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बुधवार, 28 अगस्त 2019

राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता


प्रेमचन्द

राष्ट्रीयता

इसमें तो कोई सदेह नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है, और आदि काल से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है. 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसी आदर्श का परिचायक है. वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार ही तो किया. आज भी राष्ट्रीयता का रोग उन्हीं को लगा हुआ है, जो शिक्षित हैं, इतिहास के जानकार हैं. वे संसार को राष्ट्रों ही के रूप में देख सकते हैं. संसार के संगठन की दूसरी कल्पना उनके मन में आ ही नहीं सकती. जैसे शिक्षा से और कितनी ही अस्वाभाविकताएँ हमने अपने अन्दर भर ली हैं, उसी तरह से इस रोग को भी पाल लिया है. लेकिन प्रश्न यह है कि उससे मुक्ति कैसे हो? कुछ लोगों का ख्याल है कि राष्ट्रीयता ही अन्तर्राष्ट्रीयता की सीढ़ी है. इसी के सहारे हम उस पद तक पहुंच सकते हैं, लेकिन जैसा कृष्णमूर्ति ने काशी में अपने एक भाषण में कहा है, यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई कहे कि आरोग्यता प्राप्त करने के लिए बीमार होना आवश्यक है. 

तो फिर यह प्रश्न रह जाता है कि हमारी अन्तर्राष्ट्रीय भावना कैसे जागे? समाज का संगठन आदि काल से आर्थिक भित्ति पर होता आ रहा है. जब मनुष्य गुफाओं में रहता था, उस समय भी उसे जीविका के लिए छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बनानी पड़ती थीं. उनमें आपस में लड़ाइयाँ भी होती रहती थीं. तब से आज तक आर्थिक नीति ही संसार का संचालन करती चली आ रही है, और इस प्रश्न की ओर से आंखे बन्द करके समाज का कोई दूसरा संगठन नहीं हो सकता. यह जो प्राणी-प्राणी में भेद है, फूट है, वैमनस्य है, यह जो राष्ट्रों में परस्पर तनातनी हो रही है, इसका कारण अर्थ के सिवा और क्या है? अर्थ के प्रश्न को हल कर देना ही राष्ट्रीयता के किले को ध्वंस कर सकता है.

वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार करके एक दूसरे ही मार्ग से इस लक्ष्य पर पहुंचने की चेष्टा की. उसने समझा, समाज के मनोभाव को बदल देने से ही यह प्रश्न आप ही आप हल हो जायेगा लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. उसने कारण का निश्चय किये बिना ही कार्य का निर्णय कर लिया, जिसका परिणाम असफलता के सिवा और क्या हो सकता था? हजरत ईसा, महात्मा बुद्ध आदि सभी धर्म प्रवर्तकों ने मानसिक और आध्यात्मिक संस्कार से समाज का संगठन बदलना चाहा. हम यह नहीं कहते किउनका रास्ता गलत था. न ही; वही रास्ता ठीक था, लेकिन उसकी असफलता का मुख्य कारण यही था कि उसने अर्थ को नगण्य समझा. अन्तर्राष्ट्रीयता, या एकात्मवाद या समता तीनों मूलतः एक ही हैं. उनकी प्राप्ति के दो मार्ग हैं, एक आध्यात्मिक, दूसरा भौतिक. आध्यात्मिक मार्ग की परीक्षा हमने खूब कर ली है. कई हजार बरसों में हम यही परीक्षा करते चले आ रहे हैं, वह श्रेष्ठतम मार्ग था. उसने समाज के लिए ऊँचे से ऊँचे आदर्श की कल्पना की और उसे प्राप्त करने के लिए ऊँचे से ऊँचे सिद्धांत की सृष्टि की थी. उसने मनुष्य की स्वेच्छा पर विश्वास किया, लेकिन फल इसके सिवा और कुछ न हुआ कि धर्मोपजीवियों की एक बहुत बड़ी संख्य पृथ्वी का भार हो गयी. समाज जहां था वहीं खड़ा रह गया, नहीं और पीछे हट गया. संसार में अनेक मतों और धर्मों और करोड़ों धर्मोपदेशकों के रहते हुए भी जितना वैमनस्य और हिंसा-भाव है, उतना शायद पहले कभी न था. आज दो भाई एक साथ नहीं रह सकते. यहां तक कि स्त्री-पुरुष में संग्राम चल रहा है. पुराने ज्ञानियों ने सारे झगड़ों की जिम्मेदारी जर, जमीन, जन' रखी थी. आज उसके लिए केवल एक ही शब्द काफी है – संपत्ति.

