@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नवंबर 2011

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

लालच, विकास की मूल प्रेरणा : बेहतर जीवन की ओर-15

ब तक हम ने देखा कि मनुष्य का जीवन बेहतर तभी हो सकता था जब कि उसे पर्याप्त भोजन, आवास और वस्त्र मिल सकें। प्रकृति में शारीरिक रुप से अत्यन्त कमजोर प्राणी को ये सब आसानी से प्राप्त होने वाली नहीं थीं। अपने प्राणों की रक्षा के लिए किए गए श्रम ने ही उसे वानर से मनुष्य बनाया था। इसी श्रम ने उस के मस्तिष्क को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक विकसित किया। वह औजारों का निर्माण और उपयोग करने लगा और धीरे धीरे पशुपालन के साथ ही उस ने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ सीधे प्रकृति से प्राप्त करने के स्थान पर उन का उत्पादन करना आरंभ किया और कालान्तर में उत्पादन का विकास भी। उत्पादन के विकास के आरंभिक चरण में ही उस की श्रम शक्ति इस योग्य बन गई थी कि वह जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक से काफी अधिक पैदा करने लगा था। इसी अवस्था में श्रम-विभाजन और व्यक्तियों के बीच उत्पादन के विनिमय का आरंभ हुआ। लेकिन कुछ समय बाद ही उस ने मनुष्य को दास बना कर यह आविष्कार भी कर लिया कि मनुष्य स्वयं भी माल हो सकता है और उस का विनिमय भी किया जा सकता है। विनिमय के प्रारंभिक चरण में ही मनुष्यों का भी विनिमय आरंभ हो गया। यह मनुष्य समाज का शोषित और शोषक वर्गों में पहला बड़ा विभाजन था। दास-प्रथा के रूप में शोषण का यह रूप मध्ययुग में भूदास-प्रथा  और आज उजरती श्रम की प्रथाओं में परिवर्तित हो चुका है। 

भ्यता का युग माल उत्पादन की जिस स्थिति में आरंभ हुआ था उस में धातु की मुद्रा का प्रयोग होने लगा था और मुद्रा, पूंजी, सूद और सूदखोरी का चलन हो गया। उत्पादकों के बीच बिचौलिए व्यापारी आ खड़े हुए। भूमि पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया और रहन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया। दास श्रम उत्पादन का मुख्य रूप हो गया। इसी के साथ परिवार का रूप भी बदला वह एकनिष्ठ परिवार में परिवर्तित हो गया जिस में स्त्री पर पुरुष का प्रभुत्व स्थापित हुआ और प्रत्येक परिवार समाज की एक आर्थिक इकाई हो गया। समाज को जोड़ने वाली शक्ति के रूप में राज्य सामने आया जो वस्तुतः केवल शासक वर्ग का राज्य होता है और जो मूल रूप से उत्पीड़ित शोषित वर्गों को दबा कर रखने के का एक औजार मात्र है। सामाजिक श्रम विभाजन के रूप में नगर और गाँवों में स्थाई रूप से विरोध स्थापित हो गया। दूसरी ओर वसीयत की प्रथा आ गई जिस के माध्यम से सम्पत्ति का स्वामी अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी संपत्ति का इच्छानुसार निपटारा कर सकता है। य़ह प्रथा पुराने गोत्र समाज के पूरी तरह प्रतिकूल थी जिस में संपत्ति गोत्र के बाहर नहीं जा सकती थी। 

न तमाम प्रथाओं की सहायता से सभ्यता ने वे सभी महान कार्य कर दिखाए जो गोत्र समाज की सामर्थ्य में नहीं थे। लेकिन ये सब काम उस ने मनुष्य की सब से निम्न कोटि की मनोवृत्तियों और आवेगों को उभारते हुए तथा उस की तमाम अन्य क्षमताओं को हानि पहुँचाते हुए किए। सभ्यता के उदय से आज तक लालच ही उस के मूल में रहा है। बस धन अर्जित करना, और अधिक धन अर्जित करना जितना अधिक किया जा सके उतना धन अर्जित करना। लेकिन स्थाई मनुष्य समाज का धन नहीं, एक अकेले व्यक्ति का धन। उस व्यक्ति का धन जिस का जीवन केवल कुछ दिनों, कुछ महिनों या कुछ सालों का है। बस यही सभ्यता का एक मात्र निर्णायक उद्देश्य हो गया। यदि इस के साथ विज्ञान का विकास भी होता रहा और समय समय पर कला के उच्च विकसित युग भी आते रहे तो मात्र इस लिए कि  धन इकट्ठा करने में जो सफलताएँ प्राप्त हुई हैं वे सब विज्ञान और कला की इन उपलब्धियों के बिना प्राप्त करना संभव नहीं था।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

