दिमागों में जा जमे हैं, न तो उन का कोई विश्लेषण करेगा और न ही उन छर्रों से घायल मानुषों की कोई चिकित्सा हो पाएगी। इन घायलों को न कोई मुआवजा मिलेगा और न कोई सहानुभूति ही। वे दर्द के उन दरियाओं में बह निकलेंगे, जो न जाने कितने बरसों से मानुषों की बस्तिय़ों के बीच से गुजरते हैं। वे जगह बदल लेते हैं, गहरे और उथले हो जाते हैं, पर लगातार बह रहे हैं।

दर्द का एक दरिया उस घर में भी बह रहा होगा जिसे चलाने वाला ही हादसे के साथ चला गया है। मंदिर के सामने फूल-माला, प्रसाद और पूजा बेचने वाले की जगह खाली रहेगी, यही कोई तेरह दिन। इन तेरह दिनों में से किसी दिन उस दुकान (?) को खुलाने की रस्म पूरी होगी। पर क्य़ा दुकान खुल पाएगी? कौन बैठेगा उस पर? कोई महिला जो चूल्हे की जिम्मेदारियों को छोड़, घर चलाने की जिम्मेदारी उठाएगी। या कोई  नाबालिग किशोर जिसे अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी। जिस पर अपनी माँ के सिवा अपने भाई, बहनों और बूढ़े दादा-दादी की रोटी का भी भार  आ पड़ा है। या कोई नहीं आएगा उस परिवार से वहाँ, या कोई और उस जगह को खरीद लेगा, अपना परिवार चलाने के लिए। धमाके की गूँज रोटी की जरूरत के नीचे दब जाएगी।

ऐसे में कोई मदद बाँट कर अपनी फोटो अखबार में छपवा रहा होगा। इधर दूसरे ही दिन से रक्तदान के कैम्प सजने लगे हैं। लोग माला पहन, तिलक लगवा कर टेण्ट हाउस के बिस्तरों पर लेट फोटो खिंचवा रहै हैं। दो चार दिन यह सब चलेगा।  कुछ दिनों के लिए रक्त बैंकों के सामने लगे 'रक्त चाहिए' के होर्डिंगों पर से ब्लड ग्रुप गायब हो जाएंगे। लेकिन कुछ दिनों बाद सभी वापस दिखने लगेंगे।

हादसे की रात ही शहर बंद का ऐलान आ गया। दूसरे दिन सुबह के अखबारों में छपा भी। शहर शोक में बंद रहा या आतंक की छाया में? उत्तर सब जानते हैं, मगर कोई नहीं जानता। सुबह ही लोग पीले-केसरिया पटके कांधो पर सजाए टोलियों में निकले। जो दुकान खुली मिली उसी पर कहर बरपा गए। शहर पूरा बंद रहा। बंद स्वैच्छिक था? अखबारों में बंद की तस्वीरें हैं और खबरें भी। जयपुर के एक अखबार में हवामहल समेत सामने की वीरान सड़क का रंगीन छाया चित्र छपा है, बिना किसी चिड़िया और पिल्ले के। कैप्शन है "बंद के दौरान जयपुर"। इधर खबर यह भी छपी है कि इस इलाके में कर्फ्यू था, जो कुछ घण्टों की छूट के अलावा अब भी जारी है।

कोटा के बंद की खबरें यहाँ के सब अखबारों में हैं। आप खुद इस खबर का जायजा लें....................

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पढ़ ली, खबर? ये है, आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का चेहरा। छिपे आतंकवाद के सामने खुले आतंकवाद का प्रदर्शन। आप पकड़िये आतंकवाद को। यही लोग पैरवी कर रहे हैं, फिर से पोटा जैसा कानून लाने की। किस के खिलाफ उपयोग करेंगे इस कानून का। जो इन के बंद में दुकान खोलने की जुर्रत करेगा? या खुले आतंकवाद का सामना करने के लिए सामने आएगा?