जब तक सम्पत्ति मानव-समाज के संगठन का आधार है, संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता. राष्ट्रों, राष्ट्रों की, भाई-भाई की, स्त्री-पुरुष की लड़ाई का कारण यही सम्पत्ति है. संसार में जितना अन्याय और अनाचार है, जितना द्वेष और मालिन्य है, जितनी मूर्खता और अज्ञानता है, उसका मूल रहस्य यही विष की गांठ है. जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता. मजदूरों के काम का समय घटाइये, बेकारों को गुजारा दीजिये, जमींदारों और पूंजीपतियों के अधिकारों को घटाइये, मजदूरों और किसानों के स्वत्वों को बढ़ाइये, सिक्के का मूल्य घटाइये - इस तरह के चाहे जितने सुधार आप करें, लेकिन यह जीर्ण दीवार इस टीप-टाप से ही नहीं रह सकती. इसे गिराकर नये सिरे से  उठाना होगा.

संसार आदि काल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है. जिस पर वह प्रसन्न हो जाय, उसके भाग्य खुल जाते हैं, उसकी सारी बुराइयां माफ कर दी जाती हैं, लेकिन संसार का जितना नुकसान लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया. यह देवी नहीं, डायन है.

सम्पत्ति ने मनुष्य को अपना क्रीतदास बना लिया है. उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक बात केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है. मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस संपत्ति का क्या होगा. हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं, सम्पत्ति के लिए गेरुए वस्त्र धारण करते हैं, सम्पत्ति के लिए घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भांति-भांति के वैज्ञानिक हिंसा-यन्त्र क्यों बनाते हैं? वेश्याए क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है. जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगा, जब तक संपत्ति व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी.

कुछ लोग समाज के इस आदर्श को वर्गवाद, या 'क्लास वार' कह कर उसका अपने मन में भीषण रूप खड़ा कर लिया करते हैं. जिनके पास धन है, जो लक्ष्मी पुत्र हैं, जो बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिक हैं, वे इसे हौआ समझकर, आँखे बन्द करके, गला फाड़कर चिल्ला पड़ते हैं. लेकिन शांत मन से देखा जाय, तो असंपत्तिवाद की शरण में आकर उन्हें भी वह शांति और विश्राम प्राप्त होगा, जिसके लिए वे सन्तों और संन्यासियों की सेवा किया करते हैं, और फिर भी वह उनके हाथ नहीं आती. अगर वे अपने पिछले कारनामों को याद करें तो उन्हें मालूम हो कि सम्पत्ति जमा करने के लिए उन्होंने अपनी आत्मा का, अपने सम्मान का, अपने सिद्धान्त का खून किया. बेशक उनके पास करोड़ों की विभूति है, पर क्या उन्हें शान्ति मिल रही है? क्या वे अपने ही भाइयों से, अपनी ही स्त्री से सशंक नहीं रहते? क्या वे अपनी छाया से चौंक नहीं पड़ते, यह करोड़ों का ढेर उनके किस काम आता है? वे कुम्भकर्ण का पेट लेकर भी उसे अन्दर नहीं भर सकते. ऐन्द्रिक भोग की भी सीमा है. इसके सिवा उनके अहंकार को यह संतोष हो कि उनके पास एक करोड़ जमा है, और तो उन्हें कोई सुख नहीं है. क्या ऐसे समाज में रहना उनके लिए असह्य होगा, जहां उनका कोई शत्रु न होगा, जहाँ उन्हें किसी के सामने नाक रगड़ने की जरूरत न होगी. जहाँ छल-कपट के व्यवहार से मुक्ति होगी, जहां उनके कुटुम्ब वाले उनके मरने की राह न देखते होंगे, जहां वे विष के भय के बगैर भोजन कर सकेंगे? क्या यह अवस्था उनके लिए असह्य होगी? क्या वे उस विश्वास, प्रेम और सहयोग के संसार से इतना घबराते हैं, जहाँ वे निर्द्वन्द्व और निश्चित समष्टि में मिलकर जीवन व्यतीत करेंगे ? बेशक उनके पास बड़े-बड़े महल और नौकर-चाकर और हाथी-घोड़े न होंगे, लेकिन यह चिन्ता, संदेह और संघर्ष भी तो न होगा.

