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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भारतीय समाज में गोत्र व्यवस्था : बेहतर जीवन की ओर-13

मने इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में अमरीकी इंडियन गोत्र व्यवस्था के बारे में जाना। कुछ हजार वर्ष पहले तक पूरी दुनिया में मानव समाज ऐसा ही था। बिना किसी वर्ग के एक सरल सामुहिक जीवन जीता हुआ। एक स्वाभाविक रूप से विकसित समाज जिस में शासक-शासित नहीं थे। भारतीय समाज में आज भी गोत्र व्यवस्था के अवशेष देखने को मिलते हैं। एक ही गोत्र के स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंधों की मनाही का कड़ाई से पालन कुछ वर्ष पहले तक किया जाता रहा है। अधिकांश मामलों में आज भी किया जाता है। अधिकांश भारतीय समाज में ये गोत्र पितृसत्तात्मक हैं। यदि कोई दम्पति निस्सन्तान हो और उन्हें किसी संतान को गोद लेना हो तो यह परंपरा देखने को मिलती है कि किसी सगोत्र बालक-बालिका को ही गोद लिया जाए जिस से संपत्ति किसी अन्य गोत्र में न चली जाए। अनेक गोत्रों से मिल कर बिरादरी बनती है जिसे हमारे यहाँ जाति भी कहा जाता है। 

सलन मैं पारोत्रा ब्राह्मण बिरादरी से हूँ। इस बिरादरी में गोत्रों की संख्या कुल 22 के लगभग है। कोई तीस बरस पहले तक विवाह बिरादरी के भीतर ही किया जा सकता था। यदि कोई इस सीमा का उल्लंघन करता था उसे बिरादरी से बाहर समझा जा कर उस से सभी व्यवहार बंद कर दिए जाते थे। बिरादरी आज भी कुल 5-6 सौ परिवारों की है। जब बच्चे अधिक पढ़ने लगे और गोत्र के बाहर बिरादरी में विवाह योग्य जोड़े बनाने में मुश्किल खड़ी होने लगी तो यह तलाश किया जाने लगा कि हम आखिर इतने कम क्यों हैं, आखिर कोई तो और भी बिरादरी अवश्य होगी जिस से हमारा मूल मिलता होगा। तो अधिकांशतः मध्य प्रदेश के धार और इंदौर जिलों में बसने वाले बाबीसा ब्राह्मण बिरादरी तलाश कर ली गई जिनके गोत्र समान थे। कुछ बैठकों और सम्मेलनों के बाद दोनों बिरादरियों का एक संघ बन गया। मान लिया गया कि दोनों एक ही मूल के हैं। दोनों के बीच बेटी व्यवहार आरंभ हो गया। यदि इस मूल की तलाश करते जाएँ तो बहुत सी छोटी-छोटी बिरादरियों के संघ बनाए जा सकते थे। 

लेकिन जिस रीति से हमारा समाज बदला है। ये बिरादरियाँ वैसे ही नहीं टिकने वाली थीं। पढ़े लिखे लड़के अपने समान पढ़ाई वाली लड़की किसी भी ब्राह्मण बिरादरी से ब्याह कर लाने लगे। बिरादरी इतनी कमजोर हो गई कि वह किसी का बहिष्कार करने में सक्षम नहीं रही। उस ने ऐसे लड़कियों को स्वीकार करना आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे ब्राह्मण कन्या के स्थान पर अन्य कन्याएँ भी बिरादरी में विवाह कर लाई जाने लगीं और बिरादरी कुछ न कर सकी। अब बिरादरी के कायम रहने की एक शर्त यह भी हो गई है कि कोई भी पुरुष किसी भी कन्या को ब्याह लाए उसे बिरादरी में स्थान मिलने लगा। पर ऐसे उदाहरण अभी भी उंगलियों पर ही गिने जा सकते हैं। अभी भी गोत्र और बिरादरी के पुराने मूल्यों का ही अधिकांश लोग निर्वाह करते दिखाई पड़ते हैं। बिरादरी जब मजबूत थी तो दहेज और वैवाहिक खर्चों की सीमाएँ थीं। लेकिन बिरादरी के कमजोर पड़ने से ये दोनों दानव पैर पसारने लगे। लालच की सीमाएँ टूटने लगीं। अब बिरादरी के लोग ही विवाह में ये देखने लगे कि दहेज कितना मिलने वाला है और विवाह कितनी शान से होने वाला है। बिरादरी में पहले सब समान हुआ करते थे। उम्र और विद्वता सम्मान के कारण थे। अब धन उन का स्थान ले रहा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वर्ग भेदों के आने के पहले मानव समाज का जो सुंदर सामाजिक संगठन था, उस  का टूटना अवश्यंभावी था। उस संगठन ने कबीले से आगे कभी विकास नहीं किया। (क्रमशः)

