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रविवार, 22 मार्च 2020

महापुरुष


एक तरह के लोग सोचते हैं-
कोई है जिसने दुनिया बनाई
फिर दुनिया चलाई
वही है जो दुनिया चला रहा है
वे उसे ईश्वर कहते हैं।

दूसरी तरह के लोग सोचते हैं-
ऐसा कोई नहीं जो दुनिया बनाए और उसे चलाए
दुनिया तो खुद-ब-खुद है
हमेशा से और हमेशा के लिए
वह चलती भी खुद-ब-खुद है
उसके अपने नियम हैं जिनसे वह चलती है
ये लोग जो सोचते हैं
उसे कहते भी हैं और जीते भी हैं।

कुछ तीसरी तरह के लोग हैं
जो सोचते हैं कि कभी कोई ईश्वर रहा होगा
जिसने दुनिया बनाई और चलाई
पर वो कभी का मर चुका है
जीवन ने कीड़े से लेकर वानर तक
और वानर से लेकर पुरुष तक की यात्रा
खुद ही तय की है

वानर के लिए कीड़े का कोई महत्व नहीं
पुरुष के लिए वानर का कोई महत्व नहीं
पुरुष को महापुरुष बनना है
महापुरुष के लिए पुरुषों का कोई महत्व नहीं
वे एक दिन महापुरुष बनेंगे
वे महापुरुष बन रहे हैं
वे महापुरुष बन चुके हैं।

बन चुके महापुरुष सोचते हैं कि मेरे सामने
किसी पुरुष का कोई महत्व नहीं
वे सोचते हैं और अपने इस विचार को जीते भी हैं
लेकिन वे इसे कहते नहीं

वे लोगों को कहते हैं-
ईश्वर कभी नहीं मरता
वह कभी नहीं दिखता
वह कहीँ नहीं आता जाता

मैं उसका पुत्र हूँ
मैं उसका दूत हूँ
मैं उसका अवतार हूँ
तुम मेरे सामने झुको
तुम्हें मेरे सामने झुकना होगा
तुम्हें मेरे सामने झुका दिया जाएगा

ये जो तीसरा व्यक्ति है
खुद-ब-खुद बना हुआ महापुरुष
दुनिया की सबसे खतरनाक चीज है।
कोटा, 22.03.2020
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शनिवार, 5 जून 2010

मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें उस के विचारों को संचालित करती हैं।

विगत आलेख जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा पर आई टिप्पणियों ने कुछ प्रश्न खड़े किए हैं, और मैं महसूस करता हूँ कि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर बात किया जाना चाहिए।  लेकिन पहले बात उन टिप्पणियों की जो विभिन्न ब्लागों पर की गईँ। लेकिन अपने सोच के आधार वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखती हैं और बहुत मूल्यवान हैं। मैं 'समय' के ब्लाग "समय के साये में" की बात कर रहा हूँ। उन्हों ने दूसरे ब्लागों पर की गई कतिपय टिप्पणियों को अपने ब्लाग पर एकत्र कर एक नई पोस्ट लिखी है  - "टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ ख़ुराक - ४" आप चाहें तो वहाँ जा कर इन्हें पढ़ सकते हैं। वास्तव में दिमाग को कुछ न कुछ खुराक अवश्य ही प्राप्त होगी। 

डॉ. अरविंद मिश्र की टिप्पणी ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए, उन की टिप्पणी इस प्रकार है-

 Arvind Mishra,  4 June 2010 6:11 AM
मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं ,दूसरे मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है (मैंने कुछ कुछ समय स्टाईल के शब्द लिए हैं आशा है आप तो समझ ही लेगें )
न की टिप्पणी की पहली पंक्ति ही इस प्रकार है -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
स का अली भाई ने उत्तर देने का प्रयास करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा -    किसी भी 'वाद' ( दर्शन ) बोले तो? धर्म वाद पे तो चल ही रहे हैं हजारों सालों से :)
ली भाई ने वाद को पहले दर्शन और फिर धर्म से जोड़ा है। अब यह तो डॉ. अरविंद जी ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं कि उन का वाद शब्द का तात्पर्य क्या था। लेकिन वाद शब्द का जिस तरह व्यापक उपयोग देखने को मिलता है उस का सीधा संबंध दर्शन और धर्म से है। दर्शन इस जगत और उस के व्यवहार को समझने का तार्किक और श्रंखलाबद्ध दृष्टिकोण है। हम उस के माध्यम से जगत को समझते हैं कि वह कैसे चलता है। उस की अब तक की ज्ञात यात्रा क्या रही है? क्या नियम और शक्तियाँ हैं जो उस की यात्रा को संचालित करती हैं? इन सब के आधार पर जगत के बारे में व्यक्ति की समझ विकसित होती है जो उस की जीवन शैली को प्रभावित करती है। धर्म का आधार निश्चित रूप से एक दर्शन है जो एक विशिष्ठ जीवन शैली उत्पन्न करता है। लेकिन व्यक्ति की अपनी स्वयं की समझ विकसित हो उस के पहले ही, ठीक उस के जन्म के साथ ही उस का संबंध एक जीवन शैली से स्थापित होने लगता है जो उस के परिवेश की जीवन शैली है। उसी जीवन शैली से वह अपनी प्रारंभिक समझ विकसित करता है। लेकिन एक अवस्था ऐसी भी उत्पन्न होती है जब वह अनेक दर्शनों के संपर्क में आता है, जो उसे यह विचारने को विवश करते हैं कि वह अपने परिवेश प्राप्त समझ में परिवर्तन लाए और उसे विकसित करे। यह विकसित होने वाली जीवन शैली पुनः व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करती है। इस तरह जीवन शैली और दर्शन के मध्य एक द्वंदात्मक संबंध मौजूद है।
डॉ. अरविंद मिश्र ने आगे पुनः कहा है - -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं। 
पहले उन्हों ने कहा था -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
मेरे विचार में वे दोनों स्थान पर एक ही बात कह रहे हैं। उन्हों ने यहाँ दो प्रकार की नीतियों का उल्लेख उल्लेख किया है, और जिस तरह किया है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि नीतियों के और भी प्रकार हो सकते हैं। उन के बारे में तो डॉ. अरविंद जी ही बता पाएँगे। लेकिन यहाँ जिस वाद शब्द का प्रयोग किया है उस का अर्थ कोई भी विचारधारा हो सकती है जिसे व्यक्तियों के समूहों ने अपनाया हो। वह धर्म भी हो सकता है और राजनैतिक विचारधारा भी। वस्तुतः धार्मिक और राजनैतिक विचारधाराओं में भेद करना कठिन काम है। ये दोनों एक दूसरे से नालबद्ध दिखाई पड़ते हैं। जहाँ तक राजनैतिक सोच और वाद का प्रश्न है ये दोनों एक ही हैं। उन पर आधारित अभियान या उन नीतियों पर चलने में कोई भेद नहीं है। भटकने और लंबे समय तक नहीं चल पाने में भी कोई अंतर दिखाई नहीं देता। ये दोनों वाक्य इस बात को उद्घाटित करते हैं कि समय के साथ बदलती दुनिया में पुरानी विचारधारा अनुपयुक्त सिद्ध होती है और व्यक्ति और उन के समूह उस में परिवर्तन या विकास चाहते हैं।
डॉ. अरविंद जी ने यहाँ प्रायोजित शब्द का भी प्रयोग किया है। इस का अर्थ है कि कुछ व्यक्ति या उन के समूह अपने हित के लिए ऐसे अभियानों को प्रायोजित करते हैं। राजनैतिक शास्त्र का कोई भी विद्यार्थी इस बात को बहुत आसानी से समझता है कि सारी की सारी राजनीति वस्तुतः व्यक्तियों के समूहों के प्रायोजित अभियान ही हैं। प्रश्न सिर्फ उन समूहों के वर्गीकरण का है। कुछ लोग इन समूहों का वर्गीकरण धर्म, भाषा, लिंग आदि के आधार पर करते हैं, हालांकि हमारा संविधान यह कहता है कि इन आधारों पर राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन यह संविधान की लिखित बात है, पर्दे के पीछे और पर्दे पर यह सब खूब दिखाई देता है। एक दर्शन, विचारधारा और राजनीति वह भी है जो इन समूहों को आर्थिक वर्गों का नाम देती है। समाज में अनेक आर्थिक वर्ग हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति है, अंतराष्ट्रीय और विदेशी पूंजीपति है। जमींदार वर्ग है, औद्योगिक श्रमिक वर्ग है, एक सफेदपोश कार्मिकों का वर्ग है। किसानों में पूंजीवादी किसान है, साधारण किसान है और कृषि मजदूर हैं।  भिन्न भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पृथक-पृथक राजनीति भी है। सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई राजनैतिक विचारधारा या दल नहीं हो सकता। क्यों कि विभिन्न वर्गों के स्वार्थ एक दूसरे के विपरीत हैं। स्वयं को सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला या सब के हितों की रक्षा करने का दावा करने वाले दल वस्तुतः मिथ्या भाषण करते हैं, और जनता के साथ धोखा करते हैं। वे वास्तव में किसी एक वर्ग या वर्गों के एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। ऐसा नहीं है कि जनता उन के झूठ को नहीं पहचानती है। इस झूठ का उद्घाटन भी व्यक्तियों को अपने विचार में परिवर्तन करने के लिए प्रभावित करता है।
डॉ. अरविंद जी ने आगे जो बात कही है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं - मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है। 
हाँ, उन से सहमत न होने का कोई कारण नहीं है। किसी भी मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें ही वे मूल चीज हैं जो उस के विचारों और उन पर आधारित अभियानों को संचालित करती हैं। लेकिन अभियान एक व्यक्ति का तो नहीं होता। वास्तव में एक आर्थिक वर्ग के सदस्यों की ये मूलभूत जैवीय जरूरतें एक जैसी होती हैं जो उन में विचारों की समानता उत्पन्न करती हैं, एक दर्शन और एक राजनैतिक अभियान को जन्म देती हैं। इस तरह हम पाते हैं कि समूची राजनीति का आधार वर्ग  हैं, उस का चरित्र वर्गीय है। जब तक समाज में शासक वर्ग ही अल्पसंख्यक शोषक वर्गों से निर्मित है वह शोषण को बरकरार रखने के लिए उस का औचित्य सिद्ध करने वाली विचारधारा को प्रायोजित करता है। उस का यह छद्म अधिक दिनों तक नहीं टिकता और उसे अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए विचारधारा के विभिन्न रूप उत्पन्न करने होते हैं।
डॉ अरविंद जी की टिप्पणी पर बात इतनी लंबी हो गई है कि शेष मित्रों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर बात फिर कभी।

गुरुवार, 20 मई 2010

श्रीमद्भगवद्गीता के साथ मेरे अनुभव

डॉ. अरविंद मिश्र ने आज समूचे ब्लागजगत से पूछ डाला -आपने कभी गीता पढी है ? अब मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर देता? हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता की यह स्थिति है कि उस की कम से कम पाँच-दस प्रतियाँ हर वर्ष घर में अवश्य आ जाती हैं, और उन्हें फिर आगे भेंट कर दिया जाता है। एक सेवानिवृत्त मेजर साहब हैं वे हर किसी को गीता का हिन्दी और अंग्रेजी संस्करण वितरित करते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले विवाहपूर्व यौन संबंधों की बात सर्वोच्च न्यायालय पहुँची और न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सुरक्षित रखा तो उस दिन न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं से पूछे गए कुछ प्रश्नों में राधा-कृष्ण के संबंध का उल्लेख हुआ तो देश में बवाल उठ खड़ा हुआ। मेजर साहब ने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या मैं न्यायाधीशों को पत्र लिख सकता हूँ। मैं ने कहा आप की इच्छा है तो अवश्य लिख दीजिए। उन्हों ने पीठ के सभी न्यायाधीशों को पत्र लिखा और साथ में श्रीमद्भगवद्गीता की अंग्रेजी प्रतियाँ उन्हें डाक से प्रेषित कर दीं। गीता हमारे देश में बहुश्रुत और बहुवितरित है। उस का पाठ भी लाखों लोग नियमित रूप से करते हैं। 

