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गुरुवार, 28 मई 2009

महालक्ष्मी ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती? : जनतन्तर कथा (36)

 हे, पाठक!
अगली रात्रि का भी जब दूसरा प्रहर समाप्त होने को था, तब सनत ने संपर्क किया। दृश्यवार्ता में संपर्क बन जाने पर सूत जी बोले- सनत! मैं कल तुम्हें लक्ष्मी के भेद बताने वाला था। अब उसे ध्यान से श्रवण करो! लक्ष्मी सदैव श्रम से ही उत्पन्न होती है।  जल, वायु आदि पदार्थ प्रकृति में बिना मूल्य प्राप्त होते हैं।  लेकिन किसी गांव में जल का कोई स्रोत न हो,  और जल पर्वत की तलहटी के सोते से भर कर लाना हो तो ग्राम में लाया गया जल मूल्यवान हो जाता है।  उस में यह मूल्य उत्पन्न होता है जल को सोते से गांव तक लाने में किए गए श्रम से। केवल मनुष्य ही है जो प्राकृतिक वस्तुओं के स्थान व रूप बदल कर उन का उपयोग करता है।  इस तरह प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं को मानवोपयोगी बनाने के लिए श्रम आवश्यक है।  इसी श्रम के योग से वस्तुओं में मूल्य उत्पन्न होता है।  एक हीरा भूमि के गह्यर में दबा होता है।  मनुष्य अपने श्रम से उसे पृथ्वी की गहराई से बाहर निकालता है और उसे तराश कर सुंदर व बहुमूल्य बना देता है। उस हीरे में जो भी मूल्य उत्पन्न होता है वह उसे गहराई से निकालने और तराशने में किए गए श्रम से उत्पन्न होता है।  प्राकृतिक वस्तुओं में श्रम के योग से उत्पन्न हुआ यही मूल्य लक्ष्मी है।  इसे हम प्रारंभिक लक्ष्मी कह सकते हैं।  यह आवश्यक नहीं कि श्रम सदैव ही मूल्य उत्पन्न करे।  यदि किया गया श्रम मानवोपयोगी नहीं तो वह कोई मूल्य उत्पन्न नहीं करेगा।  जैसे कोई कुएँ से बाल्टी भर पानी खींच कर बाहर निकाले और उस बाल्टी भर पानी को  फिर से कुएँ में डाल दे तो वह श्रम तो करेगा किन्तु उस से कोई मूल्य उत्पन्न नहीं होगा. लेकिन जब भी मूल्य उत्पन्न होता है तो वह श्रम से ही होता है। बिना श्रम के लक्ष्मी कभी उत्पन्न नहीं होती।
एक हीरा खान
हे, पाठक! 
सूत जी के इतना कहने पर सनत ने प्रश्न किया -लेकिन ताऊ कहते थे  "भाई आप श्रम से कितनी बडी लक्ष्मी पैदा कर सकते हैं? वो तो बिना ताऊपने के नहीं आ सकती, यह गारंटी है।  भले धीरु भाई की हिस्ट्री देख लिजिये. जो कि महान ताऊ थे।"
 सूत जी बोले -ताऊ ने बिलकुल सही कहा।  मनुष्य यदि अकेला श्रम करे तो कितना मूल्य उत्पन्न कर सकता है? बहुत थोड़ा न? जो उस के स्वयं के लिए पर्याप्त हो, या उस से कुछ अधिक।  मनुष्य के आरंभिक जीवन में ऐसा ही था।  उस का सारा दिन फल संग्रहण और शिकार में ही व्यतीत हो जाता था। दिन भर पूरा परिवार श्रम कर के भी केवल अपने जीवनयापन जितना ही जुटा पाता था।  लेकिन औजारों के आविष्कार और पशुपालन से यह संभव हुआ कि वह कुछ अधिक मूल्य उत्पन्न कर सके और कुछ खाद्य व अन्य जीवनोपयोगी सामग्री एकत्र कर सके।  जब उस ने औजार परिष्कृत कर लिए खेती का आविष्कार हुआ तो वह और अधिक मूल्य उत्पन्न उत्पन्न करने लगा।  वह इतना उत्पादन करने लगा कि उपयोग के उपरांत संग्रह योग्य उपयोगी पदार्थ बचने लगे।   यही वह लक्ष्मी थी जिसे मनुष्य ने सहेजा।
