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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

घर की किसी को सुध भी है?

शोएब और सानिया के किस्से में अब कोई जान नहीं रही। सिवाय इस के कि शादी की शान क्या होगी? कैसे कपड़े होंगे? अब दुल्हा-दुल्हन करोड़ों के मालिक हैं तो उन की शादी में खर्च होंगे ही।  आखिर इस महाद्वीप में धन की शान दिखाने का शादी से अच्छा मौका कोई दूसरा कहाँ?
स समय भारत में नक्सलवाद फिर से समाचारों के केंन्द्र में है। उसे खत्म करने की तैयारी थी। घोषणा हो गई थी कि तीन बरस में नक्सलवाद का सफाया कर दिया जाएगा। आरंभिक रूप से जो कदम उठाए गए उन में सरकार को सफलता हाथ नहीं लगी। उलटे हाथ और जल गए। देश ने अपने 76 जवान इस हादसे में एक ही बार में खो दिए।  उन के शव अब उन के गांवों में पहुँच रहे हैं तो जिन घरों में बेटे के शहीद हो जाने पर जिन माँ-बाप का सीना चौड़ा हो जाता था उन घरों में मायूसी है कि हमारे बेटे, भाई की शहादत बेकार चली गई। ऐसे में इस के अलावा कोई रास्ता नहीं था कि गृहमंत्री इस हादसे की जिम्मेदारी खुद अपने ऊपर ले लें। 
किसी समस्या को हल करने का यह तरीका नहीं हो सकता कि जब वह आप का घर जलने लगे तब आप उसे पानी फेंक कर बुझाने चलें और यह सोचें ही नहीं कि आप का घर जलाने की आग पैदा क्यों हुई, आप के घर तक कैसे पहुँची? और पहुँच भी गई तो उस में घर कैसे जलने लगा। यह आग  तो आप किसी तरह बुझा भी लेंगे। लेकिन घर पूरा नहीं तो आधा तो जल ही चुका होगा। आग बुझी हुई दिखने भी लगे तो भी इस बात की क्या गारंटी है कि वह बुझ ही गई है और फिर से नहीं सुलगने लगेगी। 

प को आग बुझानी ही है तो आप को उस के स्रोत तक जाना होगा। देखना होगा कि वह पैदा क्यों होती है? उस के पैदा होने के कारणों को समाप्त करना होगा। जिन समस्याओं ने नक्सलवाद को पैदा किया है उन्हें खत्म करना होगा। अपने घर को ऐसा बनाना होगा कि वह आग पकड़े ही नहीं। पर घर की किसी को सुध भी है? क्या उस की ओर अब भी किसी की निगाह है?

रविवार, 21 जून 2009

"टापू में आग" एक लघुकथा


'लघुकथा'

 टापू में आग 
  • दिनेशराय द्विवेदी

साधु की झोपड़ी नदी के बीच उभरे वृक्ष, लताओं और रंग बिरंगे फूलों से युक्त  हरे-भरे टापू पर थी। एक छोटी सी डोंगी। साधु उस पर बैठ कर नदी पार कर किनारे आता और शाम को चला जाता। कई लोग उस की झोंपड़ी देखने भी जाते। धीरे धीरे लोगों को वह स्थान अच्छा लगा कुछ साधु के शिष्य वहीं रहने लगे। लोगों ने देखा। साधु ने बहुत अच्छी जगह हथिया ली है, तो वे भी वहाँ झौंपडियाँ बनाने लगे। शिष्यों को अच्छा नहीं लगा, उन्हों ने लोगों से कुछ कहा तो वे साधु की निंदा करने लगे। शिष्यों ने साधु से जा कर कहा -लोग टापू पर आ कर बसने लगे हैं।  आप की निंदा करते हैं। हम सुबह शाम कसरत करते हैं आप की आज्ञा हो तो निपट लें। साधु के मुहँ से निकला- साधु! साधु! और फिर कबीर की पंक्तियाँ सुना दीं- 

निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छबाय। 
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।। 

लोगों की संख्या बढ़ती रही, निन्दकों की भी।  साधु के आश्रम में सुबह, शाम, रात्रि हरिभजन होता। अखाड़े में शिष्य जोर करते रहते।  लोग सोचने लगे,  साधु टापू पर से चला जाए तो आराम हो, हमेशा जीवन में विघ्न डालते रहते हैं।  लोगों में साधु के बारे में अनाप-शनाप कहा करते।  साधु से उस के शिष्य जब भी इस बारे में कुछ कहते, साधु उन्हें कबीर का वही दोहा सुना देता - निन्दक नियरे राखिए......

एक दिन साधु शिष्यों सहित नदी पार बस्ती में गया हुआ था।  बस्ती में ही किसी शिष्य ने बताया कि टापू पर आग लगी है।  वे सभी नदी किनारे पहुंचे तो क्या देखते हैं लोग साधु की झौंपड़ी में लगी आग को बुझाने के बजाए उस में तेल और लकड़ियाँ झोंक रहे हैं।  यहाँ तक कि टापू पर शेष डोंगियाँ भी उन्हों ने उस में झोंक दीं। शिष्य टापू पर जाने के लिए शीघ्रता से डोंगियों में बैठने लगे। साधु ने मना कर दिया। सब नीचे भूमि पर आ उतरे।

एक शिष्य ने प्रश्न किया -गुरू जी, आप ने टापू पर जाने से मना क्यों किया?
गुरूजी ने उत्तर दिया -अब वहाँ जाने से कुछ नहीं होगा।  लोग तेल और लकड़ियाँ झौंक रहे हैं, अब कुछ नहीं बचेगा।  यह कह कर साधु अपने शिष्यों सहित वहीं किनारे धूनी रमा कर बैठ गया।

लोगों ने देखा कि टापू की आग तेजी से भड़क उठी।  टापू पर जो कुछ था सब भस्म हो गया।  कुछ लोग ही बमुश्किल बची खुची डोंगियों में बैठ वहाँ से निकल सके।   साधु बहुत दिनों तक वहीं किनारे पर धूनी रमा कर बैठा रहा।  दिन में शिष्य बस्ती में जाते, साधु की वाणी का प्रचार करते और वापस चले आते।  धीरे-धीरे जब टापू पर सब कुछ जल चुका तो आग स्वयमेव ही शांत हो गई।  बची सिर्फ राख।  टापू की सब हरियाली नष्ट हो गई, टापू काला पड़ गया।  फिर बरसात आई राख बह गई। टापू पर फिर से अंकुर फूट पड़े, कुछ ही दिनों में वहाँ पौधे दिखने लगे।  फिर रंग बिरंगे फूल खिले।  दो एक बरस में ही फिर से पेड़ और लताएँ दिखाई देने लगीं। काला टापू फिर से हरियाने लगा।  एक दिन देखा गया, साधु और उस के शिष्य फिर से डोंगी में बैठ टापू की ओर जा रहे थे।