@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अवकाश
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रविवार, 26 सितंबर 2010

घर और दफ्तर बदलने की गैर हाजरी

पूरे एक सप्ताह अंतर्जाल से संपर्क नहीं रहा। नया मकान बनाने की प्रक्रिया प्रारंभिक दौर में है। जहाँ मकान बनना है उस के पास ही अपने मित्र के बिलकुल नए मकान को अपने रहने और कार्यालय के लिए ले लिया है और पिछले रविवार को यहाँ आ गया हूँ। मकान को खाली करना, सारा सामान ले कर नए मकान में आना, अपने आप में बहुत जटिल काम है। एक सप्ताह पहले से सामानों की करीने से बांधना शुरु हुआ। नए मकान में आ कर सब को खोलना और उन के लिए उचित स्थान तलाश कर जमाना और रहने योग्य बनाना। इसी में लगा रहा। अभी कार्यालय पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो सका है। लगता है इस काम में पूरा महीना लग जाएगा।नए मकान की स्थिति ऐसी है कि वहाँ से अदालत, नगर के मु्ख्य बाजार बस स्टेंड दो किलोमीटर की परिधि में हैं, और रेलवे स्टेशन 5 किलोमीटर। आकाशवाणी केंद्र, कला दीर्घा, छत्रविलास बाग और तालाब एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर।
पना बेसिक टेलीफोन नए मकान में लगाने के लिए पिछले शनिवार को आवेदन किया था। सोमवार को भारत दूर संचार निगम के अपने मित्रों को संपर्क किया तो उन्हों ने बताया कि तंत्र को आधुनिक किया जा रहा है, प्रणाली में नए सोफ्टवेयर आए हैं। लेकिन अभी उन के साथ काम करने में बहुत जटिलताएँ हैं। इस लिए एक सप्ताह लग सकता है। टेलीफोन संयोजन ठीक से लगे और काम करने लगे इस के लिए संचार निगम के कम से कम पाँच मित्र प्रयासरत रहे। तब जा कर कल शनिवार शाम अंतर्जाल आरंभ हो सका। एक सप्ताह इस विश्वग्राम से अलग रह कर वापस लौटा हूँ। इस बीच हिन्दी ब्लाग दुनिया में बहुत कुछ लिखा गया है और घटित हुआ है। रोजमर्रा के वकालत के तमाम कामों के साथ घर और दफ्तर को ठीक से आकार लेने में समय लगेगा। शायद पूरा माह लगे। फिर इस मकान में भी घर और दफ्तर छह-आठ माह से अधिक नहीं रहना है। यह सोच कर अनेक वस्तुओं को अपने बंधन में ही बंधे रहने को बाध्य रहना होगा। अंतर्जाल ने चालू होते ही दुखद समाचार दिया कि कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे। मेरा उन से केवल एक बार मिलना हुआ। मेरे गुरुजी अशोक शुक्ल ने उन्हें एक कविसम्मेलन में बाराँ बुलाया था। वे अच्छे कवि थे, विवादों से बहुत दूर। एक अच्छे संपादक भी जिन्हों ने अपने  प्रकाशक-नियोजकों और लेखकों को एक साथ संतुष्टि दी। नियोजकों के लिए वे संकटहरन भी सिद्ध हुए। विशेष रुप से तब जब टाइम्स समूह ने कमलेश्वर को हटा कर सारिका का सम्पादन उन्हें सौंपा। नंदन जी को आत्मीय श्रद्धांजलि। आज दिल्ली में उन की अंत्येष्टि है। बहुत लोग उस में हाजिर होंगे। लेकिन इस से इरफान भाई के व्यंग्य-चित्रों की प्रदर्शनी के उदघाटन समारोह में कुछ लोगों की उपस्थिति  प्रभावित हो सकती है। 
रफान भाई की प्रदर्शनी के चित्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस समय में राजनीति और सामाजिक व्यवहारों पर सब से तीखे व्यंग्य करते हैं। उन की प्रदर्शनी प्रेस क्लब दिल्ली में अगले दस दिनों तक रहेगी। दिल्ली वालों को और इस बीच दिल्ली आने वालों को यह प्रदर्शनी अवश्य देखनी चाहिए। मैं आवास-कार्यालय बदलने के कारण उत्पन्न व्यस्तता के कारण शायद यह प्रदर्शनी नहीं देख सकूँ। इरफान भाई को इस प्रदर्शनी की सफलता के लिए शुभकामनाएँ!!!
पुराने मोबाइल से सूर्योदय तुरंत पहले  नए घर से कुछ चित्र लिए हैं। यहाँ पेश-ए-नजर हैं। 

