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सोमवार, 21 मार्च 2011

कल की बासी खबर : श्रीमान पिट लिए नहीं आए, सम्मान समारोह कैंसल ... चंदे की ठंडाई छानी गई

ये जो होली है ना!  आती है, तो महिने भर पहले से जितनी भी सीरियस बातें होती हैं, वे सब सिर पर से रपट कर निकलने की कोशिश में रहती हैं।  पूरे महीने के अभ्यास के बाद होली के एक दो दिन पहले तक सीरियस बातों को इतना अभ्यास हो जाता है कि वे भेजे का रुख करना बंद कर देती हैं। भूले-भटके कोई सिर पर लेंड हो भी जाए तो तुरंत ही रपट कर निकल लेती है। जितनी भी जन-मन-रंजन की बातें होती हैं, उन्हें भेजे में  खेले कूदने को अच्छी खासी जगह मिल जाती है। वे चाहें तो उस पर क्रिकेट या गोल्फ भी खेल सकती हैं। किसी किसी का भेजा तो शानदार पिकनिक स्पॉट की तरह हो जाता है। वहाँ वे पूरी मौज में रहती हैं। ऐसे में कोई गंभीर विषय पर कुछ करना चाहे तो वह निश्चय ही चरम-मूर्ख कहा जाएगा। लेकिन वही व्यक्ति यदि जन-रंजन के लिए अपनी पर उतर आए तो उस की पौ-बारह हो जाती है। वह जनता के दिल में तीर की तरह घुसता है और वहीं चिपक कर रह जाता है। जो लोग साल भर बेसिर-पैर की बातों और हरकतों से लोगों को हँसाने का निष्फल प्रयास करते हैं उन की इन दिनों भारी पूछ हो जाती है। वे चैनल और अखबारों को ब्लेक मेल पर उतर आते हैं। लेकिन ये जो सीरियस बातें करने वाले लोग हैं ना, वे भी कम चालू किस्म के नहीं होते। मौसम की नजाकत को वे पूरी तरह समझते हैं और अपनी सारी सीरियसता को पोटली में बांध कर घर के किसी अंधेरे कमरे में महीने-डेढ़ महीने के लिए दफ़्न कर देते हैं।
ये सीजन होली के ठीक एक महीने पहले के पूरे चांद के दिन आरंभ हो जाता है। पहचान के लिए चौराहों पर जहाँ हो कर भारी ट्रेफिक गुजरता है बीचों बीच गड्ढ़ा खोद कर गाड़ दिया जाता है, अक्सर उस पर निशान के रूप में खजूर का बना पुराना घिसा-पिटा-गंदा झाड़ू बांध दिया जाता है। आज कल शहरों के सोफिस्टिकेट लोग उस पर झाड़ू बांधना पसंद नहीं करते, वे उस पर लाल रंग का झंड़ा बांध देते हैं। (कलयुग में जैसे होली के दिन फिरे वैसे सब के फिरें)
धर होली जलते ही लोग अपनी पर उतर आते हैं। दूसरे दिन जो सब कुछ होता है, उसे बताने से कोई लाभ नहीं है, आप सब जानते ही हैं। जानने की तो बात ही क्या, आप तो भुक्तभोगी भी हैं। यह सीजन हमारे हाड़ौती में तेरह दिन बाद न्हाण तक चलता है, मध्यप्रदेश में पाँच दिन बाद रंगपंचमी तक चलता है। पर जो लोग इस सीजन का यहीं अन्त समझ लेते हैं वे भी निरे मूर्ख हैं। जब से अंग्रेज हिन्दुस्तान में आए इस सीजन को एक अप्रेल तक का जीवन दे गए हैं। आप भी तब तक सावधान रहिएगा।
स बार हम भी रपट गए। सीरियस टाइप की बातें करते रहते तो ब्लाग पर कोई नहीं पूछता। दो चित्रों को आपस में घस्स-मस्स कर एक पहेली पूछ डाली। हमने सोचा था कि ऊपर की मंजिल सरकने के इस काल में कोई तो सही सलामत बचा होगा। पर जो लोग ब्लाग पर आए उन में से अनेक तो टिपियाये बिना ही खिसक लिए। जो पाँच-सात परसेंट लोग टिपियाए उन में से कोई भी सही सलामत नहीं निकला। सब कोई होली के मूड़ में थे। हमने ईनाम घोषित किया था। लेकिन एक भी उसे पाने को लालायित नहीं था। झक मार कर हमने ही पहेली का उत्तर बताया। पर इस बार हमने बिलकुल सीजनल वाली पहेली पूछ डाली। ऐसी कि जो देखे उसे ही उत्तर समझ में आ जाए। पर शायद यह सीजनल खतरनाक वाला ईनाम पाने से हर कोई कतरा रहा था, इधर-उधर की बातें सब करते रहे। कोई कहता मैं  ने और आप ने उस के साथ शाम का भोजन किया था। (यह भी याद नहीं रहा कि भोजन दोपहर को किया था) उस शाम का भोजन तो मैं ने अपनी बेटी के घर जा कर किया था। कोई कह रहा था -पहचान तो लिया है पर नाम नहीं बताएंगे। कोई कह रहा था -ठंडाई जरा ज्यादा हो गई है, असर खत्म होने पर बताएँगे। किसी ने कहा ये तो अपने कार्टूनिस्ट बाबू हैं। संकेत तो लोग देते रहे पर नाम बताने में सब को नानी याद आ रही थी। अब इस में डरने की बात क्या थी? ये कोई गिल्ली-डंडा का खेल तो था नहीं, जो बाद में कावड़* भरनी पड़ती। 