रविवार, 6 नवंबर 2011

कबीलों का महासंघ : बेहतर जीवन की ओर-12

इरोक्वाई
स तरह  कबीलों में संघ बनाने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी। कुछ खास कबीलों ने जो आरंभ में रक्तसंबंधी थे लेकिन अलग हो गए थे फिर से स्थाई एकता बना ली। इस तरह उन्हों ने महासंघ बना कर एक राष्ट्र के गठन की ओर पहला कदम उठाया। अमरीका में इरोक्वा लोगों का महासंघ ऐसे संघ का सब से विकसित रूप था। यह पाँच कबीलों का संघ था। मछली, शिकार में मारे गए जानवरों का मांस और पिछड़े ढंग की बागवानी की उपज इन का भोजन था।  ये लोग बाड़ों से घिरे गाँवों में निवास करते थे।  उन में मिले जुले गोत्र थे और एक ही भाषा की अनेक बोलियाँ बोलते थे। पन्द्रहवीं शताब्दी के आरंभ में अस्तित्व में आए इस महासंघ ने अपनी शक्ति को महसूस करते ही आक्रमणकारी रुख अपना लिया और आसपास के बहुत बड़े इलाके को हथिया लिया। वहाँ के निवासियों को या तो भगा दिया या फिर नजराने देने पर मजबूर कर दिया। वे कभी बर्बर युग की इस निम्नावस्था से आगे नहीं बढ़ पाए। उन के सामाजिक संगठन का सब से उन्नत रूप इरोक्वाई महासंघ ही था। 

स महासंघ में कबीलों को सभी अंदरूनी कबायली मामलों में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त थी। रक्त संबंध महासंघ का आधार था। महासंघ के निकाय के रूप में एक संघ-परिषद होती थी जिस के सदस्य पचास साखेम थे। इन पचासों का पद और प्रतिष्ठा समान थी। महासंघ से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय परिषद करती थी। महासंघ के ये पचास पद कबीलों और गोत्रों में बाँट दिया गया था। जब कोई पद खाली हो जाता था तो संबंधित गोत्र फिर से उस का चुनाव कर लेता था। गोत्र अपने किसी भी प्रतिनिधि को कभी भी हटा सकते थे। लेकिन नए प्रतिनिधि को स्वीकार करने का अधिकार संघ परिषद के पास था। संघीय साखेम कबीलों में भी साखेम थे और उन्हें कबीलों की परिषद में भाग लेने और मत देने का अधिकार था। संघ-परिषद को अपने सभी निर्णय सर्वसम्मति से लेने होते थे। मत कबीलेवार लिए जाते थे, जिस का अर्थ था कि हर कबीले को और हर कबीले के परिषद सदस्य को एकमत होना होता था तभी निर्णय होता था। पाँचों कबीलों की परिषदों में से किसी के भी द्वारा संघ परिषद बुलाई जा सकती थी लेकिन स्वयं संघ परिषद को अपनी बैठक बुलाने का अधिकार नहीं था।  संघ परिषद की बैठक आम जनता के सामने होती थी जिस में किसी को भी बोलने का अधिकार था। लेकिन निर्णय संघ परिषद ही करती थी। महासंघ का कोई अधिकृत मुखिया या प्रमुख नहीं होता था। महासंघ के दो सर्वोच्च युद्धकालीन नेता होते थे, जिन की शक्ति समान और अधिकार भी समान होते थे। 
इरोक्वाई युद्ध नृत्य