ऊषा

मकान के ठीक पूर्व में स्थित मैरिज गार्डन

उषा से आलोकित
मैरिज गार्डन

सविता

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

एक राजनेता की मौत

हामहिम के देहांत का समाचार मिलने पर बहुत लोगों को शॉक (झटका) लगा था। वे अभी तीन माह पहले ही तो राज्य की राज्यपाल बनाए गए थे। उस समय किसी ने यह थोड़े ही सोचा था कि वे इतनी जल्दी विदा ले जाएँगे, और वे भी इस तरह पद पर बने रहते हुए। पर यह तो होता ही है, जो आता है वह जाता है। वैसे अभी उन की उम्र ही क्या थी? मात्र पिचहत्तर साल और डेढ़ माह से कुछ ऊपर। यह भी कोई इस दुनिया से विदा लेने की उम्र होती है। लोग तो 90 वर्ष की उम्र के बाद भी राजकीय पदों पर काम करते रहते हैं।  पर शायद उन का शरीर राजनीति में काम करते हुए बहुत थक गया था, या फिर वे शरीर से भारी थे कि दिल साथ न दे पाया। हो सकता है दिल को खून पहुँचाने वाली धमनियों में इतनी चर्बी जमा हो गई हो कि दिल को रक्त पहुँचना ही बंद हो गया और वह जवाब दे गया। सब से बड़े सरकारी अस्पताल तक पहुँचाए जाने के पहले वे अपने प्रसाधन कक्ष (टॉयलट) में अचेत पाए गए थे। चिकित्सकों ने अच्छी तरह जाँच कर ही घोषणा की कि वे अब हम से सदा के लिए विदा ले जा चुके हैं। 
न की मृत्यु से बहुत से लोगों को प्रसन्नता प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।  ये तमाम लोग या तो राज के  या फिर वित्तीय संस्थाओं के कर्मचारी थे। ऐसा भी नहीं कि उन्हें ऐसा सुअवसर मुश्किल से ही प्राप्त होता हो।  जब भी किसी बड़े राजनेता की मृत्यु होती उन्हें ऐसा अवसर मिलता ही रहता था। सही भी है कि आप के पास बहुत से काम करने को हों। उन के कारण आप तनाव में डूबे हों। घर से पत्नी जी का फोन आया हो कि घंटे भर बाद आप के साले साहब अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ एक सप्ताह के लिए आ रहे हैं और आप को उन्हें लेने स्टेशन जाना है। तब अचानक यह समाचार मिले कि अवकाश हो गया है और अब दो दिन आप को कोई काम नहीं करना है, तो तनाव ऐसे गायब होगा ही, जैसे गधे के सिर से सींग। ऐसे में प्रसन्न होना अस्वाभाविक थोड़े ही है। ऐसे में प्रसन्नता ऐसे फूट पड़ती है जैसे रेगिस्तान में अचानक ठंडे और मीठे पानी के सोते फूट पड़े हों। राजनेता की मृत्यु से लगे शॉक के लिए यह अवकाश शॉक ऑब्जर्वर बन जाता है और दूसरे कई शॉक झेल जाता है।