कुछ लोगों को संदेह होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के बिना मनुष्य में प्रेरक शक्ति कहां से आयेगी. फिर विद्या, कला और विज्ञान की उन्नति कैसे होगी? क्या गोसाई तुलसीदास ने रामायण इसलिए लिखा था कि उस पर उन्हें रायल्टी मिलेगी? आज भी हम हजारों आदमियों को देखते हैं जो की उपदेशक हैं, कवि हैं, शिक्षक हैं, केवल इसलिए कि इससे उन्हें मानसिक संतोष मिलताहै. अभी हम व्यक्ति की परिस्थिति से अपने को अलग नहीं कर सकते, इसीलिए ऐसी शकाएं हमारे मन में उठती हैं, समष्टि कल्पना के उदय होते ही यह स्वार्थ चेतना स्वयं नष्ट हो जायेगी.

कुछ लोगों को भय होता है कि तब तक बहुत परिश्रम करना पड़ेगा. हम कहते हैं कि आज ऐसा कौन-सा राजा-धनी है जो आधी रात तक बैठा सिर नहीं खपाता. यहां उन विलासियों की बात नहीं है, जो बाप-दादों की कमाई उड़ा रहे हैं. वे तो पतन की ओर जा रहे हैं. जो आदमी सफल होना चाहता है, चाहे वह किसी काम में हो, उसे परिश्रम करना पड़ेगा. अभी वह अपने और अपने कुटुम्ब के लिए परिश्रम करता है, क्या तब उसे समष्टि के लिए परिश्रम करने में कष्ट होगा?

(२७ नवम्बर १९३३) 