औद्योगिक क्रांति
वर्तमान युग की बात करें तो आज मनुष्य स्वयं अपने परिवार के उपयोग के लिए वस्तु उत्पादन के लिए ही श्रम करता ही नहीं है।  वस्तु उत्पादन आज इतना विकसित और जटिल हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपने लिए एक विशिष्ठ दक्षता का कार्य तलाशता है और उसी पर श्रम करता है।  मुद्रा के आविष्कार ने इस तरह के श्रम को आसान किया है।  अब मनुष्य को किसी भी किए गए विशिष्ठ और दक्ष कार्य के बदले मुद्रा प्राप्त हो जाती है और वह उस से अपने लिए जीवनो पयोगी वस्तुएँ क्रय कर के प्राप्त कर सकता है।   इस तरह का विनिमय बहुत पहले आरंभ हो गया था।  लेकिन आज वह चरम पर है।  इसी विनिमय ने बाजार को उत्पन्न किया है।  इसी तरह धीरे धीरे श्रम सामुहिक होता गया।  भाप, तेल और विद्युत शक्ति का उपयोग उत्पादन में आरंभ होने ने ही यूरोप की औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया।  जिस ने स्वाधीनता और जनतंत्र के मूल्य दुनिया में स्थापित किए।
सामुहिक-श्रम
 हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -अब काम समूहों में होते हैं।  हर कोई दूसरे के लिए श्रम करता है और श्रम का मूल्य मुद्रा में प्राप्त करता है।  श्रम  कर के वह जितना मूल्य उत्पन्न करता है।  वह उसे पूरा नहीं मिलता।  अपितु उसे मिलने वाला मूल्य इस बात से निश्चित होता है कि बाजार में विशिष्ठ प्रकार का श्रम करने वाले कितने लोग हैं? और उस तरह का श्रम करा कर मूल्य उत्पादित कराने वाले कितने?  दुनिया में एक श्रम बाजार बन गया है। दुनिया में उत्पादित उपयोगी वस्तुओं और सेवाओं का भी बाजार है।  बाजार में श्रंम  और उत्पादित वस्तुएं मुद्रा में मूल्य दे कर क्रय-विक्रय की जा सकती हैं।  किसी भी श्रम बाजार में सदैव श्रम विक्रय करने वालों की अधिकता बनी रहती है।  प्रारंभ में किसी नए प्रकार की विशिष्ठता के श्रम करने वालों की कमी रहती है तो श्रम का मूल्य बहुत अधिक प्राप्त होता है और वास्तव में उन के द्वारा उत्पादित किए जाने वाले मूल्य से भी अधिक हो सकता है।  किन्तु यह अत्यन्त अस्थाई होता है।   कुछ ही काल  में उस विशिष्ठ  श्रम को करने वाले अनेक लोग हो जाते हैं और बाजार में श्रम का मूल्य उत्पादित मूल्य से बहुत कम हो जाता है।  इस श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य से उस श्रम के बदले चुकाया गया मूल्य बहुत कम होता है।  इन दोनों के अंतर का अतिरिक्त मूल्य सदैव ही उत्पादन के साधनों के स्वामियों के पास रहता है।  यही अतिरिक्त मूल्य एकत्र हो कर जब पुनः उत्पादन के उद्यम में लगाया जाता है तो वह पूंजी हो जाता है।  