प्रसन्न होने वाले ऐसे अनगिन लोगों के बीच बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्हें वाकई शॉक लगा था और फिर उस में डूब गए थे। ये वे लोग थे जो पहले ही किसी न किसी शोक में कांधे तक डूबे हुए थे। अवकाश की घोषणा ने उन के लिए शॉक ऑब्जर्वर के स्थान पर उलटा झटका देने का काम किया था। इन में एक तो बिलासी था। वह कंपनी की नौकरी में था और कंपनी के क्वार्टर में रहता था। नौकरी छूटी तो टाइपिंग की दुकान लगा  ली , जैसे तैसे घर चलाने लगा। पुश्तैनी मकान में पिताजी अपने जीते जी ही  किराएदार रख गए थे। कंपनी बंद हो गई। कंपनी ने मकान खाली करने का नोटिस दे दिया। उस ने किराएदार से मकान खाली करने को कहा तो किराएदार ने इन्कार कर दिया। बिलासी को घर का मकान होते हुए किराए के मकान में जाना पड़ा। मकान खाली कराने का मुकदमा किया उस की आखिरी पेशी थी, जज साहब बहस सुन कर फैसला देने वाले थे। अचानक अवकाश से बहस मुल्तवी हो गई। उसे जो शॉक लगा है उस से वह संभल नहीं पा रहा है।
धर एक महिला राशन कार्ड बनवाने की लाइन में खड़ी थी। राशनकार्ड न होने से उसे राशन का सस्ता आटा नहीं मिल रहा। मर्द दूसरे शहर में मजदूरी पर है। इधर तीन बच्चे हैं और वह है। सुबह कागज तैयार करवाने में चालीस रुपए खर्च हुए, कारपोरेटर के दस्तखत करवाने के लिए भटकने में तीस रुपए टूट गए। लाइन में बस चार आदमी और रह गए थे, उन के बाद पाँचवाँ नम्बर उसी का था कि खटाक से खिड़की बंद हो गई। सब के सब भोंचक्के रह गए। अभी तो लंच होने में भी सवा घंटा शेष है। पूछा तो पता लगा कि राज्यपाल का देहान्त हो गया है। तुरंत छुट्टी कर देने का हुकम फैक्स से आया है। कल भी छुट्टी रहेगी। परसों आइए। बेचारी औरत कह रही थी -बस आज आज का आटा खरीद कर घर पर रख कर आई हूँ। सोचा था आज राशनकार्ड मिल जाएगा तो कल राशन की दुकान से आटा खरीद लूंगी। अब बाजार से दो गुना कीमत का आटा खरीदना पड़ेगा। वह अपने खुदा को कोस रही थी कि उसे भी राज्यपाल को अपने घर बुलाने को यही वक्त मिला था. एक दिन ... क्या आधा घंटा और नहीं रुक सकता था कि उसे कम से कम राशनकार्ड तो मिल जाता।
घंटे भर में सारे सरकारी दफ्तर, सारी अदालतें बंद हो गईं। मुवक्किल जिन के काम अटके थे अपना मुहँ मसोस कर चल दिए। वकीलों के मुंशियों ने अपने अपने बस्ते बांधे और साइकिलों व बाइकों पर लाद दिए।  ज्यादातर वकील अदालत से चल दिए। कुछ अब भी वकालत खाने में ताश और शतरंज खेलने में मशगूल थे। ये वे थे जो वकील तो थे पर जिन के घर वकालत से नहीं बल्कि मकानों दुकानों के किरायों और उधार पर उठाई हुई रकम से चलते थे। इन्हें आधे दिन के अवकाश से तो कोई समस्या नहीं हुई थी। वे शाम पाँच बजे के पहले ताश और शतरंज छोड़ कर जाने वाले नहीं थे। पर अगले दिन के अवकाश से जरुर परेशान थे। सोच रहे थे कि कल का दिन कैसे बिताएँगे? ताश और शतरंज के लिए कौन सी जगह तलाशी जाएगी। गर्मी का मौसम न होता तो किसी पिकनिक स्पॉट पर चले जाते। गर्मी में तो वहाँ भी दिन बिताना भारी पड़ता है।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

राजकीय शोक और अचानक अवकाश की प्रसन्नता

ज डायरी में मुकदमे अधिक न थे, लेकिन जितने थे वे सभी समय खपाऊ थे। चार मुकदमों में अंतिम बहस थी और चारों अलग अलग अदालतों में थे। एक मकान मालिक की ओर से किराएदार से मकान खाली कराने का था। दूसरा एक डाक्टर द्वारा बिना मरीज की अनुमति प्राप्त किए और उसे प्रक्रिया और परिणाम बताए बिना ऐंजियोप्लास्टी कर देने का उपभोक्ता विवाद था। तीसरा मजदूर की काम के दौरान दुर्घटना की मृत्यु के कारण मुआवजे का और चौथा एक नौकरी से निकालने का। सुबह साढ़े सात पर अदालत पहुँचा तो वहाँ केवल चार वकील और मिले जब कि पैंतीस अदालतें बाकायदा खुल चुकी थीं और काम चल रहा था। वकीलों के न पहुँचने के कारण वे अपने दूसरे काम निपटा रही थीं। वकीलों के बैठने वाले इलाके में अभी झाड़ू निकाला जा रहा था। मैं अपने मुवक्किल के साथ अदालत पहुँच गया। दूसरे पक्ष के वकील अभी पहुँचे नहीं थे। इंतजार के बाद तकरीबन पौने नौ बजे बहस आरंभ हुई और दस बजते बजते मैं ने उसे समाप्त कर दिया। प्रतिपक्ष की बहस के लिए कल की तिथि दे दी गई। 
क और अदालत में प्रतिपक्ष का वकील ठीक से तैयार नहीं था, उस में तिथि बदल गई। एक अदालत में अभी जज साहब चैंबर में थे तो मैं चौथी में जा पहुँचा। वहाँ अधिकारी अवकाश पर थे। आखिर डेढ़ बजे मुझे एक जज ने मुकदमे में बहस सुनाने के लिए चैम्बर में ही बुलवा लिया। मैं ने बहस सुना दी। प्रतिपक्षी की बहस फिर अधूरी रह गई। इस बीच किसी ने खबर दी कि राजस्थान की राज्यपाल का देहांत हो गया है। जज साहब ने तुरंत ही शोक जाहिर किया और घर फोन लगा कर अपने बेटे को निर्देश दिया कि वह ई-टीवी राजस्थान पर खबर सुन कर तफसील बताए। फिर कहने लगे कि -अब कल का तो अवकाश हो ही जाएगा। परसों फिर शोकसभा के कारण काम स्थगित रहेगा। आधा दिन आज का गया ही समझो। कुल मिला कर ढाई दिन का अवकाश हो गया। अवकाश से वे बहुत राहत महसूस कर रहे थे। 