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

लेखक-पाठक के बीच की दूरी पाटने के लिए लेखकों को स्वयं सामूहिक प्रयास करने होंगे

उपन्यासकार अशोक जामनानी के साथ एक विचारोत्तेजक संगोष्ठी 


कुछ दिन पहले अचानक मुझे महेन्द्र 'नेह' ने बताया कि युवा उपन्यासकार श्री अशोक जमनानी केन्द्रीय साहित्य अकादमी की लेखक यात्रा योजना के अंतर्गत 17 फरवरी को कोटा आ रहे हैं और "विकल्प" अखिल भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मोर्चा की कोटा इकाई को उन के साथ "लेखक और पाठक के बीच दूरी को कौन पाटेगा" विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन करना है। उन्हों ने यह भी बताया कि उस दिन वे खुद और शकूर "अनवर" कोटा में नहीं होंगे। संगोष्ठी को आयोजित करने की दायित्व मुझे वहन करना है। यह सूचना मिलने के अगले दिन ही मुझे चार दिनों के लिए बाहर जाना था और 11 फरवरी को लौटना था। महेन्द्र ने मुझे आश्वासन दिया कि गोष्ठी के लिए आरंभिक तैयारी वे कर लेंगे और मुझे केवल एक दिन पहले उस काम में जुटना है। मैं 11 फरवरी रात को कोटा पहुंचा और यहाँ आते ही अपनी वकालत में व्यस्त हो गया। 15 फरवरी की शाम मुझे अचानक उक्त दायित्व का स्मरण हुआ तो मैं ने महेन्द्र 'नेह' को फोन किया। तो पता लगा वे मोर्चा के अखिल भारतीय सम्मेलन में जाने के लिए ट्रेन में बैठ चुके हैं और मोर्चा के अ.भा. सचिव होने के कारण उस की तैयारियों की व्यस्तता के कारण संगोष्ठी की तैयारी भी नहीं कर सके हैं, सब कुछ मुझे ही करना है।
अतिथि का स्वागत
मैं अपने व्यक्तिगत कारणों से विगत तीन-चार वर्षों से इस तरह के कार्यक्रम आयोजनों के दायित्व से दूर ही था। अब अचानक यह दायित्व आ गया जिसे निभाना था। खैर! मैं ने विकल्प के सक्रिय साथियों में से तथा अपने मित्रों से टेलीफोन से संपर्क किया। गोष्ठी के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ साथियों के सहयोग से कराईं। मुझे आशा थी कि इस आयोजन में लगो पर्याप्त संख्या में जुट जाएंगे। समय की कमी के कारण पहली गलती तो यह हुई कि गोष्ठी की सूचना किसी स्थानीय अखबार में प्रकाशित कराने की बात तब स्मरण हुई जब 17 फरवरी का अखबार लोगों के हाथों में पहुँच गया। जिस का सीधा नतीजा यह हुआ कि संगोष्ठी में उपस्थिति अपेक्षित से कम रही। संतोष की बात यह रही कि संगोष्ठी के विषय में रुचि रखने वाले लेखक और विद्वान पर्याप्त संख्या में उपस्थित थे। करीब ढाई घंटे चली यह संगोष्ठी बहुत उपयोगी रही। विषय पर विस्तार से चर्चा हुई और जो प्रश्न संगोष्ठी में रखा गया था उस पर एक सामान्य निष्कर्ष पर पहुँचा जा सका।  
अशोक जमनानी