मेरे परिवार में परंपरा से किसी की मृत्यु के तीसरे दिन से नवें दिन तक गरुड़ पुराण के पाठ की परंपरा रही है जो मेरी दृष्टि में विभत्स रस का विश्व का श्रेष्ठतम ग्रंथ है। यह अठारह मूल पुराणों के अतिरिक्त पुराणों में सम्मिलित है। जिस परिवार में मृत्यु हुई हो उस समय परिजनों की विह्वल अवस्था में गरुड़ पुराण के सार्वजनिक वाचन की परंपरा कब आरंभ हो गई? कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन मुझे यह कोमल और आहत भावनाओं का शोषण अधिक लगा। नतीजा यह हुआ कि जब परिवार में मेरा बस चलने लगा मैं ने इस पाठ को बंद करवा दिया जो अब सदैव के लिए बंद हो गया है। तब यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि तब परिवार में एकत्र सभी व्यक्ति कम से कम एक बार तो एकत्र हों और कुछ चिंतन करें। माँ ने सुझाव दिया कि इस के स्थान पर गीता का पाठ किया जाए। कुल अठारह अध्याय हैं जिन्हें तीसरे दिन से ग्यारहवें दिन तक नित्य दो अध्याय का वाचन किया जाए। सब को यह सुझाव पसंद आया। अब एक नई समस्या आ खड़ी हुई कि गीता वाचन कौन करे, अर्थ कौन समझाए? माँ ने यह दायित्व मुझे सौंपा और मुझे निभाना पड़ा। हमारे परिवार की देखा-देखी अनेक परिवारों में गरुड़ पुराण के स्थान पर अब गीता पाठ आरंभ हो गया है।
क और घटना जो गीता के संदर्भ में घटी उसे यहाँ रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं गीता को अपने तरीके से समझने का प्रयत्न कर रहा था। अलग अलग भाष्यों को पढ़ते समय मुझे लगा कि जो भी कोई गीता का भाष्य करता है उस के लिए गीता माध्यम भर है वास्तव में वह अपनी बात, अपना दर्शन गीता की सीढ़ी पर चढ़ कर कह देता है। तब वास्तव में गीता का अर्थ क्या होना चाहिए। यह तभी जाना जा सकता है जब उसे बिना किसी भाष्य के समझने का प्रयत्न किया जाए। गीता की अनेक प्रतियाँ पास में उपलब्ध होते हुए भी एक नयी प्रति खरीदी जिस में केवल श्लोक और उन का अन्वय उपलब्ध था। मैं गीता समझने का प्रयत्न करने लगा। हर समय गीता मेरे साथ रहती, जब भी फुरसत होती मैं गीता खोल लेता और एक ही श्लोक में घंटों खो जाता। 
न्हीं दिनों एक मित्र ने गाढ़ी कमाई से एक जमीन रावतभाटा में खरीदी और कर्ज ले कर उस पर अपना वर्कशॉप बनाने लगे। कुछ पचड़ा हुआ और जमीन बेचने वाले के पुत्र ने दीवानी मुकदमा कर निर्माण पर रोक लगवा दी। मित्र उलझ गए। मुकदमा लड़ने को पैसा भी न था। वे मेरे पास आए। मैं ने उन का मुकदमा लड़ना स्वीकार कर लिया। जिस दिन तारीख होती मुझे रावतभाटा जाना होता। मेहनताना मिलने का प्रश्न नहीं था। बस आने-जाने का खर्च मिलता। उन की पेशी पर जाना था। एक दिन मैं भोजन कर घर से निकला झोले में मुकदमे की पत्रावली और गीता रख ली। बस स्टॉप पर जा कर पान खाया। पान वाले को पैसा देने के लिए पर्स निकाला तो उस में केवल पंद्रह रुपए थे। घऱ वापस जा कर रुपया लाता तो बस निकल जाती। मैं ने तीन रुपए पान के चुकाए। बस का किराया 12 रुपया सुरक्षित रख लिया। बस आने में देर थी, रावतभाटा जाने वाली एक जीप आ गई।  किराया 12 रुपया तय कर लिया। सवारियाँ पूरी होने पर जीप को चलना था। मैं जीप में बैठा गीता निकाल कर पिछले पढ़े हुए के आगे पढ़ने लगा और एक श्लोक को समझने में अटक गया। मेरे पास ही एक महिला शिक्षक आ बैठी। जीप चली तो उस शिक्षिका ने पूछा -भाई साहब! आप गीता पढ़ रहे हैं? मैं ने कहा हाँ। मुझे तीसरे अध्याय का एक श्लोक समझ नहीं आया, क्या आप समझा सकते हैं?
मैं कुछ समझा नहीं, मुझे लगा कि शायद वह मेरी परीक्षा लेना चाहती है। फिर दूसरे ही क्षण सोचा शायद वह सच में ही जानना चाह रही हो। मैं ने मौज में कहा -अभी समझा देते हैं। फिर मैं ने इंगित श्लोक निकाला, उसे पढा़ और समझाने लगा। तब बस कोटा के इंजिनियरिंग कॉलेज के सामने से गुजर रही थी। उस एक श्लोक पर चर्चा करते-करते मैं ने क्या क्या कहा मुझे खुद को स्मरण नहीं। लेकिन जब चर्चा पूर्ण हुई तो बाडौली आ चुका था। अर्थात रावतभाटा केवल तीन किलोमीटर रह गया था। हम पैंतीस किलोमीटर की यात्रा तय कर चुके थे और मुझे इस का बिलकुल ध्यान नहीं था। शिक्षिका स्वयं भी विज्ञ थी। उस ने बीच में एक ही प्रश्न पूछा -आप मार्क्सिस्ट हैं? मैं ने उत्तर दिया -शायद! उस की प्रतिक्रिया थी -तभी आप इतना अच्छे से समझा सके हैं। 

रावतभाटा के निकट बाडौली स्थित प्राचीन शिव मंदिर
 रावतभाटा बाजार में पाँच-छह सवारियाँ उतरी तो हर सवारी मुझे बड़ी श्रद्धा के साथ नमस्कार कर के गई, मुझे लगा कि यदि मैं ने पेंट-शर्ट के स्थान पर धोती-कुर्ता पहना होता तो शायद चरण स्पर्श भी होने लगता। जीप ऊपर टाउनशिप में पहुँची जहाँ सभी सवारियाँ उतर गईं। वहाँ भी उन्हों ने बाजार में उतरने वाली सवारियों की भांति ही श्रद्धा का प्रदर्शन किया। मैं जीप से उतरा और जीप वाले को किराया बारह रुपए दिया। जीप वाले ने पूछा -आप वापस कितनी देर में जाएंगे? मैं ने कहा -भाई, मैं तो यहाँ मुकदमे में पैरवी करने आया हूँ, अदालत में काम निपट गया तो घंटे भर में भी वापस जा सकता हूँ और शाम भी हो सकती है। -तो साहब! मैं भी एक घंटे बाद वापस कोटा जाऊंगा। आप एक घंटे में वापस आ जाएँ तो मेरी ही जीप में चलिएगा, वापसी का किराया नहीं लूंगा।  मैं एक घंटे में तो वापस न लौट सका। पर मुझे आम लोगों में गीता के प्रति जो श्रद्धा है उस का अवश्य अनुभव हो गया। इतना आत्मविश्वास जाग्रत हुआ कि मैं सोचने लगा कि यदि मैं दो जोड़ा कपड़े और एक गीता की प्रति ले कर निकल पड़ूँ, तो इस श्रद्धा की गाड़ी पर सवार हो कर बिना किसी धन के पूरी दुनिया की यात्रा कर के वापस लौट सकता हूँ।

मंगलवार, 11 मई 2010

तथ्यों की पर्याप्तता और सत्यता


पाठकों और मित्रों !

नवरत की यह 500वीं प्रस्तुति है।  जब मैं ने अपना पहला ब्लाग 'तीसरा खंबा' आरंभ किया था तो मैं ने  सोचा भी न था कि मैं कोई दूसरा ब्लाग जल्दी ही आरंभ कर दूंगा। लेकिन यहाँ बातचीत का जो माहौल था,  उस ने मुझे प्रेरित किया कि मैं कानूनी विषयों के अतिरिक्त भी कुछ लिखूँ। तीसरा खंबा में उसे लिखा जाना उपयुक्त नहीं लगा। और अनवरत का जन्म हुआ।
जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ होता है। वह पैदा होते ही कुछ सीखना आरंभ करता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। बोलना आरंभ करने के साथ ही वह कहना सीखता है। जो कुछ वह देखता है, अनुभव करता है, पढ़ता है उसे विद्यमान परिस्थितियों पर लागू करता है। तब उस के पास कुछ कहने को होता है, वही सब कुछ वह किसी न किसी माध्यम से अभिव्यक्त करता है। मैं ने भी अनवरत पर जो कुछ लिखा है वह सब यह अभिव्यक्ति है। अपनी स्वयं की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त मैं ने जो  कुछ मुझे पसंद था वह भी प्रस्तुत किया। इस में कुछ मित्रों की रचनाएँ थीं। लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी है जो मैं ने पढ़ा है और जिस ने मुझे प्रभावित किया है, जिस से मैं ने कुछ सीखा है।  मैं चाहता था कि वह सब भी हिन्दी अंतर्जाल के पाठकों को उपलब्ध हो। मैं ने इस के लिए भी प्रयत्न किया और लगातार करता रहूँगा। मुझे जिन चीजों ने प्रभावित किया है उन में से एक कार्ल मार्क्स का दर्शन भी है। जिसे आजकल मार्क्सवाद, या मार्क्सवाद-लेनिनवाद, या फिर माओवाद के माध्यम से जाना-पहचाना जाता है वह मार्क्स के दर्शन का विस्तार है। उसे जाँचने , परखने और उस पर बहस की पर्याप्त गुंजाइश है।  
मेरी नजर में मार्क्स का दर्शन, जिसे द्वंदात्मक भौतिकवाद भी कहा जाता है, जैसा कि मैं ने उसे जाना है और समझा है, वस्तुतः वह पद्यति है जिस से दुनिया चल रही है। मुझे वह इस भौतिक जगत के तमाम व्यवहारों को समझने का आज तक का सब से  बेहतर तरीका प्रतीत होता है। इस पद्यति का निर्माण स्वयं मार्क्स ने नहीं किया। यह तो वह पद्यति है जिस से दुनिया चल रही है, मार्क्स ने तो उसे सिर्फ खोज निकाला है। मार्क्स की खोज निकाली हुई इस पद्यति को किसी भी रुप में आज तक कोई चुनौती मिली हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है। सारे विवाद उस पद्यति का प्रयोग करते हुए दुनिया के बदलने के उपायों के संबंध में है। जो भी  व्यक्ति या व्यक्ति समूह इस पद्यति को समझ लेता है वह अपने अनुसार दुनिया के व्यवहारों का मूल्यांकन करता है और दुनिया की परिवर्तन में अपने तरीके से योगदान करना चाहता है। यहीं वे त्रुटियाँ होती हैं जो आलोचना का कारण बनती हैं। दुनिया के व्यवहारों का मूल्यांकन करते समय  उन के बारे में जुटाए गए तथ्यों की पर्याप्तता और सत्यता सदैव ही निष्कर्षों को प्रभावित करती है। यदि तथ्य पर्याप्त और सही नहीं हैं तो निष्कर्ष कभी भी सही नहीं हो सकते। आम तौर पर जो गलती होती है वह यहीं होती है। भारत में तो इस से आगे एक और बात है कि जो इस दर्शन को समझ कर यह सोच लेता है कि केवल दर्शन से दुनिया को बदला जा सकता है, वह तथ्यों को जुटाने पर कम से कम श्रम करता है और दर्शन की मदद से उन की कल्पना करने लगता है। फिर इन कल्पित तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालता है। अब आप अनुमान कर सकते हैं कि कल्पित तथ्यों के आधार पर काम करने वाला क्या कर सकता है?
सलन किसी वैज्ञानिक प्रयोग में आप को किसी खास तापमान पर कोई अभिक्रिया आरंभ करनी है, उस से कम या अधिक तापमान पर नहीं। आप तापमान का अनुमान कर अभिक्रिया आरंभ कर देते हैं और तापमान कम  या अधिक हुआ तो दोनों ही स्थितियों में इच्छित परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सकते। आप अपने सारे प्रयोग और उस के लिए जुटाई गई सामग्री को नष्ट कर देते हैं और साथ ही समय भी नष्ट करते हैं। 
खैर! वह सब विवाद का विषय है। आप समाज या दुनिया को बदलने न भी जाएँ तब भी मार्क्स का यह दर्शन किसी भी व्यक्ति के जीवन में रोजमर्रा के व्यवहारों को समझने और निर्णय लेने में सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होता है। क्यों कि इस के कारण आप सही सही तरह से यह जान पाते हैं कि आप के आस पास जो घटनाएँ और परिघटनाएँ घट रही हैं वे क्यों घट रही हैं और वे आगे क्या रूप ले सकती हैं। आप को अपने निर्णय लेने में बहुत सुविधा होती है। हालांकि यहाँ भी परिणाम इसी बात पर निर्भर करते हैं कि आप ने मूल्यांकन के लिए पर्याप्त और सही तथ्यों को जुटाया है अथवा नहीं। 