कुछ देर बाद उन्हों ने फिर घर फोन लगाया तब तक यह कन्फर्म हो चुका था कि आज का आधे दिन का और कल का पूरे दिन का अवकाश घोषित हो चुका है। उन्हों ने तुरंत अपने एक रिश्तेदार को फोन लगा कर बताया कि वह कल का अवकाश न ले और वैसे ही अवकाश घोषित हो चुका है। उसे अवकाश ले कर कहीं जाना था। जज साहब ने तुंरत रीडर को हुक्म दिया कि अब तक जो आदेशिकाएँ लिखी जा चुकी हैं उन में उन के हस्ताक्षर करवा लिए जाएँ, जिस से वे तुरंत घऱ जा सकें। शेष फाइलों में नोट लगा दिया जाए कि राज्यपाल के निधन के कारण अवकाश घोषित हो जाने से काम नहीं हो सका। उन फाइलों में अदालत खुलने वाले दिन हस्ताक्षर कर दिए जाएँगे। हस्ताक्षर कर के जज साहब ने अदालत छोड़ दी। रीडर शेष फाइलों में आदेशिका लिखने लगा। वह कहता जा रहा था कि अवकाश तो अफसरों का हुआ है। उन्हें तो उतनी ही फाइलें लिखनी पड़ेंगी जितनी रोज लिखनी पड़ती थीं। 

मैं ने तीन बजे बाद अदालत छोडी। बैंक में लेनदेन बंद हो चुका था इस लिए कैश नहीं निकलवा सका। सोचा कल निकलवा लिया जाएगा। (मैं अभी तक एटीएम प्रयोग नहीं करता) घर पहुँचते ही एक इंश्योरेंस कंपनी से फोन आया कि किसी जरूरी मामले पर विमर्श करना है। मैं घंटे भर बाद ही वहाँ के लिए रवाना हो गया। काम की बात के अलावा वहाँ भी इस बात का चर्चा था कि क्या वहाँ भी कल अवकाश रहेगा। एक कर्मचारी कह रहा था कि पिछले राज्यपाल के निधन पर तो अवकाश रहा था। इस बार भी निगोशिएबुल इंस्ट्रूमेंट एक्ट में अवकाश होना चाहिए। मैं ने कहा शायद न हो, पहले वाले राज्यपाल निगोशिएबुल रहे हों और ये वाले न रहे हों।
खैर वहाँ से निकलकर शाम साढ़े छह घर पहुँचा तो वहाँ एक बैंक वाले मौजूद थे। उन्हों ने बताया कि उन के यहाँ भी अवकाश घोषित हो चुका है। जितने भी अफसर और कर्मचारी थे अचानक अवकाश का एक दिन मिल जाने से प्रसन्न थे। उन्हें राजकीय शोक रास आ रहा था।

मैं सुबह पौने पाँच पर सो कर उठा था। दिन भर काम करने पर थक चुका था। आज दिन में भी विश्राम नहीं मिला था। मुझे भी अच्छा लग रहा था कि कल का अवकाश हो चुका है वर्ना किराएदारी वाले मुकदमे के कारण कल फिर पौने पाँच उठ कर साढ़े सात तक अदालत पहुँचना पड़ता। मैं यह भी सोच रहा था कि इस मुकदमे में मकान मालिक कितना अभागा है कि आधी बहस के बाद मुकदमे में फिर अवकाश की अड़चन आ गई। परसों भी शोकसभा के कारण काम नहीं हो सकेगा। उस के बाद के दिन मुकदमा रखवाना पड़ेगा और इस के लिए बुध को फिर जल्दी जाना पड़ेगा। इस बीच यदि जज का ट्रांसफर आदेश आ गया तो..... गई भैंस पानी में।