संगोष्ठी में अतिथि उपन्यासकार अशोक जमनानी ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि आज के लेखक अपने साहित्य के स्थान पर स्वयं को स्थापित करने में लगे हैं, जिस के कारण लेखक और पाठक के बीच दूरी बढ़ी है। प्रकाशकों की रुचि भी लेखक को ब्राण्ड बनाने में है। पुस्तकों के सस्ते संस्करण प्रकाशित कर के साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने में उस की रुचि नहीं है क्यों कि उसे इस तरह हजारों पुस्तकें बेच कर जो लाभ होता है उस से अधिक लाभ वह ब्रांड लेखक की पुस्तकों को सरकारी और सांस्थानिक पुस्तकालयों को महंगी पुस्तकें बेच कर कमा लेता है। इन पुस्तकालयों में पहुँच कर पुस्तकें पाठक की पहुँच से दूर हो जाती हैं। लेखक को ब्रांड बनाने में अकादमियों और पुरस्कारों का योगदान है वे कृतियों को नहीं लेखक को पुरस्कार सम्मान देते हैं। पाठक लेखक को तो जानता है पर यह नहीं जानता कि वह क्या लिख रहा है और कौन सा साहित्य महत्वपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी साहित्य पर जोर नहीं दिया जाता लेकिन लेखक के जीवन पर जोर दिया जाता है। 
ओम नागर
विषय प्रवर्तन के उपरान्त सब से पहले तकनीकी विश्वविद्यालय के व्याख्याता रंजन माहेश्वरी बोले। वे लेखक नहीं हैं लेकिन फिर भी संगीत और लेखन की दुनिया से जुड़े हैं। उन्हों ने कहा कि लेखक को आज इंटरनेट से जुड़ना होगा। जो इंटरनेट पर लिख रहे हैं वे केवल देश के ही नहीं दुनिया भर के पाठकों से सीधे जुड़ रहे हैं। जब अमिताभ जैसे लोकप्रिय अभिनेता अपने दर्शकों से सीधे जुड़ने के लिए ब्लाग लिख सकते हैं तो लेखक ऐसा क्यों नहीं कर सकते? कथाकार राधेश्याम मेहर ने कहा कि अकादमियाँ निष्पक्ष नहीं हैं। वे अपने हिसाब से काम करती हैं। व्यंगकार हितेष व्यास ने कहा कि लेखक प्रकाशक के पास जाता है और प्रकाशक अपने लाभ के लिए उस का उपयोग करता है। अकादमियाँ भी साहित्यकारों और पाठकों के बीच पुल बनाने का काम नहीं करती। केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने जमनानी जी को कोटा भेजा लेकिन वे कोटा के साहित्यकारों से परिचित नहीं हैं यह अकादमी की कमजोरी है। स्पिक मैके के अशोक जैन ने कहा कि जैसे संगीत के क्षेत्र में लोग अच्छे कंठ-संगीत के स्थान पर किसी नयी नृत्यांगना का नृत्य देखना पसंद करते हैं वैसी ही स्थिति साहित्य में है, इसे तोड़ना होगा। कवि ओम नागर ने कहा कि आज साहित्य की शर्तें बाजार तय कर रहा है वह लेखक और पाठक को दूर कर रहा है। उसे इस से कोई सरोकार नहीं कि लेखक और पाठक के बीच कोई रिश्ता स्थापित हो।  
संचालक शू्न्य आकांक्षी