संग्रहीत अतिरिक्त मूल्य को ही टिप्पणीकार ज्ञानदत्त जी पाण्डे ने महालक्ष्मी कहा है और ताऊ का कथन भी उचित और यथार्थ कि ताऊपने के बिना यह महालक्ष्मी पैदा नहीं  हो सकती।  धनसंचय कर उत्पादन के उद्यम का स्वामी बनना और एक ऐसा तंत्र खड़ा करना जो लगातार अतिरिक्त मूल्य का सृजन करता रहे ताऊपना नहीं तो क्या है?  ऐसे ताऊओं को ही आज पूँजीपति कहा जाता है।  ताऊ लोग जहाँ अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य प्राप्त कर अपने लिए और अधिक महालक्ष्मी पर आधिपत्य चाहते हैं,  वहीं श्रमजीवी जनता  इस महालक्ष्मी से अपने भाग का आशीर्वाद चाहती है।  ताऊ लोग अपनी महालक्ष्मी के बल पर एक-केन-प्रकरेण अपने प्रतिनिधियों को महा पंचायत में पहुँचाते हैं।  श्रमजीवियों के पास महालक्ष्मी की शक्ति नहीं,  लेकिन लक्ष्मी को उत्पन्न करने की शक्ति है।  वे अपनी शक्ति को सामूहिक रूप से संगठित करें तो ताऊ लोगों पर भारी पड़ सकते हैं।  श्रमजीवी जनता के पास संगठन ही एक मात्र मार्ग है जिस के बल पर वे अपने अधिक से अधिक प्रतिनिधि महापंचायत में पहुँचा सकते हैं।  नया तथ्य यह है कि हाल के चुनावों के बाद महापंचायत के 543 में से 300 चुने हुए सदस्य करोड़पति हैं।
इतना कह कर सूत जी ने सनत से पूछा- अब तो तुम्हें ज्ञानदत्त जी और ताऊ जी की टिप्पणियों में सार दिखाई दे रहा होगा? 
महाताऊ (पूंजीपति)
हे, पाठक!
इस पर सनत बोला - गुरूवर? प्रश्न का उत्तर तो मिल गया।  लेकिन आप की बात से मन में बहुत से नवीन प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं।  लगता है मुझे बहुत कुछ पढ़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस तरह के व्यवसाय में हूँ उस में तो यह बहुत आवश्यक भी है।  सोचता हूँ एक बार मरकस बाबा की "पूँजी" को आद्योपांत पढ़ डालूँ और उस के बाद ही आप से कुछ बात करूँ।
सूत जी बोले -अवश्य पढ़ो।  वह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो डेढ़ सौ वर्ष पुरानी होने पर भी बहुत से संशयों का निवारण करती है।  उस का अध्ययन कर तुम भविष्य के लिए नए मार्ग के बारे में कुछ विचार कर सकोगे। रात्रि बहुत हो चुकी है।  मैं अब विश्राम करूंगा, और हाँ ये लम्पी दृश्यवार्ता से मुझे अधिक देर नहीं सुहाती कष्ट होने लगता है।  तुम कभी सप्ताह भर का अवकाश ले कर नैमिषारण्य आ जाओ।  यहाँ खूब बतियाएँगे, वाद-विवाद-संवाद करेंगे और एक दूसरे से सीखेंगे।  मुझे भी तुम जैसे प्रश्न करने वाले नौजवानों से ही तो ऊर्जा मिलती है।  लगातार पढ़ने-सीखने की आवश्यकता बनी रहती है।  सत्य कहता हूँ जिस दिन पढ़ना-सीखना बंद हो जाएगा उस दिन मेरा सूत मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

सूत जी ने माना, वे सठिया गए हैं : इस युग का प्रधान वैषम्य : जनतन्तर कथा (35)

हे, पाठक! 