स समय अनवरत पर मैं एंगेल्स की पुस्तिका "वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका" प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे समाप्त होने में दो सप्ताह लग सकते हैं। इस के साथ ही यहाँ यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य " परंपरा और विद्रोह" का एक एक सर्ग भी प्रस्तुत किया जा रहा है। दोनों ही बहुमूल्य निधियाँ हैं। पूरा हो जाने के उपरांत इन्हें ई-बुक के रूप में अंतर्जाल पर सहेजने की योजना है। जिस से हिन्दी के इच्छुक पाठकों को इस का लाभ मिल सके। इस से निश्चय ही अंतर्जाल पर स्थाई रूप से उपलब्ध हिन्दी सामग्री की वृद्धि में मेरा भी कुछ योगदान हो सकेगा।
मुझे विश्वास है कि आप इस ब्लाग पर आते रहेंगे।

गुरुवार, 18 मार्च 2010

लोगों के अपकारी काम धर्मों को समेट रहे हैं

कुछ दिनों से ब्लाग जगत में बहस चल रही है कि किस किस धर्म में क्या क्या अच्छाइयाँ हैं और किस किस धर्म में क्या क्या बुराइयाँ हैं। हर कोई अपनी बात पर अड़ा हुआ है। दूसरा कोई जब किसी के धर्म की बुराई का उल्लेख करता है तो बुरा अवश्य लगता है। इस बुरा लगने पर प्रतिक्रिया यह होती है कि फिर दूसरे के धर्म की बुराइयाँ खोजी जाती हैं और वे बताई जाती हैं। नतीजा यह है कि हमें धर्मों की सारी खामियाँ पता लग रही हैं। ऐसा लगता है कि सभी धर्म बुराइयों से भरे पड़े हैं। यह लगना भी उन लोगों के कारण है जो खुद धार्मिक हैं।
मैं खुद एक धार्मिक परिवार में पैदा हुआ। कुछ अवसर ऐसा मिला कि मुझे कोई बीस बरस तक मंदिर में भी रहना पड़ा। मुझे स्कूल में संस्कृत शहर के काजी साहब ने पढ़ाई। उन्हों ने खुद संस्कृत स्कूल में मेरे पिताजी से पढ़ी थी। काजी साहब ने कभी यह नहीं कहा कि कोई मुसलमान बने। उन की कोशिश थी कि जो मुसलमान हैं वे इस्लाम की राह पर चलें। क्यों कि अधिकतर जो मुसलमान थे वे इस्लाम की राह पर मुकम्मल तरीके से नहीं चल पाते थे। वे यही कहते थे कि लोगों को अपने अपने धर्म पर मुकम्मल तरीके से चलने की कोशिश करनी चाहिए। सभी धार्मिक लोग यही चाहते हैं कि लोग अपने अपने धर्म की राह पर चलें। 
मेरे 80 वर्षीय ससुर जी जो खुद एक डाक्टर हैं, मधुमेह के रोगी हैं। लेकिन वे नियमित जीवन बिताते है और आज भी अपने क्लिनिक में मरीजों को देखते हैं। कुछ दिनों से पैरों में कुछ परेशानी महसूस कर रहे थे। मैं ने उन्हें कोटा आ कर किसी डाक्टर को दिखाने को कहा। आज सुबह वे आ गए। मैं उन्हें ले कर अस्पताल गया। जिस चिकित्सक को दिखाना था वे सिख थे। जैसे ही हम अस्पताल के प्रतीक्षालय में पहुँचे तो एक सज्जन ने उन्हें नमस्ते किया। वे दाऊदी बोहरा संप्रदाय के मुस्लिम थे। दोनों ने एक दूसरे से कुछ विनोद किया। डाक्टर ने ससुर जी को कुछ टेस्ट कराने को कहा। जब हम मूत्र और रक्त के सेंपल देने पहुँचे तो सैंपल प्राप्त करने वाली नर्स ईसाई थी। उस ने सैंपल लिए और दो घंटे बाद आने को कहा। एक सज्जन ने जो तकनीशियन थे  ससुर जी के पैरों की तंत्रिकाओं की  जाँच की। इन को मैं ने अनेक मजदूर वर्गीय जलसों में देखा है वे एक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं और किसी धर्म को नहीं मानते।  शाम को सारी जाँचों की रिपोर्ट ले कर हम फिर से चिकित्सक के पास गए उस ने कुछ दवाएँ लिखीं और कुछ हिदायतें दीं। इस तरह सभी धर्म वाले लोगों ने एक दूसरे की मदद की। सब ने एक दूसरे के साथ धर्मानुकूल आचरण किया। न किसी ने यह कहा कि उस का धर्म बेहतर है और न ही किसी दूसरे के धर्म में कोई खामी निकाली। 

मुझे लगता है कि वे सभी लोग जो अपने धर्मानुकूल आचरण कर रहे थे। उन से बेहतर थे जो सुबह शाम किसी न किसी धर्म की बेहतरियाँ और बदतरियों की जाँच करते हैं। धर्म निहायत वैयक्तिक मामला है। यह न प्रचार का विषय है और न श्रेष्ठता सिद्ध करने का। जिस को लगेगा कि उसे धर्म में रुचि लेनी चाहिए वह लेगा और उस के अनुसार अपने आचरण को ढालने का प्रयत्न करेगा। अब वह जो कर रहा है वह अपनी समझ से बेहतर कर रहा है। किसी को उसे सीख देने का कोई अधिकार नहीं है। हाँ यदि वह स्वयं खुद जानना चाहता है स्वयं ही सक्षम है कि उसे इस के लिए किस के पास जाना चाहिए। दुनिया में धर्म प्रचार और खंडन  के अलावा करोड़ों उस से बेहतर काम शेष हैं। 
लते चलते एक बात और कि लोगों के उपकारी कामों ने उन के धर्म को दुनिया में फैलाया था। अब लोगों के अपकारी काम उन्हें समेट रहे हैं।

रविवार, 24 जनवरी 2010

बीज ही वृक्ष है।

मेरे एक मित्र हैं, अरविंद भारद्वाज, आज कल राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच में वकालत करते हैं। वे कोटा से हैं और कोई पन्द्रह वर्ष पहले तक कोटा में ही वकालत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व तक वे अपने पिता जी की स्मृति में एक आयोजन प्रतिवर्ष करते थे। एक बार उन्हों ने ऐसे ही अवसर पर एक आयोजन किया और एक संगोष्ठी रखी। इस संगोष्ठी का विषय कुछ अजीब सा था। शायद "भारतीय दर्शनों में ईश्वर" या कुछ इस से मिलता जुलता। कोटा के एक धार्मिक विद्वान पं. बद्रीनारायण शास्त्री को उस पर अपना पर्चा पढ़ना था और उस के उपरांत वक्तव्य देना था। उस के बाद कुछ विद्वानों को उस पर अपने वक्तव्य देने थे।

मैं संगोष्ठी में सही समय पर पहुँच गया। पंडित बद्रीनारायण शास्त्री ने अपना पर्चा पढ़ा और उस के उपरांत वक्तव्य आरंभ कर किया। जब बात भारतीय दर्शनों की थी तो षडदर्शनों को उल्लेख स्वाभाविक था। दुनिया भर के ही नहीं भारतीय विद्वानों का बहुमत सांख्य दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन  मानते हैं। स्वयं बादरायण और शंकराचार्य ने सांख्य की आलोचना उसे नास्तिक दर्शन कहते हुए की है। पं. बद्रीनारायण शास्त्री जी को षडदर्शनों में सब से पहले सांख्य का उल्लेख करना पड़ा, क्यों कि वह भारत का सब से प्राचीन दर्शन है। शास्त्री जी कर्मकांडी ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता में परम श्रद्धा रखने वाले। गीताकार ने कपिल को मुनि कहते हुए कृष्ण के मुख से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। भागवत पुराण ने कपिल को ईश्वर का अवतार कह दिया। कपिल सांख्य के प्रवर्तक भी हैं और गीता का मुख्य आधार भी सांख्य दर्शन है।  संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हों ने धारणा बनाई कि सांख्य दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन नहीं हो सकता, स्वयं ब्रह्म का अवतार कपिल ऐसे दर्शन का प्रतिपादन बिलकुल नहीं सकते? इस धारणा के बनने के उपरांत वे संकट में पड़ गए।
खैर, शास्त्री जी का व्याख्यान केवल इस बात पर केंद्रित हो कर रह गया कि सांख्य एक ईश्वरवादी दर्शन है। अब यह तो रेत में से तेल निचोड़ने जैसा काम था।  शास्त्री जी तर्क पर तर्क देते चले गए कि ईश्वर का अस्तित्व है। उन्हों ने भरी सभा में इतने तर्क दिए कि सभा में बैठे लोगों में से अधिकांश में जो कि  लगभग सभी ईश्वर विश्वासी थे, यह संदेह पैदा हो गया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं? सभा की समाप्ति पर श्रोताओं में यह चर्चा का विषय रहा कि आखिर पं. बद्रीनारायण शास्त्री को यह क्या हुआ जो वे ईश्वर को साबित करने पर तुल पड़े और उन के हर तर्क के बाद लग रहा था कि उन का तर्क खोखला है। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं और लोग जबरन उसे साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं ने यह संस्मरण अनायास ही नहीं आप के सामने सामने रख दिया है। इन दिनों एक लहर सी आई हुई है। जिस में तर्कों के टीले परोस कर यह समझाने की कोशिश की जाती है कि अभी तक विज्ञान भी यह साबित नहीं कर पाया है कि ईश्वर नहीं है, इस लिए मानलेना चाहिए कि ईश्वर है। कल मुझे एक मेल मिला जिस में एक लिंक था। मैं उस लिंक पर गया तो वहाँ बहुत सी सामग्री थी जो ईश्वर के होने के तर्क उपलब्ध करवा रही थी। इधर हिन्दी ब्लाग जगत में भी कुछ ब्लाग यही प्रयत्न कर रहे हैं और रोज एकाधिक पोस्टें देखने को मिल जाती है जिस में ईश्वर या अल्लाह को साबित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस सारी सामग्री का अर्थ एक ही निकलता है कि दुनिया में कोई भी चीज किसी के बनाए नहीं बन सकती। फिर यह जगत बिना किसी के बनाए कैसे बन सकता है, उसे बनाने वाली अवश्य ही कोई शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। इसलिए सब को मान लेना चाहिए कि ईश्वर है।