स अवसर पर जब मुझे बोलने के लिेए कहा गया तो मैं ने अपनी बात कही कि तुलसीदास के पहले भी रामकथा थी लेकिन तुलसीदास ने जनता तक उसे पहुँचाने के लिए सघर्ष किया और जान की बाजी तक लगा दी। प्रेमचंद ने जनता के लिखा तो उसे प्रकाशित करने के लिए खुद प्रेस चलाई और पत्रिकाएं निकाली। उन में जनता के हित का साहित्य पाठक तक पहुँचाने की जिद थी। जिद आज भी लेखक को अपने अंदर पैदा करनी होगी तभी लेखक पाठक से अपनी दूरी कम कर सकेगा। कवि अम्बिकादत्त ने कहा कि रचनाकार को पाठक तक पहुँचने का माध्यम भी तलाशना पड़ेगा। उसे अपने साहित्य की भाषा, विधा और शैली को पाठक के अनुरूप बनाना होगा। गोष्ठी के अध्यक्ष अपने विचार रखें इस के पूर्व अशोक जमनानी ने पुनः कहा कि गोष्ठी के अंत में उन्हों ने कहा कि इस दूरी को पाटने के लिए लेखक को अपना व्यक्तित्व हिमालय की तरह उच्च और साहित्य को उस से निकलने वाली गंगा जैसा बनाना होगा जो धरती पर आ कर उसे सींचती है और जन-जन तक पहुँच जाती है। प्रकाशकों ने समाज के साथ रिश्ता कायम करने वाली रचनाओं और रचनाकारों को पहले हाशिए पर डाला और फिर परिदृश्य से गायब कर दिया।  संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि निर्मल पाण्डेय ने कहा कि साहित्यकार जर्रे से बनता है लेकिन फिर उसे विस्मृत कर अपना नाम करने में जुट जाता है यह एक दुर्भावना है। लेखक को इस दुर्भावना से मुक्त हो कर पाठकों की संवेदना से जुड़ना होगा। संगोष्ठी का संचालन करते हुए कवि शून्याकांक्षी ने कहा कि कोटा में सर्वाधिक लेखन होने के बावजूद भी यहाँ अच्छे प्रकाशक का अभाव है। वर्ष में बीसियों पुस्तकें कोटा के लेखकों की प्रकाशित होती हैं और वे बाहर के प्रकाशक तलाशते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए लेखकों को अपने सामूहिक प्रकाशन का प्रयास करना चाहिए। एक सामूहिक प्रकाशन ही लेखकों को पाठकों से बेहतर जोड़ सकता है। गोष्ठी के अंत में विकल्प की और से वरिष्ठ ग़ज़लकार अखिलेश अंजुम ने सभी प्रतिभागियों का आभार व्यक्त किया।
मंच पर अध्यक्ष निर्मल पाण्डेय, अशोक जमनानी, दूसरे अध्यक्ष अम्बिकादत्त और संचालक शून्य आकांक्षी
संगोष्ठी के उपरान्त मेरी जमनानी जी से बात हुई तो वे संतुष्ट थे।  उनका कहना था कि संगोष्ठी में भले ही उपस्थिति कम रही हो पर यह एक उपयोगी और विचारोत्तेजक संगोष्ठी रही।  यह विचार सामने आया कि लेखक को पाठक से दूरी कम करने के लिए स्वयं सभी स्तरों पर प्रयास करने होंगे।  न केवल उस की संवेदना से जुड़ना होगा, उस के लिए अपने लेखक को उस तक संप्रेषणीय बनाना होगा। वे मेरे इस विचार से भी सहमत थे कि प्रकाशन को सस्ता बनाना होगा और इस के लिए अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन अत्यन्त जरूरी है।  अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन की आवश्यकता क्यों पड़ रही है यह भी एक प्रासंगिक विषय है इस पर भी विचार किया जाना चाहिए और इस पर भी इसे कैसे स्थापित किया जा सकता है।