सूत जी को नैमिषारण्य पहुँचे तीन दिन व्यतीत हो गए।  चौथे दिन वे कार्यालय पहुँच कर पीछे से दो माह में हुई गतिविधियों के बारे में जानकारी ले रहे थे कि चल दूरभाष ने आरती सुना दी।  दूसरी ओर सनत था  -गुरूवर प्रणाम!  मैं भी सकुशल इधर लखनऊ पहुँच गया हूँ।  यहाँ आ कर मैं ने दो माह के हिन्दी चिट्ठे देखे। पता लगा एक हिन्दी चिट्ठे अनवरत पर जनतन्तर कथा के नाम से श्रंखला लिखी जा रही थी और उस में आप और हम दोनों पात्र के रूप में उपस्थित हैं।  हमारे बीच का अधिकांश वार्तालाप भी ज्यों का त्यों वहाँ लिखा गया है।  राजधानी में अन्तिम  रात्रि को आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों और मरकस बाबा के बारे में जो कुछ बताया था उसे तो वहाँ जैसे का तैसा लिख दिया गया।  पर आज ब्लाग पर एक टिप्पणी अच्छी नहीं लगी।
सूत जी - क्यों अच्छी नहीं लगी? ऐसा उस में क्या है?
सनत --गुरूवर! मैं यह आप को बता नहीं सकता। आप को खुद ही 'अनवरत' चिट्ठे पर जा कर पढ़ना चाहिए। हाँ, एक और चिट्ठे  'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' में उस टिप्पणी की प्रतिक्रिया में आलेख लिखा है जिस में मरकस बाबा का शक्तिशाली समर्थन किया गया था।  पर अनवरत के चिट्ठाकार ने उस आलेख की भाषा पर आपत्ति की और उस चिट्ठे ने इस आपत्ति को संवाद के उपरांत स्वीकार कर लिया।
सूत जी - कुछ बताओगे भी या पहेलियाँ ही बुझाओगे?
सनत -गुरूवर! आप स्वयं पढ़िए, मैं ने दोनों चिट्ठों के पते आप के गूगल चिट्ठी पते पर भेज दिए हैं। मैं रात्रि दूसरे प्रहर आप से अन्तर्जाल पर दृश्य-वार्ता में भेंट करता हूँ।  प्रणाम!

हे, पाठक!
सूत जी ने दिन में अनवरत चिट्ठे पर पूरी जनतन्तर कथा पढ़ डाली। उस पर आई टिप्पणियाँ पढ़ीं और मन ही  मन मुस्कुराते रहे।  तदनन्तर उन्हों ने दूसरे चिट्ठे का आलेख भी पढ़ा।  उन की मुस्कुराहट में वृद्धि हो गई।  साँयकाल अपनी कुटिया में वापस लौटे और रात्रि के दूसरे प्रहर की प्रतीक्षा करने लगे।  रात्रि का दूसरा प्रहर समाप्त होते होते सनत से संपर्क हुआ।  वह देरी के लिए क्षमायाचना कर रहा था। पर सूत जी ने देरी को गंभीरता से नहीं लिया।  वे तो सनत से बात करना चाहते थे। दोनों ने वार्ता आरंभ की....
सनत -गुरूवर! आप ने पढ़ा सब कुछ?
सूत जी -  हाँ, पढा। जनतंतर कथा रोचक है।  इस में तो भारतवर्ष के गणतंत्र बनने से ले कर आज तक की चुनाव कथा संक्षेप में बहुत रोचक रीति से लिखी है।
सनत -आप ने अंतिम आलेख और उस पर टिप्पणियाँ पढ़ीं?
सूत जी -  हाँ सब कुछ पढ़ा है, और वह   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर'  भी पढ़ लिया है।
सनत- तो आप को बुरा नहीं लगा?
सूत जी -  बिलकुल बुरा नहीं लगा,  अपितु बहुत आनंद आया।  बहुत दिनों बाद इस तरह का विमर्श पढ़ने को मिला।
सनत -मैं तो आप के प्रति टिप्पणी पढ़ कर असहज हो गया था बिलकुल   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' की तरह।
सूत जी -  मुझे तो आनंद ही आया।  वह क्या ..... ज्ञानदत्त पाण्डे ... यही नाम है न टिप्पणी करने वाले सज्जन का?