मारे कवि महोदय पिट-लिए उर्फ श्रीमान सतीश सक्सेना जी ही एक मात्र सीधे-सादे प्राणी निकले जो उधर ताऊ के गरही कवि सम्मेलन में सब के लट्ठ खा कर, वहाँ से किसी तरह जान बचा कर भागे थे। जल्दी में उन की अक्ल की पोटली ताऊ के घर ही छूट गई थी या फिर रास्ते में छोड़ आए थे। (रास्ते में छूटी होगी तो भी ताऊ के किसी बंदे ने ताऊ के पास पहुँचा दी होगी, इसी तरह दूसरों की अक्ल की पोटलियाँ समेट कर आज कल ताऊ अक्ल का जागीरदार बना बैठा है) उन्हों ने लौटते ही हाँफते-हाँफते पहेली पढ़ डाली, चित्र देखा,  और फट्ट से पहचान लिया, अरे! ये तो हमारे कार्टूनिस्ट बाबू हैं। आव देखा न ताव तुरंत टिपियाए "यह इरफ़ान तो नहीं"।  
ब क्य़ा था तीर कमान से निकल चुका था। टिप्पणी छप गई थी। उसे हटाते तब भी हमारे डाक डब्बे में मौजूद रहती। बहुत बाद में उन्हें समझ आया कि ईनाम के लालच में फँस गए। सोचने लगे ... अब ईनाम दिए जाने में अपनी हालत न जाने क्या की जाएगी? ताऊ के यहाँ से तो कविता सुना कर बच निकले पर यहाँ से निकलना आसान नहीं है। कहीं जान के लाले ही न पड़ जाएँ। पर अब क्या होता? चिड़िया चुग गई खेत पाछे पछताए क्या होत? अब करते भी तो क्या? फिर सोचा ईनाम लेने वाला मैं अकेला थोड़े ही हूंगा, और भी बहुतेरे होंगे। जो सब के साथ होगा, वही मेरे साथ हो जाएगा। लेकिन धुलेंडी की सुबह जब उठ कर देखा कि बंदा अकेला ही रह गया है तो बहुत घबड़ाए। श्रीमान पिट-लिए को ताऊ के घर हुआ लठियाया सम्मान याद कर के रोना आने लगा। सुबह-सुबह उन की हालत देख भाभी जी ने पूछ लिया -लट्ठ की मार तो कल की मालिश से निकल गई होगी, अब क्या हो गया? सूरत सरदारों का टाइम क्यों बजा रही है? वे क्या कहते? सीधे अनवरत की पोस्ट पर अपना कमेंट पढ़ाया।
-ओ...हो! बस इस में ही घबरा गए। तुम ईनामी समारोह में जाओ ही मत। एक तार कर दो, कि ट्रेन छूट गई है सड़क पर हुरियाए लोगों ने जाम कर रखा है। बस बात बन जाएगी। तुम अकेले ही तो हो, तुम्हारा तार मिलेगा तो आयोजकों को प्रोग्राम रद्द ही करना पड़ेगा। इस में उन का भी फायदा है। आयोजन न करने से सारा खर्चा बच जाएगा। जितना चंदा प्रोग्राम के लिए इकट्ठा किया है आयोजक का बैंक बैलेंस बढ़ाएगा। एक अप्रेल निकलने पर जब सीजन खत्म हो जाए तो आयोजकों को फोन कर के कहना -मेरे कारण आप ने बहुत रुपया कमाया है, उस में आधा हिस्सा मेरा है, सीधे-सीधे भेज दो, वर्ना अदालत में दावा कर दूंगा। पिटे-पिटाए महाशय बोले -भली मनख! दो नंबर के कामों के पैसे का हिस्सा मांगने के लिए अदालत में दावा नहीं होता। भाभी बोलीं -नहीं होता तो क्या जनता का चंदा हजम करने के लिए चार सौ बीस का इस्तगासा भी नहीं होता? कर के देखना आधा तो क्या उन्हें पौना देना पड़ेगा। नहीं तो पुलिस उन्हें भी पिटा-पिटाया बनाए बिना नहीं छोड़ेगी।
म क्या करते जैसे ही हमें पिट-लिए महाशय का तार मिला, ईनाम का कार्यक्रम कैंसल करना पड़ा। भाभी के प्लान की खबर हमें लीक हो गई, सो हमने इकट्ठा होने वालों को बोल दिया कि शाम को नहा-धो कर, रंग छुड़ा कर आ जाओ, सारे चंदे की ठंडाई छानी जाएगी। (चार सौ बीस के इस्तगासे से बचने का और कोई तरीका नजर ही नहीं आया) अब कल शाम जो-जो भी ठंडाई छान कर गया आज शाम तक नींद निकाल रहा था। हमारी भी नींद शाम को खुली है, तब जा कर यह सारा कच्चा-चिट्ठा मांडा है।

जय बोलो नीलकंठ, भोले भंडारी की!!
जय बोलो आषुतोष प्रिया विजया मैया की!!!
फिर मिलेंगे ... जल्दी ही ... 


*कावड़ भरना = गिल्ली डंडा में हारने वाला जीतने वाले को अपनी पीठ पर बैठा कर वापस खेल के स्थान पर लाता है उसे कावड़ भरना कहते हैं।