मैं अक्सर एक प्रश्न से जूझता हूँ कि जब बिना बनाए कोई चीज हो ही नहीं सकती तो फिर ईश्वर को भी किसी ने बनाया होगा? तब यह उत्तर मिलता है कि ईश्वर या खुदा तो स्वयंभू है, खुद-ब-खुद है। वह अजन्मा है, इस लिए मर भी नहीं सकता। वह अनंत है। लेकिन इस तर्क ने मेरे सामने यह समस्या खड़ी कर दी कि यदि हम को अंतिम सिरे पर पहुँच कर यह मानना ही है कि कोई ईश्वर या खुदा या कोई चीज है जिस का खुद-ब-खुद अस्तित्व है तो फिर हमें उस की कल्पना करने की आवश्यकता क्यों है? हम इंद्रियों से और अब उपकरणों के माध्यम से परीक्षित और अनुभव किए जाने वाले इस अनंत जगत को जो कि उर्जा, पदार्थ, आकाश और समय व्यवस्था है उसे ही स्वयंभू और खुद-ब-खुद क्यों न मान लें? अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि असत् का तो कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं और सत के अस्तित्व का कहीं अभाव नहीं। (नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और  खंडित होने पर उस का अंश।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

नए जन्म की तैयारी, रसीदी हिन्दी और दशहरा मेला

इधर दीवाली जैसे-जैसे नजदीक आती है, घरों में भूचाल के हलके-भारी झटके चलते ही रहते हैं। सफाई अभियान सारी चीजों को इधर-उधर करता रहता है। परसों अदालत में था तो घर से फोन मिला कि कबाड़ी आया है, कूलर उसे दे दिया जाए। कुछ समझ नहीं आया, क्या जवाब दिया जाए? फिर  साथियों से सलाह की तो निष्कर्ष निकला कि उस की आत्मा, पंखा और पम्प निकाल कर बाकी की जर्जर देह दे दी जाए। बेटे और उस की माँ ने यही किया। जर्जर देह के सवा-दोसौ रुपए खड़े हो गए, देह भूतों में जा मिली। अब फरवरी के अंत में पंखे और पम्प के लिए नई देह की तलाश शुरू की होगी। उस की भी सलाह मिल चुकी है कि आजकल कूलर के लिए स्टील के शरीर बनने लगे हैं। फरवरी में किसी स्टील-देह में पंखे और पम्प की आत्मा रख दी जाएगी। कूलर का एक  और जन्म हो जाएगा।  पर यह आत्मा अजर-अमर नहीं, हो सकता है दो-चार बरस बाद स्टील देह में नयी आत्मा डालनी पड़ जाए।



बेटी आई है, उसे  कुछ कपड़े खरीदने थे, दशहरे का मेला घूमना था। अपने घर के पास से जिस तरह यातायात निकल रहा था, जाने की हिम्मत न हुई। किसी फिल्मी कलाकार की कला का प्रदर्शन था, भीड़ क्यों न होती? आखिर फरिश्तों को प्रत्यक्ष देखने का अनुभव लोग हाथ से थोड़े ही जाने देते। कल का दिन का समय बाजार के लिए और शाम का मेले के लिए तय हुआ। बाजार गए तो हमारी हैसियत मात्र कार-चालक की थी। बेटी ने अपने लिए कुछ कपड़े पसंद किए। भुगतान किया तो रसीद बना दी गई। कपड़े फिटिंग के लिए अभी चौबीस घंटे दुकानदार के पास रहने थे। रसीद दिखाने पर ही कपड़े मिलते। इस कारण खरीददार का नाम पूछा गया। दुकानदार ने नाम लिखा तो स्पेलिंग में चक्कर खा गया। झुंझला कर उस ने नाम हिन्दी में लिखा। हस्तलिपि सुंदर थी। मैं ने कहा, कितना खूबसूरत लिखा है? आप ने हिन्दी में। आप रसीद हिन्दी में ही क्यों नहीं बनाते? जवाब मिला -साहब! ऐसी ही फैशन है। मैं ने बताया कि मैं चैक हिन्दी में भरता हूँ, पत्र हिन्दी में लिखता हूँ। अधिकतर डाक्टर अंग्रेजी में पर्चा लिखते हैं,कोई-कोई हिन्दी में भी लिखते हैं। आप को कौन सा अच्छा लगता है? वह बोला, हिन्दी वाला अच्छा लगता है और समझ में भी आता है। मैं ने उसे कहा कि आप कुछ दिन हिन्दी में रसीद बनाइए, और देखिए ग्राहकों को कैसा लगता है? मुझे लगता है, उसे अधिक पसंद किया जाएगा। वह तैयार हो गया। आज उस के यहाँ कपड़े लेने जाना है।   देखता हूँ, वह अपने वायदे पर कितना कायम है?



शाम साढ़े पाँच हम मेले में निकले। आगे आगे शोभा और पूर्वा दोनों थीं, और पीछे मैं।  पूर्वा अपनी माँ से कोई छह-सात इंच लम्बी है, पर जिस तरह वह अपनी माँ के बाजू में बाजू डाले चल रही थी, पंद्रह साल पहले की याद आ गई। जैसे उसे भय लग रहा हो की मम्मी कहीं बिछड़ न जाए।  कैमरा साथ होता तो  बहुत भला चित्र लिया जा सकता था। पूर्वा को सोफ्टी खानी थी। हमें वह पसंद नहीं, उस ने अकेले ही खाई। दो बरस पहले जिस सोफ्टी के छह रुपए दिए थे, उसी के दस देने पड़े।  आगे सुरेश कुल्फी वाले की दुकान देख  हमारे मुहँ में पानी आया तो वहाँ जा बैठे। बंद हवा में दो मिनट में ही पसीना आने लगा।  उस की कुल्फी अभी पकी नहीं थी। हम वहाँ इंतजार करने के स्थान पर मेले में टहलने चल दिए।  माँ-बेटी ने दो-एक स्थान पर बैगों के भाव कराए, लेकिन सौदा नहीं पटा। एक दुकान से ढाई सौ ग्राम ओरेंज कैंडी खरीदी गईँ। कुछ प्रदर्शनियाँ देखीं। पुस्तकें देखीं तो वहाँ सारी धार्मिक पुस्तक वालों की प्रदर्शनियाँ  मौजूद थीं, इक्का-दुक्का लोग अंदर जा तो रहे थे, लेकिन पुस्तक खरीदी नाम मात्र की थी।  पुराना  सोवियत पुस्तकों वाला जरूर मौजूद था, पर अब केवल पुस्तक प्रदर्शनी  का बोर्ड लगा था। वहाँ अभी भी स्टॉक में बची सोवियत पुस्तकें बेची जा रही थीं। बाकी सब पुस्तकें वही थीं, जो बाजार की स्टॉलों और दुकानों पर आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं।  प्रदर्शनी में सब से नयी जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी पुस्तक थी। प्रदर्शनी में भीड़ बरकरार थी। यहां लोग पुस्तकें खरीद भी रहे थे। आठ बजने वाले थे। कुछ ही देर में एक अखबार की ओर से कराई जाने वाली आतिशबाजी आरंभ होने वाली थी। भीड़ का रैला मेले में प्रवेश करने लगा था। हम ने वापसी की राह ली। पूर्वा ने मक्का की फूली (पॉपकॉर्न) के दो पैकेट खरीदे, एक मेरे पल्ले पड़ा। एक-एक मक्का मुहँ में डालते रहे। दूसरा पैकेट खोलने की बारी आती तब तक घर पहुँच चुके थे।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

दर्शन और विज्ञान का अन्तर्सम्बन्ध और एक अनाम रचनाकार की रचना 'काशः दुनिया कम्प्यूटर होती'

साँख्य के विरोध और पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। उन सब पर जाया जाए तो यह श्रंखला बहुत लंबी हो जाएगी। इस कारण यहीं विराम लेना ठीक है। 'दर्शन का मानव जीवन में महत्व' एक महत्वपूर्ण विषय है। इस पर जरूर बात होनी चाहिए। मैं ने साँख्य से बात आरंभ करने का प्रयत्न किया है। साँख्य को चुनने का मुख्य कारण एक तो इस का प्राचीनतम दर्शन होना था, दूसरे अपने काल की दृष्टि से यह सब से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता था।
जब से मनुष्य ने सोचना आरंभ किया एक प्रश्न हमेशा उस के सामने रहा कि 'विश्व और उस का व्यापार कैसे चलता है?' तत्कालीन उपलब्ध तथ्यों के आधार पर दार्शनिकों ने इस का उत्तर देने का प्रयत्न किया। धीरे-धीरे दार्शनिक प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में इस का मूल देखा जा सकता है। लेकिन वहाँ वे स्फुट विचार थे। उपनिषदों में इन विचारों को विस्तार प्राप्त हुआ। बाद में विकसित होते होते इन्हें दर्शन प्रणालियों का रूप प्राप्त हुआ। भारत में मुख्यतः साँख्य और वेदान्त प्रणालियाँ विकसित हुईं। जगत की व्युत्पत्ति और उस के व्यापार की तार्किक व्याख्या करने वाली प्रणालियों ने वैज्ञानिकों को इन की सत्यता को परखने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि दर्शन ने विज्ञान का मार्गदर्शन किया।
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती है। जब विज्ञान ने दर्शनों को परखना आरंभ किया, तो उन की अनेक प्रस्थापनाओं को अपने प्रयोगों और उन के परिणामों से खारिज भी किया। इस तरह दर्शन ने जो निष्कर्ष दिए थे उन्हें विज्ञान के निष्कर्षों ने प्रतिस्थापित करना आरंभ कर दिया। यहाँ दर्शन की एक नई भूमिका आरंभ हो गई। अब उसे विज्ञान के निष्कर्षों के अनुरूप स्वयं को बदलना था, अर्थात जिन अवधारणओं को विज्ञान द्वारा परख कर खारिज या मान्य कर दिया था, दर्शन को स्वयं के विकास के लिए उस के आगे की यात्रा आरंभ करनी थी। इस रह हम देखते हैं कि दर्शन और विज्ञान के बीच एक विचित्र संबंध है। दर्शन विज्ञान का पथप्रदर्शन करता है, लेकिन विज्ञान दर्शन को खुद को दुरूस्त करने का अवसर देता है और दर्शन खुद को संशोधित करते हुए पुनः नयी अवधारणा प्रस्तुत कर विज्ञान का मार्गदर्शन कर सकता है। बहुत लोग किसी एक दर्शन प्रणाली के अनुयायी हो कर विज्ञान की अनदेखी करते हुए दर्शन का राग अलापते रहे और आज तक अलाप रहे हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। जहाँ तक विज्ञान अपनी खोजों से पहुँच गया है, उस के आगे भी उस के पास बहुत से अनुत्तरित प्रश्न मौजूद हैं। दर्शन का दायित्व है कि आज तक के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के लिए अपनी अवधारणाएँ प्रस्तुत करे और विज्ञान की आगे की यात्रा के लिए उस के पथ प्रदर्शक का काम करे। मुझे लगता है कि एक शताब्दी से कुछ अधिक काल से इस काम में दर्शनशास्त्र और दार्शनिक पिछड़े हैं और दर्शनशास्त्र वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। यह आज के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए एक चुनौती है। मैं पिछले तीस वर्षों से लगातार यह सोच रहा हूँ कि विश्वविद्यालयों के स्नातक उपाधि के पाठ्यक्रम में भौतिकी और दर्शन विषय को एक साथ पढ़ने का अवसर विद्यार्थियों को क्यों नहीं मिलता है।
जब मैं साँख्य पढ़ रहा था तो मुझे बार-बार ईश्वरकृष्ण की पुस्तक साँख्यकारिका पढ़नी पड़ी। मेरे पास इस पुस्तक की जो प्रति थी वह 1960 का संस्करण था। इसे मेरे चाचा जी ने संस्कृत के स्नातकोत्तर के अध्ययन के लिए खरीदा था, तब इस का मूल्य मात्र एक रुपया था। पुस्तक पूरी ही थी। लेकिन पिछला कवर पृष्ठ निकल चुका था और कागज इस नाजुक अवस्था में पहुँच चुका था कि वह जरा भी लापरवाही बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था। मैं ने पुस्तक की सुरक्षा के लिए उसे पुरानी कॉपी के एक पन्ने में लपेट दिया था। कल उस पन्ने को अलग कर पुस्तक पर एक नए कागज का कवर ठीक से लगा कर उसे अलमारी में सुरक्षित रखा। निकाला गया पन्ना देखा तो वह बेटी पूर्वा की किसी कॉपी का था। उस पर एक रचना लिखी थी। यह किस की रचना थी? यह तो मैं बता सकने में असमर्थ हूँ। लेकिन उस रचना को आप के सामने रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। यह रचना आज के नौजवानों की महत्वाकांक्षा को बहुत खूबसूरती और रूमानियत के साथ प्रकट करती है जो शायद उस की आदिम आकांक्षा भी रही है। तो यह रचना प्रस्तुत है, आप को पसंद आए तो उस अनाम रचनाकार के लिए दो शब्द जरूर लिखें।
दुःख के लमहे डि-लीट करते
  • अनाम रचनाकार
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।
सुख के लमहे सेव हो जाते, दुःख के लमहे डि-लीट करते।।

मज़े की मनचाही विंडो, जब चाहे हम औपन करते।
मुस्तकबिल के ताने बाने, अपनी चाहत से खुद ही बुनते।।

ख्वाहिशों की होती फाइल, जिस में कट और कॉपी करते।
जब भी होता वायरस पैदा, दुनिया को री-फॉर्मेट करते।।

खुशियों के रंगों से तस्क़ीन, फीके लमहे रंगीन करते।
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।।









शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

सांख्य का सार

हम सांख्य को संक्षेप में इस तरह समझ सकते हैं-

1.  प्रलय की अवस्था में सारा पदार्थ, समस्त तत्व एक अपूर्वता (Singularity) में निहीत होता है।  इसे साँख्य प्रधान अथवा मूल प्रकृति कहता है।

2.  मूल प्रकृति के तीन आंतरिक अवयव सत्व, रजस् और तमस् होते हैं जिन्हें गुण कहा गया है। प्रलय की अवस्था में साम्य होने से मूल प्रकृति अचेतन प्रतीत होती है। लेकिन ये आंतरिक अवयव लगातार क्रियाशील रहते हैं केवल साम्य बनाए रखते हैं। तीनों अवयवों को सम्मिलित रूप से त्रिगुण कहा गया है और प्रकृति को त्रिगुण मय।

3.   त्रिगुणों द्वारा स्थापित साम्य के भंग होने से जगत का विकास आरंभ होता है।

4.   प्रकृति से अन्य 24 तत्वों की उत्पत्ति होती है। ये तत्व भी प्रकृति की भाँति त्रिगुणमय होते हैं।  किन्तु उन में किसी एक गुण की प्रधानता होती है, जिस से उन का चरित्र और कार्य निर्धारित होता है।

5.   प्रथमतः सत्व की प्रधानता वाले तत्व महत् की उत्पति होती है, जिसे बुद्धि भी कहा गया है। यह साँख्य का दूसरा तत्व है। यह प्रकृति से उत्पन्न होने से भौतिक है, लेकिन उस का रूप मानसिक और बौद्धिक है

6.   महत् से रजस् प्रधानता वाले तीसरे तत्व अर्थात अहंकार की उत्पत्ति हुई, जो स्वः की अनुभूति को प्रकट करता है। यह साँख्य का तीसरा तत्व है।

7.   अहंकार से तत्वों के दो समूह उत्पन्न होते हैं। सात्विक अहंकार से ग्यारह तत्वों का प्रथम समूह जिस में एक मनस या मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।

8.   चौथा तत्व मन, बुद्धि से पृथक है।  यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है।  साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं।  साँख्य तत्व बुद्धि,  स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है।

9.   सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  1.श्रोत्र, 2.त्वक, 3.चक्षु, 4.रसन और 5.प्राण  हैं।

10. सात्विक अहंकार से ही उत्पन्न पाँच कर्मेन्द्रियाँ 1.वाक, 2.पाणि, 3.पाद, 4.पायु और 5.उपस्थ हैं। 

11. तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्मभूत 1.शब्द, 2.स्पर्श, 3.रूप, 4.रस और 5.गंध हैं। 

12.  इन पाँच तन्मात्राओं या सूक्ष्मभूतों से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या  महाभूत 1.आकाश 2.वायु 3.अग्नि 4.जल और 5.पृथ्वी हैं।
मूल साँख्य के ये 24 तत्व हैं।

13.  इस तरह प्रकृति से जगत का विकास होता है। विकास का अंतिम चरण पुनः प्रलय है। जब सभी 23 तत्वों में निहित त्रिगुण पुनः साम्यावस्था में पहुँच जाते हैं। पुनः प्रधान या मूल प्रकृति स्थापित हो जाती है। इस मूल प्रकृति में त्रिगुणों का साम्य भंग होने से पुनः एक नवीन जगत का विकास प्रारंभ हो जाता है।

14.  परवर्ती साँख्य वेदांत के प्रभाव से 25वें तत्व पुरुष को मानता है। जो वेदान्त की आत्मा के समान है। लेकिन यह वेदांत के ब्रह्म से भिन्न है। पुरुष अनेक हैं। प्रत्येक शरीर के लिए एक भिन्न पुरुष है। इस पुरुष की मुक्ति के लिए ही प्रकृति विकास करती है। पुरुष का कोई कार्य नहीं है। वह केवल दृष्टा है जो प्रकृति के विकास को देखता रहता है। प्रकृति उसे दिखाने के लिए ही विकास करती है।

15.  परवर्ती साँख्य भी किसी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। उस का मानना है कि ईश्वर को सिद्ध नहीं किया जा सकता, उस का कोई अस्तित्व नहीं है।

16. योग प्रणाली भी साँख्य का ही विस्तार है जो ईश्वर या ब्रह्म को 26 वाँ तत्व मानती है। उस का मानना है कि ब्रह्म या ईश्वर से मूल प्रकृति और पुरुष उत्पन्न होते हैं और फिर पुरुष की मुक्ति के लिए प्रकृति उसी भांति विकास करती है, जिस भांति दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक नर्तकी नृत्य करती है।

17.  प्रकृति-परिणामवाद साँख्य का मूल सिद्धान्त है। उस का कथन है कि प्रकृति सत्य है, और उस का परिणाम यह जगत भी सत्य है।

18.  वेदांत का सिद्धांत ब्रह्म-विवर्तवाद है जिस का कथन यह है कि एक ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है, और मूल कारण ब्रह्म की विकृति है।
(समाप्त)


गुरुवार, 6 अगस्त 2009

जगत का विकास, प्रलय और पुनः जगत का विकास

साँख्य कारिका के पुरुष केवल अनुमान हैं। ईश्वर कृष्ण कहते हैं कि ये सब प्रकृति के तत्व हैं वे सब उपभोग के लिए हैं इस कारण भोक्ता जरूरी है। इसी से पुरुषों की सिद्धि होती है। इस से कमजोर प्रमाण पुरुषों की सिद्धि के लिए दिया जाना संभव नहीं है।  लेकिन साँख्य की जगत व्याख्या की जो विधि है उस में पुरुष किसी भी तरह से प्रासंगिक नहीं होने से कोई मजबूत साक्ष्य मिलना संभव नहीं था। यह साक्ष्य भी चेतन पुरुष को सिद्ध नहीं कर सका और साँख्य प्रणाली के अनुसार उसे एक से अनेक होना पड़ा, कारिकाकार को कहना पड़ा कि प्रत्येक शरीर के लिए एक अलग पुरुष है और बहुत से पुरुष हैं।  इन प्रमाणों से प्रतीत होता है कि पुरुष की उत्पत्ति शरीर से है। कुल मिला कर पुरुष प्रत्येक शरीर का गुण बन कर रह जाता है। वह शरीर के साथ अस्तित्व में आता है और मृत्यु के साथ ही उस की मुक्ति हो जाती है।  हम कारिका और उस के बाद के साँख्य ग्रन्थों में पुरुष की उपस्थिति पाते हैं। लेकिन सभी तरह के तर्क देने के उपरांत भी साँख्य पद्धति में पुरुष एक आयातित तत्व ही बना रहता है।
मेरा अपना मानना है कि साँख्य पद्धति ने उस काल में अपनी विवेचना से जगत की जो व्याख्या की थी वह सर्वाधिक तर्कपूर्ण थी,  उसे झुठलाया जाना संभव ही नहीं था।  इस कारण से प्रच्छन्न वेदांतियों ने सांख्य में पुरुष की अवधारणा को प्रवेश दिया और उसे एक भाववादी दर्शन घोषित करने के अपने उद्देश्य की पूर्ति की। कुछ भी हो, इस से साँख्य पद्धति का हित ही हुआ।  यदि यह भाववादी षडदर्शनों में सम्मिलित न होता तो इस की जानकारी और भी न्यून रह जाती।  फिर इस की केवल आलोचना ही देखने को मिलती।  प्रधान (मूल प्रकृति) को अव्यक्त कहा गया है। इस अव्यक्त के साथ एक और अव्यक्त माना जाना संभव नहीं है।  इस मूल प्रकृति से ही जगत का विकास होना तार्किक तरीके से समझाया गया है।  विकास के पूर्व की अवस्था को प्रलय की अवस्था कहा गया है जब केवल अव्यक्त प्रकृति होती है और उस के तीनों अवयवों के साम्य के कारण उस में आंतरिक गति होने पर भी वह अचेतन प्रतीत होती है।  सांख्य इसी तरह यह भी मानता है कि जगत का विकास तो होता ही है,  लेकिन उस का संकुचन भी होता है और यह जगत पुनः एक बार वापस प्रलय की अवस्था में आ जाता है और त्रिगुण साम्य की अवस्था हो जाने से संपूर्ण जगत पुनः प्रधान में परिवर्तित हो जाता है। 
साँख्य की यह व्यवस्था केवल बिग बैंग जैसी नहीं है  जिस में बिग बैंग के उपरांत यह जगत लगातार विस्तार पा रहा है और उस का सम्पूर्ण पदार्थ एक दूसरे से दूर भाग रहा है।  आज वैज्ञानिकों ने श्याम विवरों (ब्लेक होल) की खोज कर ली है। इन श्याम विवरों में पदार्थ की गति इस सिद्धांत के विपरीत है। अर्थात इन की सीमा में कोई भी पदार्थ इन से दूर नहीं जा सकता यहाँ तक कि प्रकाश की एक किरण तक भी नहीं। हमारी नीहारिका के केंद्र में भी एक ऐसे ही ब्लेक होल की उपस्थिति देखी गई है। श्याम विवर जगत के संकुचन के सिद्धांत की पुष्टि करते है। साँख्य के इस सिद्धांत की  कि जगत पुनः प्रधान में परिवर्तित हो जाता है विज्ञान की नयी खोजें पुष्टि कर रही हैं।  प्रधान की अचेतन अवस्था को  ही साँख्य  में प्रलय की संज्ञा दी गई है और प्रधान से पुनः नए जगत के विकास की अवधारणा प्रस्तुत की गई है।