सनत - हाँ, यही नाम है।
सूत जी - सनत! ज्ञानदत्त पाण्डे जी सही कहते हैं, मैं यथार्थ में सठियाने लगा हूँ।
सनत -गुरूवर! आप इसे स्वीकारते हैं?
सूत जी -हाँ भाई, स्वीकारता हूँ। यथार्थ को स्वीकारने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? सठियाया व्यक्ति जब कोई बात करता है तो उस से अनायास ही कुछ बातें छूट जाती हैं।  संभवतः यह आयु का ही दोष है।  जब व्यक्ति को लगता है कि उस के पास अब बहुत कम समय रह गया है तो वह अपनी बात को संक्षिप्त बनाने में चूक जाता है। संभवतः इसे ही सठियाना कहते हैं। मेरी भी तो आयु बहुत हो चली है। मुझे ही पता नहीं कितने वर्ष का हो चला हूँ। संभवतः उन्नीस-बीस शतक तो हो लिए होंगे।  उस दिन त्रुटि मुझ से ही हुई थी।  तुम भी उसे भाँप नहीं सके।

हे, पाठक! 
सूत जी की इस स्वीकारोक्ति से सनत स्तम्भित रह गया। उस ने सूत जी से पूछा -कैसी त्रुटि? गुरूवर!  मुझे भी तो बताइए। मैं भी जान सकूं कि क्या है जो आप ने नहीं बताया और मैं भी नहीं भाँप सका?
सूत जी - उस दिन मैं ने तुम्हें बताया था कि ......
..... जब भाप के इंजन के आविष्कार ने उत्पादन में  क्रान्ति ला दी, तो लक्ष्मी उत्पादन के साधनों में जा बसी है।  उत्पादन के ये साधन ही पूंजी हैं।  जिस का उन पर अधिकार है उसी का दुनिया  में शासन है।  उत्पादन के वितरण के लिए बाजार चाहिए।  इस बाजार का बंटवारा दो-दो बार इस दुनिया को युद्ध की ज्वाला में झोंका चुका है।  लक्ष्मी सर्वदा श्रमं से ही उत्पन्न होती है इसी लिए उस का एक नाम श्रमोत्पन्नाः है।  तब उस पर श्रमजीवियों का अधिकार होना चाहिए पर वह उन के पास नहीं है। 
सनत -हाँ, बताया था गुरूवर! पर इस में क्या त्रुटि है, सब तो स्पष्ट है।
सूत जी -नहीं सब स्पष्ट नहीं है।  यहाँ लक्ष्मी के दो स्वरूप हैं। उन के भेद बताना मुझ से छूट गया था।  इस भेद को सब से पहले मरकस बाबा ने ही स्पष्ट किया। वही तो उन का सब से महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। और देखो, मैं उस रात तुम्हें वही बताना विस्मृत कर गया।
सनत - गुरूवर! कैसे दो स्वरुप और उन के भेद, कौन सा महत्वपूर्ण सिद्धान्त?
जी सूत -वही संक्षेप में तुम्हें फिर बता रहा हूँ, जिस से तुम्हारे मन में कोई संशय नहीं रह जाए।
सूत जी आगे कुछ बता पाते उस के पहले ही विद्युत प्रवाह चला गया।  सनत का घर अंधेरे में डूब गया।  कम्प्यूटर भी कुछ ही देर का मेहमान था। सूत जी को सनत का चेहरा दिखाई देना बंद हो गया।  दृश्यवार्ता असंभव हो चली।
सनत बोला- गुरूवर! विद्युत प्रवाह बंद हो गया।  कथा यहीं छूटेगी।
कोई बात नहीं कल फिर बात करेंगे।
हे, पाठक!
कथा का यह अध्याय भी चिट्ठे की सीमा के बाहर जा रहा है।  हम भी आगे की कथा कल ही वर्णन करेंगे।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

कल की कथा में पढ़िए....
महालक्ष्मी  ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती?