@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: 26:10 की धनतेरस

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

26:10 की धनतेरस


ज सुबह सो कर उठा तब तक उत्तमार्ध सारे घर की धुलाई कर चुकी थी, बस अंतिम चरण चल रहा था। कहने लगीं –कार घर से बाहर निकाल दो तो वहाँ भी धुलाई हो जाए। मैं कार को घर के बाहर खड़ी कर वापस घर में घुसा ही था कि दूध वाला दूध देने आ गया। मुझे गीले फर्श पर चल कर दूध लेने जाना पड़ता इसलिए बरतन उत्तमार्ध ने ले लिया। वह किचन तक पहुँचती कि ढोल वाला आ कर दरवाजे के बाहर आ कर ढोल बजाने लगा। यह आज के दिन का आरंभ था। आज धनतेरस है न, तो अखबार और दिनों से दुगना भारी है। 16 के स्थान पर 36 पृष्ठ, बीस पृष्ठ की रद्दी बेशी। लेकिन उन में से 23 के प्रत्यक्ष विज्ञापन हैं, बचे 13, उन में से भी तीन पृष्ठ की सामग्री केवल विक्रेताओं के लिए ग्राहकों को लुभाने वाली है। सीधा सीधा गणित है 26:10 के अनुपात का। यानी 10 का माल 36 में बेचो 26 का मुनाफा कमाओ। ऐसा सब के साथ हो जाए तो दुनिया की धनतेरस चंगी हो जाए। पर ऐसा होता नहीं है। जब 36 में 10 का माल मिलेगा तो सीधे-सीधे खरीददार को 72.22 परसेंट का नुकसान तो होना ही होना है। तैयार हो कर घर से निकलने लगे तो उत्तमार्ध जी ने पूछा –आज क्या खरीदोगे? मैं ने उन्हें ऊपर वाला गणित समझाया और कहा कि यदि धनतेरस करनी है तो आज बाजार से कुछ मत खरीदो। वर्ना दीवाली वाले दिन लक्ष्मी जी घर के बाहर से मुस्कुरा कर निकल जाएंगी। कहेंगी साल में जब वाहन बदलना होगा तो इस घर को याद रखेंगे।

र उन्हें इस तरह टालना संभव नहीं था। आठ बरस से जो मेरे दफ्तर में बैठने की टीकवुड की जो कुर्सी अपनी सेवाएँ दे रही थी, दो माह पहले उस की एक कील निकल गई थी, वह भी इस तरह कि वर्कशॉप जाए बिना उस का दुरुस्त होना संभव नहीं था। दूसरी साइड की कील आखिर कब तक अकेले दबाव बर्दाश्त करती दो दिन पहले वह भी निकल गई। दीवाली सिर पर थी, न तो कोई बढ़ई उसे दुरुस्त करने घर आने को तैयार था और न ही किसी वर्कशॉप को इतनी फुरसत की ये अड़गम-बड़गम काम करे। सब के सब दीवाली पर ग्राहकों को चेपे जाने वाले माल पर रंगरोगन में लगे थे। मैं भी उस बीमार कुर्सी को इस्तेमाल करता रहा। नतीजा ये हुआ कि परसों रात को जब मैं प्रिंटर में कागज लोड करने को एक तरफ झुका तो कुर्सी टू-पीस हो गई। उस ने मुजे जमीन पर ला दिया। आखिर उस वीआईपी कुर्सी के ध्वंसावशेषों को दफ्तर से हटाना पड़ा और एक विजिटर कुर्सी को अपने लिए रखना पड़ा। मैं ने उत्तमार्ध को बोला –कल बाजार में कुर्सियाँ देख कर आया हूँ, पर लाया नहीं। आज ले आउंगा। जरूरत भी पूरी हो जाएगी और धनतेरस का शगुन भी हो जाएगा। उत्तमार्ध के माथे पर पड़ रही सिलवटें कुछ कम हो गईं। मुझे भी चैन आ गया कि अब कम से कम घर में गड़बड़ होने की कोई संभावना नहीं है।

