@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: युग्मित
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मंगलवार, 1 सितंबर 2009

ग़ज़लों का जादू, पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की युग्मित ग़ज़ल

आप ने पिछली दो पोस्टों में पुरुषोत्तम की जादू वाली ग़ज़लें पढ़ीं। कुछ पाठकों ने इस जादू को भेदने का प्रयत्न भी किया। घोस्टबस्टर जी जादू के बहुत नजदीक तक भी पहुँचे। लेकिन उसे भेद नहीं पाए।


'यक़ीन' साहब को कल शाम ही आना था। वे आए भी। लेकिन मैं घर से बाहर था, मुलाकात नहीं हो सकी। आज सुबह उन से फोन पर बात हुई। जो कुछ उन ने बताया वह इतना सरल था कि मुझे भी विश्वास नहीं हुआ। उन की बात सुन मैं ने कुछ चित्र ढूंढ निकाले हैं, एक तो ऊपर ही है,  जिसे आप देख चुके हैं। आप इन दोनों चेहरों को यक़ीन साहब की दो ग़ज़लें मान लें। अब जरा इन नीचे वाले चित्रों को भी देखिए.....
इस पैरेलल बार को देखें दो भाग समानांतर स्थिति में मिल कर एक यंत्र बना रहे हैं।

और यहाँ.... इस अँधेरे में ये दो चमकती आकृतियाँ क्या कर रही हैं?


 ये दो पृथक-पृथक सजीव रचनाएँ हैं जो आपस में मिल कर एक नई सजीव रचना बनाने में जुटी हैं।  

और यहाँ.........


 
यहाँ तो ये दोनों मिल कर एक हो चुकी हैं

ठीक इसी तरह यक़ीन साहब की दोनों ग़ज़लें भी समानान्तर दशा में मिल कर एक नई ग़ज़ल बन जाती हैं। मजे की बात यह कि उन दोनों ग़ज़लों का आंनंद भिन्न था और इस 'युग्मित ग़जल' का आनंद बिलकुल भिन्न है। आप भी इस का आनंद लीजिए.....

कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
 - पुरुषोत्तम 'यक़ीन' -


तू इक राहत अफ़्ज़ा मौसम, नयनों का इक ख़्वाब हसीं तू
तू बादल तू सबा तू शबनम, तू आकाश है और ज़मीं तू

छल करते हैं अपना बन कर, वो अपने मतलब के संगी
मेरे साथी मेरे हमदम, उन अपनों सा ग़ैर नहीं तू

तेरे मुख पर तेज है सच का, दाग़ नहीं तेरे चहरे पर
तेरे आगे सूरज मद्धम, कैसे कह दूँ माहजबीं तू

दर्दे-जुदाई और तन्हाई, तू यह कैसे सह लेता है
क्यूँ न निकल जाता है ये दम, आह! कहीं मैं और कहीं तू

कोई नहीं है तुझ बिन मेरा, तेरे दिल की बात न जानूँ
कह तो दे इतना कम से कम, मेरे दिल में सिर्फ़ मकीं तू

खुल कर बात करें आपस में, कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म, आ कर मेरे बैठ क़रीं तू

झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए, कौन 'यक़ीन' करेगा सच पर
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम, चुप ही रहना दोस्त हसीं तू

आप चाहें तो इसे इस तरह भी देख सकते हैं, यहाँ दोनों ग़ज़लें अपना अलग अस्तित्व, अलग असर और अलग अर्थ रखती हैं -

तू इक राहत अफ़्ज़ा मौसम,                 नयनों का इक ख़्वाब हसीं तू
तू बादल तू सबा तू शबनम,                  तू आकाश है और ज़मीं तू

छल करते हैं अपना बन कर,                वो अपने मतलब के संगी
मेरे साथी मेरे हमदम,                           उन अपनों सा ग़ैर नहीं तू

तेरे मुख पर तेज है सच का,                   दाग़ नहीं तेरे चहरे पर
तेरे आगे सूरज मद्धम,                            कैसे कह दूँ माहजबीं तू

दर्दे-जुदाई और तन्हाई,                          तू यह कैसे सह लेता है
क्यूँ न निकल जाता है ये दम,                आह! कहीं मैं और कहीं तू

कोई नहीं है तुझ बिन मेरा,                    तेरे दिल की बात न जानूँ
कह तो दे इतना कम से कम,                 मेरे दिल में सिर्फ़ मकीं तू

खुल कर बात करें आपस में,                  कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म,                 आ कर मेरे बैठ क़रीं तू

झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए,                  कौन 'यक़ीन' करेगा सच पर
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम,                  चुप ही रहना दोस्त हसीं तू


यक़ीन साहब ने इसे 'युग्मित ग़ज़ल' नाम दिया है। मैं ने उन्हें कोई उर्दू शब्द तलाश करने को कहा है। आप चाहें तो आप भी इस कारस्तानी को कोई खूबसूरत सा नाम दे सकते हैं।