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

पुरुष बहुत्वम् : पुरूष अनेक हैं।

पिछले पाँच आलेखों में साँख्य के बारे में जो कुछ लिखा गया उस में पुरुष कहीं नहीं था।  वस्तुतः  अब तक साँख्य को कहीं भी पुरुष की आवश्यकता नहीं हुई।  वह साँख्य के चौबीस तत्वों में कहीं भी सम्मिलित नहीं है।  यदि अब उसे सांख्य में लाया जाए तो अब तक जो विकास का जो मॉडल सामने आया वह गड़बड़ा जाएगा। 'प्रधान' या 'मूल प्रकृति' से जगत के विकास क्रम में पुरुष की उपस्थिति पूरी तरह असंगत है। परवर्ती साँख्य में पुरुष ने उपस्थित हो कर ठीक यही किया। इस संबंध में देवीप्रसाद चटोपाध्याय लिखते हैं .....
'प्रकृति' के ठीक प्रतिकूल, साँख्य में 'पुरुष' की स्थिति गौण थी, यह 'अ-प्रधान' था।  इसे आम तौर पर उदासीन भी कहा जाता था।  पुरुष का यह उपनाम हमें 'ब्रह्मसूत्र' पर लिखे भाष्यों (शंकर) में मिलता है। याहँ तक कि 'कारिका' में भी इस उपनाम का प्रयोग हुआ है।  इस से हमारे मन में  यह संदेह उठ सकता है कि यदि ये पुरुष इस विश्व की सृष्टि की वास्तविक प्रक्रिया के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन थे और यदि पदार्थ मूल अविकसित पदार्थ से विकसित हो कर गोचर जगत बनने तक के विकासानुक्रम में इनकी कोई भूमिका नहीं थी तो फिर साँख्य के प्रतिपादकों को इस आत्मनिर्भर सत्य से अलग उन पुरुषों को मान्यता देने की आवश्यकता क्यों पड़ी।  वास्तविक परिस्थितियों में इन के लिए स्थान क्यों होना चाहिए? जैसा कि हम देखेंगे, इस का कारण केवल इतना था कि कुछेक दार्शनिक, इस 'प्रधानवाद' में विसंगतिपूर्ण  स्थिति होने के बावजूद पुरुष के सिद्धांत को मान्यता देना चाहते थे। इस के पीछे कुछ और कारण भी थे। 
शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में लिखा......
"हम इन दोनों प्रणालियों (साँख्य और योग) के उन अंशों को सहर्ष स्वीकार करते हैं जो वेद विरुद्ध नहीं हैं।  उदाहरण के लिए उन्हों ने आत्मा (पुरुष) को सभी प्रकार के गुणों से मुक्त बता कर वेदों के अनुरूप विचार प्रस्तुत किए हैं।  वेदों में जीव (पुरुष) को मूलतः शुद्ध बताया गया है। उदाहरण के लिए 'वृहदोपनिषद'  ' क्यों कि इस जीव का किसी के साथ कोई संबंध नहीं है।'
शंकर की यह टिप्पणी जितनी दिखाई देती है उस से अधिक महत्वपूर्ण है। शंकर ने साँख्य की निंदा केवल इसलिए नहीं की थी कि वह वेदांत के विरुद्ध था बल्कि इसलिए भी की थी कि वह वेदांत के सच्चे अनुयायियों के उपदेशों के भी विरुद्ध था। तब फिर ऐसी प्रणाली में वेदांत के अनुरूप पुरुष के विवरण के लिए स्थान होना विचित्र बात थी। हाँ यह विचित्रता उस परिस्थिति में नहीं रहेगी जब कि यह मान लिया जाए कि वेदांत के अनुरूप आत्मा (पुरुष) के विवरण वाली बात साँख्य के बाद के प्रणेताओं ने ऐसे दार्शनिकों से ग्रहण की हो जो वास्तव में वेदांत के अनुयायी थे।  साँख्य कारिका के लेखक ईश्वरकृष्ण ने यही किया। वेदांत से उधार लिया गया पुरुष सिद्धांत साँख्य में ले आए जो साँख्य के मूल सिद्धांतों से मेल नहीं खा सका।

अब हम देखें कि कारिका में  पुरुष की स्थिति क्या है। साँख्य में  'पुरुष बहुत्वम'  कहा गया है अर्थात पुरुष अनेक हैं।साँख्य कारिका  के सूत्र-18 में कहा है.....
जन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च।
पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रेगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। 18 ।।
 "चूँकि सब के लिए जनम, मरण और जीवन के साधन (ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ) अलग हैं क्योंकि सब के कार्य सर्वव्याप्त और एक ही समय नहीं होते और चूँकि सब के अलग-अलग गुण हैं, इस से प्रत्यक्ष है कि पुरुष अनेक हैं।"
साँख्य कारिका के पुरुष न केवल अनेक हैं अपितु प्रत्येक जीवधारी को एक पुरुष की संज्ञा दे दी गई है। यह आत्मा की विशिष्टता नहीं हो सकती। वह जन्मता है और मरता है जिस के शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हैं। यह आत्मा का तत्वमीमाँसीय दृष्टिकोण नहीं हो सकता,  और आत्मा के वेदांतिक दृष्टिकोण से पूरी तरह भिन्न है।  सांख्य कारिका का  पुरुष साधारण भौतिक शरीर वाले व्यक्ति में परिवर्तित हो कर रह गया है। प्रत्येक पुरुष का कोई शरीर नहीं है। वे शरीर से संबद्ध नहीं। उन का शरीरों  की किसी भी गतिविधि में कोई योगदान नहीं है। व्यक्तियों के जीवन में जो कुछ हो रहा है, उन से वे पूरी तरह उदासीन हैं। उन की कोई भूमिका नहीं। वे व्यक्ति के जीवन के केवल साक्षी मात्र हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे या तो साँख्य में बिन बुलाए अतिथि हैं या फिर किसी खास उद्देश्य से उन का प्रवेश इस प्रणाली में कराया गया है। (जारी)


शनिवार, 1 अगस्त 2009

परवर्ती साँख्य में 25वें तत्व 'पुरुष' का प्रवेश

हम ने पिछले आलेख में मूल साँख्य के 24 तत्वों के बारे में चर्चा की थी जो  1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार 4. मनस या मन 5. से 9. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  10. से 14. पाँच कर्मेन्द्रियाँ  15 से 19 पाँच तन्मात्राएँ या सूक्ष्म भूत तथा 20 से 24 पाँच महाभूत, कुल 24 तत्व  हैं।

 बुद्धि और मन
यहाँ साँख्य में एक जैसे दो तत्व  दिखाई पड़ते हैं। एक बुद्धि या महत् और दूसरा मन या मस्तिष्क।  यह मन बुद्धि से पृथक तत्व है।  यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है।  साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं होगा। साँख्य तत्व बुद्धि स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है। 

 ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ और महाभूत
सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  श्रोत्र, त्वक, चक्षु, रसन और प्राण  हैं तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ हैं।  तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्र अथवा सूक्ष्म भूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध हैं। पाँच तन्मात्राओं अथवा सूक्ष्मभूत से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या  महाभूत आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी हैं।

हम ने देखा कि अहंकार से सूक्ष्म और स्थूल भूतों की उत्पत्ति होती है। स्थूल-भूत सूक्ष्म-भूतों के विभिन्न योगों से उत्पन्न होते हैं।  जैसे शब्द से आकाश का जन्म होता है, शब्द और स्पर्श के योग से वायु या मरूत, रूप से तेज या अग्नि और शब्द, स्पर्श, रूप और रस से जल की उत्पत्ति होती है। सभी पाँच सूक्ष्म भूतों से महाभूत क्षिति या पृथ्वी की उत्पत्ति होती है।

पुरुष
अब तक हम ने मूल साँख्य के बारे में जाना जो बुद्ध के काल तक जाना जाता था। इस में पुरुष तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित था। तब तक हम इसे एक भौतिकवादी दर्शन कह सकते हैं, जिस की आलोचना बादरायण ने ब्रह्मसूत्र में की। शंकर और रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्यों में भौतिकवादी दर्शन के रूप में ही साँख्य को  अपनी आलोचना का केन्द्र बनाया।  लेकिन इस काल में भारत और लगभग संपूर्ण पूर्व एशिया के मानव समाजों और उन के राजनैतिक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे, जो दर्शन पद्धतियों पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रह सकते थे। इन पूर्व एशियाई समाजों में अब तक गणपद्धति की राजनैतिक व्यवस्था हुआ करती थी, जो परिवारों, कुलों और गोत्रों के प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाती थी। अक्सर गणों की संपत्तियाँ सामूहिक होती थीं। उन का उपभोग गण के सदस्य आवश्यकतानुसार किया करते थे। यह एक तरह का बड़ा संयुक्त परिवार था। इस पद्धति में राजा नहीं हुआ करता था। गणाध्यक्ष या गणपति गण का प्रमुख होता था। लेकिन यह पद्धति कृषि के विकास को अवरुद्ध किए हुए थी।  विकास के लिए इस अवरोध का टूटना अवश्यंभावी था। वह टूटी, और गणों का स्थान राज्य लेने लगे।  इस से समाज में अनेक विकृतियाँ और उन के कारण क्षोभ उत्पन्न हुआ। सामूहिकता नष्ट हो रही थी जिस के प्रति आदर और मोह मौजूद था। इस सामुहिकता के प्रति आदर और मोह का संरक्षण बोद्धों ने एक अभिनव संगठन संघ के माध्यम से किया। यही कारण था कि उस वातावरण में बौद्ध संघ एक अल्पकाल में ही पूरे एशिया में फैल गए। 

गण-संघों के स्थान पर राज्यों की स्थापना दर्शनशास्त्र में एक ब्रह्म, एक ईश्वर और एक परम पुरुष की अवधारणा की आवश्यकता पर जोर दे रही थी इस का मूल वैदिक उपनिषदों में मौजूद था। साँख्य में इस के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन इस तरह की किसी अवधारणा के अभाव में साँख्य का  नए सामाजिक -राजनैतिक वातावरण में जीवित रहना ही दूभर था।  यही वह बिन्दु था जहाँ मूल साँख्य में पुरुष का प्रवेश हुआ जिस ने परवर्ती साँख्य में 25वें तत्व के रुप में अपना स्थान बनाया।  लेकिन मूल साँख्य की पद्धति इतनी मजबूत और अभेद्य थी कि पुरुष ने उस में प्रवेश तो कर लिया, लेकिन उस के लिए वहाँ कोई भूमिका थी ही नहीं। वह साँख्य में प्रवेश के बाद भी परिवार में बाहरी अतिथि की तरह दर्शक मात्र ही  बना रहा। हम आगे परवर्ती साँख्य में पुरुष के बारे में चर्चा करेंगे।




शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

मूल साँख्य के चौबीस तत्व

मूल साँख्य को जानने के लिए हमने अपना आरंभ बिन्दु शंकर और रामानुज द्वारा ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हुए की गई साँख्य की आलोचना को चुना था।  यह आलोचना जिस मुख्य सूत्र की की गई थी वह इस तरह था....
प्रधानं त्रिगुणमचेतनं स्वतन्त्रं जगत्कारणम्
अर्थात् त्रिगुण प्रधान (आद्य प्रकृति) स्वतन्त्र रूप से जगत का कारण है।

लेकिन क्या त्रिगुण प्रधान अचेतन था? हम ने पिछले आलेख में देखा था कि सत्, रजस् और तमस् ये तीनों प्रधान (आद्य प्रकृति) के गुणधर्म नहीं अपितु उस के घटक हैं। जो प्रधान तीन घटकों का सामंजस्य़ हो वह किस प्रकार अचेतन कैसे हो सकता था? सांख्य हमें यह भी बताता है कि प्रधान इन तीनों घटकों की एक साम्यावस्था है जिस से उस के अचेतन होने की प्रतीति होती है। वस्तुतः वह अचेतन नहीं हो सकता।  अपितु उस में ये तीनों घटक अन्तर्क्रिया में लीन हैं। वे लगातार बदलते हैं और एक दूसरे का संतुलन बनाए रखते हैं। जब तक यह अन्तर्क्रिया तीनों घटकों में साम्यावस्था को बनाए रखती है तब तक ही प्रधान प्रधान बना रहता है। जैसे ही इन तीनों घटकों की अन्तर्क्रिया से यह सामंजस्य टूटता है, जगत के विकास की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। ये तीनों केवल प्रधान के ही घटक नहीं है अपितु प्रकृति के प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के भी घटक हैं, जो उन्हें गतिमान और परिवर्तन शील बनाए रखते हैं।  आज विज्ञान यह प्रमाणित कर चुका है कि  पदार्थ के इलेक्ट्रॉन जैसे अतिसूक्ष्म कण भी निरंतर गति और परिवर्तन की स्थिति में रहते हैं।

प्रधान के साम्य के टूटने और जगत निर्माण की परिघटना की तुलना हम बिग-बैंग के आधुनिक सिद्धांत से कर सकते हैं। जिस में जगत के समूचे पदार्थ का एक सिंगुलरिटी में होना अभिकल्पित है। इस सिंगुलरिटी की प्रतीति भी अचेतन है। क्यों कि वहाँ कोई परिवर्तन नहीं है। इस कारण काल, व्योम और ऊर्जा कुछ भी विद्यमान नहीं है। बिग बैंग के पूर्व इस सिंगुलरिटी में क्या चल रहा होगा इस की कल्पना करना निरर्थक है। क्यों कि काल विद्यमान नहीं है, इस कारण से पूर्व शब्द का प्रयोग किया जाना संभव नहीं।  इस  आधुनिक सिंगुलरिटी में घटकों की कोई अभिकल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन साँख्य का प्रधान तीन घटकों का योग है। यही कारण है कि  उसे अचेतन माना जाना संभव नहीं है। उसे अंतर्गतिमय कहा जा सकता है जिस की प्रतीति अचेतन है। 


त्रिगुण-प्रधान साँख्य में वर्णित प्रथम तत्व है। इस में त्रिगुण के साम्य के टूटने से सत्व-गुण की प्रधानता वाला महत् अर्थात् बुद्धि जो साँख्य का दूसरा तत्व है, उत्पन्न हुआ।  बुद्धि प्रकृति से उत्पन्न होने से भौतिक  है  लेकिन उस का रूप मानसिक और बौद्धिक है। बुद्धि से  रजस् प्रधानता वाले तीसरे तत्व अर्थात अहंकार की उत्पत्ति हुई। जो स्वः की अनुभूति को प्रकट करता है। साँख्य के अनुसार अहंकार से तत्वों के दो समूह उत्पन्न हुए। सात्विक अहंकार से ग्यारह तत्वों का प्रथम समूह जिस में एक मनस या मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं। तामस अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्मभूत उत्पन्न हुए और इन पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूतों की उत्पत्ति हुई। 

इस तरह मूल साँख्य में 1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार 4. मनस या मन 5. से 9. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  10. से 14. पाँच कर्मेन्द्रियाँ  15 से 19 पाँच तन्मात्राएँ या सूक्ष्म भूत तथा 20 से 24 पाँच महाभूत, कुल 24 तत्व कहे गए हैं।

प्रथम तीन तत्वों 1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार से हम परिचय कर चुके हैं। अगली कड़ी में हम शेष 21 तत्वों के बारे में जानेंगे।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

प्रकृति के तीन गुण सत्, रजस और तमस् क्या हैं?

गुण शब्द से हमें किसी एक पदार्थ की प्रतीति न हो कर, उस गुण को धारण करने वाले अनेक पदार्थों की एक साथ प्रतीति होती है। जैसे खारा कह देने से तमाम खारे पदार्थों की प्रतीति होती है, न कि केवल नमक की। इस तरह हम देखते हैं कि गुण का अर्थ है किसी पदार्थ का स्वभाव।  लेकिन साँख्य के त्रिगुण गुणवत्ता या स्वभाव नहीं हैं।  यहाँ वे प्रकृति के आवश्यक घटक हैं।  सत्व, रजस् और तमस् नाम के तीनों घटक प्रकृति और उस के प्रत्येक अंश में विद्यमान रहते हैं। इन तीनों के बिना किसी वास्तविक पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं है। किसी भी पदार्थ में इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण उस का चरित्र निर्धारित होता है।  हमें अन्य तत्वों के बारे में जानने के पूर्व साँख्य सिद्धांत के इन तीन गुणों के बारे में कुछ बात कर लेनी चाहिए। सत्व का संबंध  प्रसन्नता और उल्लास से है, रजस् का संबंध गति और क्रिया से है। वहीं तमस् का संबंध अज्ञान और निष्क्रीयता से है।
सत्व प्रकृति का ऐसा घटक  है जिस का सार पवित्रता, शुद्धता, सुंदरता और सूक्ष्मता है।  सत्व का संबंध चमक, प्रसन्नता, भारन्यूनता और उच्चता से है। सत्व अहंकार, मन और बुद्धि से जुड़ा है। चेतना के साथ इस का गहरा संबंध है।  परवर्ती साँख्य में यह कहा जाता है कि चेतना के साथ इस का गहरा संबंध अवश्य है लेकिन इस के अभाव में भी चेतना संभव है। यहाँ तक कि बिना प्रकृति के भी चेतना का अस्तित्व है। लेकिन यह कथन मूल साँख्य का प्रतीत नहीं होता है अपितु यह परवर्ती सांख्य में वेदान्त दर्शन का आरोपण मात्र प्रतीत होता है जो चेतना के स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा प्रस्तुत करता है। 
रजस् प्रकृति का दूसरा घटक है जिस का संबंध पदार्थ की गति और कार्रवाई के साथ है। भौतिक वस्तुओं में गति रजस् का परिणाम हैं। जो गति पदार्थ के निर्जीव और सजीव दोनों ही रूपों में देखने को मिलती वह रजस् के कारण देखने को मिलती है। निर्जीव पदार्थों में गति और गतिविधि, विकास और ह्रास रजस् का परिणाम हैं वहीं जीवित पदार्थों में क्रियात्मकता, गति की निरंतरता और पीड़ा रजस के परिणाम हैं। 
तमस् प्रकृति का तीसरा घटक है जिस का संबंध जीवित और निर्जीव पदार्थों की जड़ता, स्थिरता और निष्क्रीयता के साथ है। निर्जीव पदार्थों में जहाँ यह गति और गतिविधि में अवरोध के रूप में प्रकट होता है वहीं जीवित प्राणियों और वनस्पतियों में यह अशिष्टता, लापरवाही, उदासीनता और निष्क्रियता के रूप में प्रकट होता है।  मनुष्यों में यह अज्ञानता, जड़ता और निष्क्रियता के रूप में विद्यमान है।
मूल-साँख्य के अनुसार प्रधान (आद्य प्रकृति)  में ये तीनों घटक साम्यावस्था में थे। आपसी अंतक्रिया के परिणाम से भंग हुई इस साम्यावस्था ने प्रकृति के विकास को आरंभ किया जिस से जगत (विश्व Universe) का वर्तमान स्वरूप संभव हुआ।  हम इस सिद्धान्त की तुलना आधुनिक भौतिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत विश्व के विकास (Evolution of Universe) के सर्वाधिक मान्य महाविस्फोट के सिद्धांत (Big-Bang theory) के साथ कर सकते हैं। दोनों ही सिद्धांतों में अद्भुत साम्य देखने को मिलता है। 
THE BIG-BANG
चित्रों को बड़ा कर देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें!

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

प्रकृति के तीन गुण सत्, रजस और तमस में असमानता से बुद्धि और अहंकार का विकास

सांख्य का मूल वैदिक साहित्य, उपनिषदों से ही आरंभ हो जाता है। बौद्ध ग्रंथों में उस के उल्लेख से उस की प्राचीनता की पुष्टि होती है, उस पर ईसा के जन्म के पहले और बाद में बहुत कुछ लिखा गया और लगातार कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है। जिस से यह स्पष्ट होता है कि यह एक प्रभावशाली चिंतन प्रणाली रही है और इस का विकास भी हुआ है। इस के आद्य दार्शनिक कपिल कहे जाते हैं। पिछले आलेख में इसे समझने के लिए जिस पद्यति का उल्लेख किया गया था। हम आज उसी से प्रारंभ करते हैं, अर्थात ब्रह्मसूत्र से। ब्रह्मसूत्र में वेदांत को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है और इसी प्रयास में साँख्य दर्शन की जम कर आलोचना की गई है। ब्रह्मसूत्र एक ऐसी रचना है जिसे बिना भाष्य के समझा जाना संभव नहीं है। इसलिए हम उस के दो प्रमुख भाष्यों शंकर और रामानुज भाष्यों का सहारा लेते हैं।

दोनों ही भाष्यकार कहते हैं कि साँख्य जगत का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन प्रधान को मानता है और इस कारण से वह अवैदिक है। इस आलोचना से हम साँख्य के उस प्रारंभिक रूप का अनुमान कर सकते हैं जिस में प्रधान को अर्थात आद्य निष्क्रिय प्रकृति अथवा अव्यक्त प्रकृति को ही जगत का कारण बताया जाता है। यह निश्चित रूप से आज के पदार्थवाद के समान है, जिस में एक महाणु के रूप में उपस्थित पदार्थ में महाविस्फोट (बिग-बैंग) से आज के विश्व के विकास का सिद्धान्त सर्वाधिक मान्यता पाया हुआ है। महाविस्फोट के इसी सिद्धांत के अनुरूप साँख्य की मान्यता है कि प्रकृति से जगत का विकास हुआ है। प्रकृति के बारे में साँख्य की मान्यता है कि यह त्रिगुणयुक्त है, अर्थात तीन गुणों सत, रज और तम से युक्त है। ये तीनों गुण प्रकृति से अभिन्न हैं। ये अव्यक्त प्रकृति में भी सम अवस्था में मौजूद थे। तीनों गुण प्रकृति से अभिन्न हैं तथा प्रकृति के प्रत्येक अंश में विद्यमान रहते हैं।

साँख्य में कहीं 24, कहीं 25 और कहीं 26 तत्वों का उल्लेख है। हम चौबीस तत्वों का यहाँ उल्लेख करेंगे। अव्यक्त प्रकृति, आद्य प्रकृति या जिसे प्रधान कहा गया है वह प्रथम तत्व है। इस आद्य प्रकृति के तीन गुणों में प्रारंभिक अन्तर्क्रिया के कारण उन की समता भंग हो जाने के कारण विकास की प्रक्रिया आरंभ हुई और अन्य 23 तत्वों की उत्पत्ति हुई। सद्गुण की प्रधानता से दूसरा तत्व महत् उत्पन्न हुआ। महत् प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण स्वयं पदार्थ का एक रूप है लेकिन सद्गुण की प्रधानता के कारण यह मानसिक और वैचारिक महत्ता रखता है जिसे बुद्धि कहा गया। बुद्धि मानव की सर्वोत्तम थाती है। इसी से मनुष्य निर्णय करने और वस्तुओं में भेद करने जैसी क्षमता रखता है। इसी से वह अनुभवों को संजोता है और निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसी से वह स्वयं और पर में भेद करता है। रजोगुण की प्रधानता से तीसरे तत्व अहंकार की उत्पत्ति होना साँख्य मानता है। अहंकार से व्यक्ति अपने स्व की पहचान करता है और स्वयं को शेष प्रकृति से भिन्न समझ पाता है।

हम संक्षेप में इसे इस तरह समझ सकते हैं कि साँख्य सिद्धान्त के अनुसार आद्य अव्यक्त प्रकृति अथवा प्रधान के तीन गुणों में अंतर्क्रिया से उन में असमानता उत्पन्न हुई अथवा उन का साम्य भंग हुआ, जिस ने जगत के विकास को आरंभ किया। सद्गुण की प्रधानता से महत् अर्थात बुद्धि का और रजोगुण की प्रधानता से अहंकार का विकास हुआ।

आगे हम शेष 21 तत्वों और अंत में पच्चीसवें और छब्बीसवें तत्वों के बारे में जानेंगे।

रविवार, 26 जुलाई 2009

कैसे जानें? मूल साँख्य

अनवरत के आलेख कहाँ से आते हैं? विचार! में साँख्य दर्शन का उल्लेख हुआ था। तब मुझ से यह अपेक्षा की गई थी कि मैं साँख्य के बारे में कुछ लिखूँ। दर्शनशास्त्र मेरी रुचि का विषय अवश्य है, लेकिन दर्शनों का मेरा अध्ययन किसी एक या एकाधिक दर्शनों को संपूर्ण रूप से जानने और उन पर अपनी व्याख्या प्रस्तुत करने के उद्देश्य से नहीं रहा है। जगत की तमाम गतिविधियों को समझने की अपनी जिज्ञासा को शांत करने के दृष्टिकोण से ही मैं थोड़ा बहुत पढ़ता रहा। अपने किशोर काल से ही मेरा प्रयास यह जान ने का भी रहा कि आखिर यह दुनिया कैसे चलती रही है? जिस से यह भी जाना जा सके कि आगे यह कैसे चलेगी और इस की दिशा क्या होगी? साँख्य को भी मैं ने इसी दृष्टिकोण से जानने की चेष्ठा की। मैं यदि साँख्य के विषय पर कुछ लिख सकूंगा तो इतना ही कि मैं ने उसे किस तरह जाना है और कैसा पाया है? इस से अधिक लिख पाना शायद मेरी क्षमता के बाहर का भी हो।

जब मैं ने साँख्य के बारे में जानना चाहा तो सब से पहले यह जाना कि भारत के संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण और अत्यंत व्यापक प्रभाव वाला दर्शन रहा है। इस का आभास 'गार्बे' की इस टिप्पणी से होता है कि " ईसा पूर्व पहली शताब्दी से, महाभारत और मनु संहिता से आरंभ होने वाला संपूर्ण भारतीय साहित्य, विशेषकर पौराणिक कथाएँ और श्रुतियाँ, जहाँ तक दार्शनिक चिंतन का संबंध है, साँख्य विचारधाराओं से भरी पड़ी हैं।" सांख्य के प्रबलतम विरोधी शंकराचार्य को न चाहते हुए भी बार बार स्वीकार करना पड़ा कि साँख्य दर्शन के पक्ष में बहुत से प्रभावशाली तर्क हैं। मैं ने पहले भी कहा था कि मूल साँख्य के बारे में सच्ची प्रामाणिक सामग्री लगभग न के बराबर उपलब्ध है। सांख्य के संबंध में केवल दो ग्रंथ हमें मिलते हैं, जिन में एक 'साँख्य कारिका' और दूसरा 'साँख्य सूत्र' है। दोनों ही बहुत बाद के ग्रंथ हैं और साँख्य को अपने मूल शुद्ध रूप में प्रतिपादित करते दिखाई नहीं देते हैं। 'साँख्य सूत्र' में तो अनेक स्थान पर वेदांत का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है, कहीं कहीं तो सीधे वेदांत की शब्दावली का ही प्रयोग देखने को मिलता है। 'साँख्य सूत्र' की अपेक्षा 'सांख्य कारिका' अधिक प्राचीन ग्रंथ प्रमाणित होता है और विद्वान इसे ईसा की दूसरी शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के बीच लिखा मानते हैं। इस में भी कुछ ऐसे दार्शनिक मतों का समावेश करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जिन की व्युत्पत्ति वास्तव में वेदांत से हुई थी। इसी कारण से विद्वानों का मानना है कि मूल साँख्य के वर्णन के लिए आलोचनात्मक भाव से 'साँख्य कारिका' पर निर्भर करना गलत है।

अब स्थिति यह बनती है कि मूल साँख्य को कहाँ से तलाशा जाए? एक महत्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ चरक संहिता में भी सांख्य का वर्णन है। महाभारत में कुछ अंश ऐसे हैं जिन में मिथिला नरेश जनक को साँख्य दर्शन का ज्ञान कराए जाने का विवरण है। दास गुप्त ने कहा है कि 'साँख्य का यह विवरण चरक के विवरण से बहुत मेल खाता है, यह तथ्य चरक द्वारा की गई सांख्य की व्याख्या के पक्ष में जाता है।' असल में साँख्य अत्यन्त प्राचीन दर्शन है और आरंभ से ही इस में निरंतर कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहा है। महाभारत में साँख्य और योग को दो सनातन दर्शन कहा गया है जो सभी वेदों के समान थे। इस तरह वहाँ इन्हें वैदिक ज्ञान से पृथक किन्तु वेदों के समान माना गया है। कौटिल्य ने भी केवल तीन दार्शनिक मतों साँख्य, योग और लोकायत का ही उल्लेख किया है। प्रमाणों के आधार पर गार्बे ने साँख्य को प्राचीनतम भारतीय दर्शन घोषित किया। उन्हों ने सिद्ध किया कि साँख्य बौद्ध काल के पूर्व का था, बल्कि बौद्ध दर्शन इसी से विकसित हुआ। अश्वघोष ने स्पष्ट कहा कि बौद्ध मत की व्युत्पत्ति साँख्य दर्शन से हुई। बुद्ध के उपदेशक आडार कालाम और उद्दक (रामपुत्त) साँख्य मत के समर्थक थे। इन सब तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि सांख्य बुद्धकाल के पूर्व का दर्शन था।

ब्रह्मसूत्र के रचियता बादरायण ने वेदांत को स्थापित करने के प्रयास में साँख्य दर्शन का खंडन करने का सतत प्रयत्न किया और इसे वेदान्त दर्शन के लिए सब से बड़ी चुनौती समझा। बादरायण के इस ब्रह्मसूत्र या वेदान्त सूत्र में कुल 555 सूत्र हैं जिस में उपनिषदों के दर्शन को एक सुनियोजित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। दास गुप्त के अनुसार ये सूत्र ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में रचे गए। 555 सूत्रों में से कम से कम 60 सूत्रों में तो प्रधानवाद (साँख्य) का खंडन मौजूद है। इस तरह ब्रह्मसूत्र में जिस साँख्य मत का खंडन करने का प्रयत्न किया गया है उसी से मूल साँख्य के बारे में महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। इस तरह मूल साँख्य के बारे में जानने के लिए विद्वानों ने विशेष रूप से देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने ब्रह्मसूत्र में किए गए इस के खंडन की सहायता लेते हुए महाभारत, चरक संहिता, बाद के उपनिषदों और साँख्य कारिका का अध्ययन करते हुए मूल सांख्य के बारे में जानने का तरीका अपनाया। इस अध्ययन से जो नतीजे सामने आए उन पर हम आगे बात करेंगे।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

साथ, सहारा : तीन दृश्य



दोपहर दो बजे, हम चाय पीकर पान की दुकान पर पहुँचे थे। मैं पान वाले को पान बनाते हुए देख रहा था। पान देतो हुए उस ने हमारे एक साथी को छेड़ा। उधर क्या आँख सेक रहे हैं? पान लो। मैं ने मुड़ कर देखा तो सभी सड़क पर जा रहे एक नौजवान जोड़े की ओर देख रहे थे। नौजवान ने अपनी साथी का हाथ पकड़ा था और दोनों तेजी से चौराहा पार कर उस तरफ जा रहे थे जहाँ उन्हें ऑटो रिक्षा मिल सकता था। उन्हें देखते हुए मेरी नजर एक दूसरे ही दृश्य पर पड़ गई और मैं उसी और निहारता रह गया।

एक पचपन की उम्र की महिला एक पाँच वर्ष के बच्चे का हाथ पकड़े होटल के गेट के बाहर खड़ी थी। शायद बच्चा उसे अंदर ले जाना चाहता था और वह उसे रोक रही थी। बच्चा  जाना चाहता था। फिर वे दोनों होटल की सीमा में प्रवेश कर ओझल हो गए। मैं ,सोचता हुआ उसी ओर शून्य में देखता रहा। तभी एक साथी ने मुझे टोका, -अब वहाँ हवा में क्या देखने लगे?

मैं ने जो देखा था वह उन्हें बताया, और कहा -मैं सोच रहा हूँ कि, सब के सामने होते हुए भी वह दृश्य केवल मैं ही क्यों देख पाया? और क्यों नहीं देख पाए?

तभी वह महिला और बच्चा होटल के बाहर वापस आ गया। शायद बच्चे ने किसी वस्तु को, शायद फूलों को देखा था और उन्हें लेने की जिद कर रहा था। शायद होटल का चौकीदार यह सब समझा और उस ने बच्चे को वह लेने दिया।
मेरे एक साथी ने कहा -जवान स्त्री-पुरुष का सार्वजनिक साथ सब की निगाहों में आता है।
हम ने पान लिए और वापस चल दिए। पीछे देखा तो दो बुजुर्ग वकील होटल से बाहर आ रहे थे, उन में से एक को फालिज़ का शिकार हो जाने से चलने में परेशानी थी, दूसरे उन का हाथ पकड़ कर उन्हें सहारा दे रहे थे।
मैं ने अपने साथियों को एक यह दृश्य भी दिखाया।
मैं ने उन्हें कहा -इन तीनों दृश्यों में कुछ बातें समान थीं। एक दूसरे के हाथों का पकड़े होना और सहारा या संरक्षण।

आप ऐसे अनेक दृश्य मानव जीवन में ही नहीं जन्तु और पादप, समस्त जीव जगत में, और निर्जीव जगत में भी देख सकते हैं। उन दृश्यों में अनेक समानताएँ भी खोजी जा सकती हैं। पर लोगों की निगाहें केवल कुछ ही चीजों को अधिक क्यों देखती हैं?