दालत जाते हुए बाबूलाल की दुकान पर पान खाने रुका तो मुझे देखते ही उस ने धनतेरस की शुभकामनाएँ ठोक मारीं। अब जवाब देना तो बनता था न। तो उत्तर में उसे कहा –बाबूलाल जी अपनी काहे की धनतेरस, धनतेरस तो बाजार की है। धनतेरस तो उन की है जो दुकाने सजाए बैठे हैं। मैं ने बाबूलाल को अखबार वाले का 26:10 के अनुपात का गणित समझाया। तब तक वह ‘हूँ कारे’ देता रहा। जब भी वह हूँ कारा देता मुझे, मोदी की पटना रैली याद आ जाती। मैं ने बाबूलाल जी को बोला –भाई¡ अपनी तो पूरे साल 365 दिन चौबीसों घंटे आप के लिए यही शुभकामनाएँ हैं कि आप की दुकान भन्नाट चलती रहे। आप को भी दाल-रोटी, खीर-पूरी मिलती रहे और हमें भी क्वालिटी वाला पान मिलता रहे। वर्ना आज कल तो पान की दुकानें महज गुटकों की दूकानें बन कर रह गई हैं। तब तक एक और ग्राहक जो अब तक अखबार में चेहरा छुपाए हुए था बोल पड़ा –वकील साहब, आप ठीक कह रहे हो। 23 तेईस पेज का मतलब तेईस लाख का धंधा तो अखबार वाले ने कर ही लिया है। मैं चौंका, ये मुझ से बड़ी गणित वाला कौन पान का ग्राहक निकल आया? पता किया तो वह इंटरनेशनल कूरियर वाला था।

दालत पहुँचा तो देखा जहाँ पार्किंग के लिए जगह तलाशनी पड़ती थी, वहाँ आज मैदान खाली है, कार कहीं पार्क कर दो। अपनी बैठने की जगह जा कर पता लगा कि बार एसोसिएशन ने आज धनतेरस के त्यौहार के कारण काम बंद कर दिया है। एक मुवक्किल से फीस आने की उम्मीद थी, उस के बारे में पूछा तो मुंशी जी ने बताया कि वह तो तारीख ले कर चला गया। अब अपनी धनतेरस की कमाई वाली रही सही उम्मीद भी जाती रही। मैं ने मुंशी जी को बोला बाकी के मुकदमों भी तारीख ही बदलनी है तो बदलवा दो तो वापस घर चलें।  कुल मिला कर एक घंटे में काम निपट गया। वापसी में दो दिन पहले मिला फीस का एक चैक बैंक में जमा करवा कर अपनी धनतेरस का शगुन किया। एक परिचित फर्नीचर वाले के यहाँ से नई कुर्सी खऱीद कर कार में रखवाई। कल पूछताझ करने का लाभ ये रहा कि परिचित ने कुर्सी की कीमत सौ रुपए कम ली।

ब दोपहर बाद से घर पर हूँ। अदालत से पेशी ले कर खिसक जाने वाले मुवक्किल का फोन आया था। मैं ने उसे उलाहना दिया –बिना हमारी धनतेरस कराए निकल लिए। वह मेरी बात पर बहुत हँसा। बिजली वाला कल शाम छत की मुंडेरों पर रोशनियाँ लगा गया था। उन्हें चैक कर आया हूँ। सात सिरीजें लगा गया है कुल 340 बल्ब हैं। मैं हिसाब लगा रहा हूँ कि वह कितने का बिल देगा। दीवाली पर बच्चों को इस बार छुट्टियाँ नहीं मिली हैं। शनिवार-रविवार की छुट्टियों में दीवाली निकल ली है। नौकरियों वालों कि इस साल ज्यादातर छुट्टियाँ शनिवार-रविवार खा गए। सब दुखी हैं, कहते हैं ये साल एम्प्लाइज का नहीं एम्प्लायरों का निकला। फिर भी बच्चे अपनी सीएल, ईएल ले कर दो-चार रोज के लिए घर आ रहे हैं। जो ठीक दीवाली के दिन सुबह पहुँचेंगे। असली दीवाली तो तभी शुरु होगी जब वे घर पहुँच लेंगे। शाम होने को है। उत्तमार्ध जी धनतेरस पर हरी साग के लिए बाहर बैठी मैथी साफ कर रही थी, अब उसे ले कर रसोई में जा चुकी हैं। मैं डर रहा हूँ कि वे जल्दी रसोई से छूट गई तो फिर से धनतेरस पर कुछ खरीदने की बात उन्हें याद न आ आ जाए। अब तो 26:10 के अनुपात का किस्सा भी उन पर कोई असर न करेगा।

3 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

धनतेरस से ही दीवाला शुरू

Satish Saxena ने कहा…

इसे पढ़ो आज ही लिखी है
पड़ोसियों पर रौब मारने,घर से बाहर निकली हैं !
अपने प्यारे लल्लू ले, महिलायें बाहर निकली हैं !

आज खरींदे, सोना चांदी,धन की वारिश होनी है !
अपने अपने उल्लू ले , महिलायें बाहर निकलीं हैं !

पूंछ हिलाते देख इन्ही को, कुत्ते बस्ती छोड़ गए !
कैसे कैसे पिल्लू ले , महिलायें बाहर निकली हैं !

कितने लोग आज भी ऐसे , जो बंधने को बैठे हैं !
बड़े मनोहर पल्लू ले, महिलायें बाहर निकली हैं !

जीवन इनका,ताश के पत्ते बिना दिखाए बीता है
गोरे रंग का कल्लू ले,महिलायें बाहर निकली हैं !

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

क्या बात है सतीश भाई!