शनिवार, 29 अगस्त 2009

पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक जिम्मेदार नहीं होंगे; पाठक अपनी रिस्क पर पढ़ें

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत कीमती है, जनतंत्र में  आ कर मिली है। कुछ प्रतिबंध भी हैं, लेकिन उन की परवाह कौन करता है? मैं रेलवे की बुक स्टॉल पर सब से ऊपर रखा अखबार देखता हूँ। शीर्षकों में वर्तनी की तीन अशुद्धियाँ दूर से ही दिख गई हैं। मैं अखबार खरीद लेता हूँ। देखना चाहता हूँ अखबारों की दुनिया में आखिर नया कौन आ गया है? मैं एक दो और किताबें खरीदता हूँ, लेकिन देख लेता हूँ कि उन में तो वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हैं।

पहले तो कोई किताब खरीदना ही नहीं चाहता। हर कोई मांग कर या मार कर पढ़ना चाहता है। एक दो घंटे में पढ़ी जा सकने वाली किताब क्यों खरीदी जाए? पढ़ने के बाद रद्दी जो हो जाती है। फिर खरीदे तो कम से कम ऐसी तो खरीदे जिस में वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हों। हमने वर्तनी की अशुद्धियों वाली किताबें कम ही देखी हैं। कभी किताब छापने की जल्दी में अशुद्धियाँ रह जाती हैं। उन का शुद्धिपत्र अक्सर किताब में विषय सूची के पहले ही नत्थी होता है। मूर्ख  हैं वे, जो अशुद्धियों की सूची इस तरह किताब के पहले-दूसरे पन्ने पर चिपका कर खुद घोषणा कर देते हैं कि किताब में अशुद्धियाँ हैं। वे तो किताब पढ़ने वाले को पढ़ने पर पता लग ही जाती हैं। हर पाठक को लेखक की संवेदना का ख्याल रखता है। वह लेखक-प्रकाशक को कभी नहीं बताता कि उस की किताब में  गलतियाँ हैं, बस इतना करता है कि उस लेखक प्रकाशक की किताब खरीदना बंद कर देता है। भला पैसे दे कर गलतियों वाली किताब खरीदने में कोई आनंद है?
ब्लागिंग मजेदार चीज है। इसे पढ़ने के लिए खरीदना नहीं पड़ता। बस यूँ ही नेट पर लोग पढ़ लेते हैं। यहाँ कुछ भी लिख दो, वह जमा रहता है, तब भी, जब कोई पढ़े और तब भी जब कोई न पढ़े। यहाँ अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। ब्लागर वर्तनी की अशुद्धियों से बे-चिंत हो कर टाइप कर सकता है, और प्रकाशित भी कर सकता है। हिन्दी में तो यह काम और भी आसान है। राइटर में वर्तनी की अशुद्धियाँ बताने वाला टूल ही गायब है। हिन्दी को उस की जरूरत भी नहीं है। लोग उस के बिना भी अपनी संवेदनाओं को ट्रांसफर कर सकते हैं।  वे लोग निरे मूर्ख हैं जो इस तरह वर्तनी की अशुद्धियाँ जाँचने के टूल बनाते हैं। 
प्राइमरी की छोटी क्लास में वर्तनी की एक अशुद्धि पर डाँट मिलती थी। पाँचवी तक पहुँचते-पहुँचते वह मास्टर जी के पैमाने से हथेली पर बनी लकीर में बदल गई। मिडिल में पहुँचते पहुँचते हम वर्तनी की अशुद्धियों को देखने से वंचित हो गए। वे किसी किताब में मिलती ही नहीं थी। आठवीं के विद्यार्थी छुपा कर कुछ छोटी-छोटी किताबें लाते थे और दूसरों को पढ़ाते थे। सड़क पर बैठा बुकसेलर उन किताबों को के जम कर पैसे वसूल करता था। उन में चड्डी के नीचे के अंगों और उन के व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाओं  की अभिव्यक्ति वर्तनी की भरपूर त्रुटियों के साथ होती थी। छात्र अक्सर वर्तनी की अशुद्धियाँ पढ़ने के लिए ही उन किताबों को पढ़ते थे और मध्यान्ह नाश्ते के लिए घर से मिले पैसे आठवीं के उन विद्यार्थियों को दे देते थे। 
हर पाठक को लेखक की संवेदनाओं का पूरा खयाल रखना चाहिए। चाहे वह किताब में हो, अखबार में हो, इंटरनेट के किसी पेज पर हो या फिर ब्लागिंग में हो। कोई ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिस से कोई मासूम लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचे, पाठक की संवेदना को पहुँचे तो पहुँचे। अब कोई भूला भटका अगर टिप्पणी से लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचा भी दे तो उसे जरूर एक आलेख लिख कर पाठकों को आगाह कर देना चाहिए कि आइंदा वे टिप्पणी कर के ऐसा न करें। पाठक की संवेदना का क्या ?  उसे चोट पहुँच जाए तो इस की जिम्मेदारी लेखक-ब्लागर की थोड़े ही है। पाठक खुद चल कर आता है, पढ़ने के लिए। उसे किसने पढ़ने का न्यौता दिया?  अब वह आता है तो अपनी रिस्क पर आता है, पढ़ने से उस की संवेदनाओं को पहुँचने की जिम्मेदारी लेखक-प्रकाशक की थोड़े ही है। 
अब हम वकील हैं, सलाहकारी आदत है। कोई उस के लिए पैसे ले कर आता है तो तत्पर हो कर करते हैं। पर जब कोई नहीं आता है तो आदतन बाँटते रहते हैं। इसलिए इस आलेख के उपसंहार में भी एक सलाह दिए देते हैं, वह भी बिलकुल मुफ्त। इस से आप की संवेदनाओं को चोट पहुँचे तो इस की कोई गारंटी नहीं है। आप चाहें तो इस आलेख को यहीं पढ़ना छोड़ सकते हैं। 
(सलाह के पहले एक छोटा सा ब्रेक, जो सलाह न चाहें वे अपना ब्राउजर बंद कर सकते हैं) 
सलाह ............
जो हर लेखक को अपनी किताब के पहले पन्ने पर और हर ब्लागर को ब्लाग के शीर्षक के ठीक ऊपर यह  चेतावनी टांक देनी चाहिए....
"इस ब्लाग में वर्तनी की अशुद्धियों से किसी पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी"
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