स तरह के समाज विधान के अंतर्गत इरोक्वा लोग कई सदियों तक रहते रहे। इस समाज संगठन में राज्य का अस्तित्व नहीं था। उत्तर अमरीकी इंडियनों के सामाजिक अध्ययन से पता लगता है कि यह एक कबीला था जो धीरे-धीरे पूरे महाद्वीप पर फैल गया था। कबीलों के विभाजन के फलस्वरूप जनगण, कबीलों के पूरे समूह बन गए थे। किस प्रकार भाषाएँ इतनी बदल गई थीं कि वे एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे। उन की प्राचीन एकता के चिन्ह लगभग गायब हो गए थे। कबीलों के गोत्र भी अनेक गोत्रों में बँट गए थे। शिशुवत यह सीधा-सादा गोत्र संगठन अत्यन्त विलक्षण था। न सेना, न पुलिस, न सामन्त, न राजा, न गवर्नर, न न्यायाधीश, न अदालतें और न ही जेलखाने थे, तब भी काम बड़े मजे और आराम से चलता रहता था। कोई झगड़ा उठ खड़ा होता था तो अलग अलग गोत्रों और कबीलों के लोग उसे मिल बाँट कर निपटा लेते थे। रक्त-प्रतिशोध की स्थिति भी तभी आती थी जब किसी तरह झगड़ा नहीं निपटता था इस लिए उस की नौबत कम ही आती थी। मृत्यु दंड इसी चीज का सभ्य नाम है जिस में सभ्यता की अच्छाइयाँ भी हैं और बुराइयाँ भी। 
80 फुट लंबा इरोक्वाई घर
स समय आज से कहीं बहुत अधिक मामलों को मिल कर तय करना पड़ता था। कई-कई परिवार एक साथ मिल कर सामुदायिक ढंग से घर चलाते थे। जमीन पूरे कबीले की संपत्ति थी। अलग अलग घरों को केवल छोटे-छोटे बगीचे अस्थाई रूप से मिलते थे। जिन का जिस मामले से संबंध होता था वे ही उस का फैसला कर लेते थे। अधिकतकर मामले तो पुराने रीति रिवाज के अनुसार स्वतः ही निपट जाते थे। सामुदायिक कुटुम्ब गोत्रों को भलीभाँति ज्ञात था कि बूढ़ों, बीमारों और युद्ध में अपंग हुए लोगों के प्रति उन का क्या कर्तव्य है। सब स्वतंत्र और समान थे, स्त्रियाँ भी। वहाँ न दासों के लिए स्थान था और न ही दूसरे कबीलों को अपने अधीन रख पाने की गुंजाइश थी। 1651 के लगभग इरोक्वाइयों ने एरीयों को जीता उन्हों ने महासंघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया तब उन्हें अपने इलाकों से खदेड़ दिया गया। यह समाज कैसे मनुष्य पैदा करता था यह इस से पता लगता है कि जो गोरे लोग इंडियनों के सम्पर्क में आए और जो भ्रष्ट नहीं हुए थे उन्हों ने इन बर्बर लोगों की आत्मगरिमा, सीधे-सरल स्वभाव, चरित्र बल और वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वर्ग भेद उत्पन्न होने के पहले  संपूर्ण मानव जाति और मानव समाज ऐसा ही था। यदि हम उन की हालत की तुलना आज के मनु्ष्य की हालत से करते हैं तो हम वर्तमान मजदूरों,छोटे किसानों और प्राचीन काल के गोत्र के स्वतंत्र सदस्य के बीच गहरी खाई पाते हैं।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

अमंरीकी इंडियन कबीले : बेहतर जीवन की ओर-11

म ने देखा की गोत्र अमरीकी इंडियन जनों में समाज की इकाई के रूप में था। उन से मिल कर बिरादरी बनती थी और अनेक बिरादरियाँ मिल कर एक कबीले का निर्माण करती थी। कई छोटे कबीले सीधे गोत्रों से भी मिल कर बनते थे जिन में बिरादरी जैसी बीच की कड़ी नहीं होती थी। हर कबीले का अपना अलग नाम और इलाका होता था। कबीले की बस्ती के स्थान के अलावा आसपास बहुत विस्तृत क्षेत्र शिकार और मछली पकड़ने के लिए होता था। इस के बाद बहुत विस्तृत तटस्थ भूमि होती थी जो दूसरे कबीले तक चली जाती थी। यदि दो कबीलों की भाषाएँ मिलती जुलती होती थीं तो तटस्थ भूमि  का विस्तार कम होता था। यदि दो कबीलों के बीच भाषाओं के बीच कोई संम्बन्ध नहीं होता तो यह तटस्थ भूमि अधिक विस्तृत होती थी। अस्पष्ट सीमाओं से घिरा यह इलाका कबीले का सामुहिक क्षेत्र होता था जिसे पड़ौसी कबीले भी मानते थे। यदि कोई अन्य इस सीमा में घुसता तो कबीला अपने इलाके की रक्षा करता था। सीमाओं की अस्पष्टता से कठिनाई तभी उत्पन्न होती थी जब आबादी अधिक हो जाती थी। 
र कबीले की अपनी खास बोली होती थी। सच तो यह है कि कबीला और बोली दोनों सारतः समवर्ती शब्द हैं। अमरीका में उपविभाजन से नए कबीले और नई बोलियाँ अभी दो शताब्दी पहले तक बनती रहीं। कबीलों को गोत्रों द्वारा चुने गए साखेमों और युद्धकाल के नेताओं का अभिषेक करने का अधिकार होता था। यहाँ तक वे गोत्रों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें अपदस्थ भी कर सकता था क्यों की वे कबीले की परिषद के सदस्य होते थे। जहाँ कुछ कबीले महासंघ बना लेते थे यह अधिकार कबीलों के प्रतिनिधियों की संघीय परिषद को सौंप दिया जाता था।  हर कबीले की समान धारणाएँ (पौराणिक गाथाएँ) होती थीं। उन्हों ने अपनी धारणाओं को तरह तरह के देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों का रुप दिया हुआ था लेकिन उन्हें कोई आकार देकर मूर्तियाँ नहीं बनाई थीं। यह प्रकृति तथा महाभूतों की पूजा थी जो धीरे-धीरे बहुदेववाद का रूप धारण कर रही थी। उन के नियमित त्यौहार थे जिनमें खासकर नृत्यों और खेलों के माध्यम से पूजा की जाती थी। 
र कबीले की एक कबायली परिषद होती थी। जो कबीलों के आम निर्णय करती थी। इस में सभी गोत्रों के साखेम और युद्धकाल के नेता सम्मिलित होते थे। परिषद की बैठक खुले रूप में होती थी। बीच में परिषद बैठती और आस-पास कबीले के बाकी सदस्य बैठा करते थे। सभी को बहस में हिस्सा लेने और अपनी राय प्रकट करने का अधिकार होता था। फैसला परिषद करती थी। इरोक्वा लोगों में परिषद को अपना फैसला एक मत  से करना होता था।  दूसरे कबीलों के साथ संबंध रखने का काम कबायली परिषद करती थी। वह दूसरे कबीलों के दूतों का स्वागत करती थी और उन के पास अपने दूत भेजती थी। वह युद्ध की घोषणा और शांति-संधि करती थी। युद्ध छिड़ जाने पर लड़ने के लिए आम तौर पर वे ही भेजे जाते थे जो स्वेच्छा से तैयार होते थे।  एक कबीलों की उन कबीलों से युद्ध की स्थिति होती थी जिन से कोई शांति संधि नहीं होती थी। ऐसे शत्रुओं के खिलाफ कुछ विशिष्ठ योद्धा सैनिक अभियान संगठित करते थे।  युद्ध नृत्य आयोजित होता था, जो कोई नृत्य में शामिल हो जाता था समझा जाता था कि वह युद्ध में जाने को तैयार है। तुरंत टुकड़ी तैयार कर अभिायान के लिए भेजी जाती थी। कबायली इलाके पर कोई हमला होता था तो स्वयं सेवक ही उस की रक्षा करते थे। ऐसे दस्तों के कूच करने और लौटने पर उत्सव आयोजित किए जाते थे। ऐसे अभियानों के लिए परिषद की इजाजत लेना जरूरी नहीं था और परिषद उस की इजाजत देती भी नहीं थी। 
कुछ कबीलों में एक प्रधान मुखिया भी होता था। लेकिन उसे बहुत कम अधिकार प्राप्त थे। वह साखेमों में से एक होता था। जब कोई तुरंत निर्णय करने वाली समस्या उठ खड़ी होती थी तो प्रधान मुखिया फैसला कर देता था जो कबायली परिषद द्वारा अंतिम फैसला करने तक लागू रहता था। अमरीकी इंडियन कभी कबायली व्यवस्था से आगे नहीं बढ़ सके। थोड़े थोड़े लोगों के अनेक कबीले जिन के बीच बड़े बड़े सीमान्त प्रदेश होते थे एक दूसरे से कटे हुए रहते थे। उन में सदा लड़ाइयाँ चलती रहती थीं। जिस का परिणाम यह था कि थोड़े से लोग बहुत विशाल इलाके में फैले हुए थे। कहीं कोई अस्थाई संकट आ जाता था तो रक्त-संबंधी कबीलों में सहयोग हो जाता था पर संकट दूर होते ही यह मोर्चा फिर से बिखर जाता था। कुछ खास इलाकों में कबीलों ने स्थाई संघ बना कर अपनी एकता कायम कर ली। (क्रमशः)