संयोग, अंधनियम और तूफान : बेहतर जीवन की ओर-14

म तौर पर राज्य को आज मनुष्य समाज के लिए आवश्यक माना जाता है और उस के बारे में यह समझ बनाई हुई है कि वह मनुष्य समाज में सदैव से विद्यमान था। लेकिन हम ने पिछली कुछ कड़ियों में जाना कि यह हमेशा से नहीं था। ऐसे समाज भी हुए जिन में राज्य नहीं था, उन्हों ने उस के बिना भी अपना काम चलाया। ऐसे समाजों को राज्य और राज्यसत्ता का कोई ज्ञान नहीं था। आर्थिक विकास और श्रम विभाजन की एक अवस्था में जब अतिरिक्त उत्पादन होने लगा और उस का विपणन होने लगा तो नगर विकसित हुए। इन नगरों में केवल एक गोत्र, बिरादरी या कबीले के लोग नहीं रह गए थे। वहाँ अनेक लोग ऐसे भी आ गए जो इन से अलग थे। वैसी अवस्था में उत्पन्न वर्गों और उन के बीच के संघर्ष को रोकने के लिए राज्य की अनिवार्य रूप से उत्पत्ति हुई। राज्य की उत्पत्ति से ही वर्तमान इतिहास सभ्यता के युग का आरंभ भी मानता है। इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सभ्यता समाज के विकास की ऐसी अवस्था है जिस में श्रम विभाजन, उस के परिणाम स्वरूप होने वाला उत्पादों का विनिमय और इन दोनों चीजों को मिलाने वाला माल उत्पादन जब अपने चरम पर पहुँच जाते हैं तो वे पूरे समाज को क्रांतिकारी रुप से बदल डालते हैं। 
भ्यता के पहले समाज की सभी अवस्थाओं में उत्पादन मूलभूत रूप से सामुहिक था और उसे इसीलिए उपभोग के लिए छोटे-बड़े आदिम सामुदायिक कुटुम्बों में सीधे सीधे बाँट लिया जाता था। साझे का यह उत्पादन अत्यल्प होता था लेकिन तब उत्पादक उत्पादन प्रक्रिया के और उत्पाद के खुद मालिक होते थे। वे जानते थे कि उन के उत्पादन का क्या होता है, वे स्वयं उस का उपभोग करते थे और वह उन के स्वयं के हाथों में रहता था। जब तक उत्पादन उत्पादकों के नियंत्रण में रहा ऐसी कोई शक्ति खड़ी नहीं कर सका जैसी शक्तियाँ सभ्यता के युग में नियमित रूप से खड़ी होती रहती हैं। 

ब उत्पादन अपनी आवश्यकता और उपभोग के स्थान पर विनिमय के लिए होने लगा तो पैदावार एक हाथ से निकल कर दूसरे हाथ तक जाने लगी। अब उत्पादक नहीं जानता कि उस की पैदावार का क्या हुआ। जैसे किसान समर्थन मूल्य पर बिके अनाज के बारे में तब तक ही जानता है जब तक कि उसे वह बेच नहीं देता है। बाद में तो उसे अखबार से ही खबर मिलती है कि कितना अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ गया है। मुद्रा और व्यापारी बीच में आ कर खड़े हो जाते हैं। व्यापारी भी कम नहीं हैं। एक व्यापारी दूसरे व्यापारी को माल बेचता है। माल एक हाथ से दूसरे हाथ में ही नहीं एक बाजार से दूसरे बाजार में जाने लगता है। इस तरह उत्पादकों का अपने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के कुल उत्पादन पर भी नियंत्रण नहीं रह जाता है। व्यापारियों के हाथ भी यह नियंत्रण नहीं रहता है। इस तरह उत्पादों पर जब नियंत्रण नहीं रह जाता है तो लगने लगता है कि उपज और उत्पादन दोनों संयोग के अधीन हो गए हैं। 

में प्रकृति में भी संयोग या भाग्य का शासन दिखाई पड़ता है। लेकिन विज्ञान ने सभी क्षेत्रों में बहुत बार यह सिद्ध किया है कि आवश्यकता और नियमितता सभी संयोगों के पीछे है। जो प्रकृति का सच है वही समाज का भी सच है।  सामाजिक क्रियाओं या उन के क्रम  पर मनुष्य का सचेत नियंत्रण रख पाना जितना कठिन होता जाता है उतनी ही ये क्रियाएँ मनु्ष्य के नियंत्रण के बाहर होती जाती हैं और ऐसा लगने लगता है कि ये क्रियाएँ केवल संयोगवश हो रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये संयोग स्वाभाविक आवश्यकता के कारण घटित हो रहे हैं। माल उत्पादन और माल विनिमय में जो संयोग दिखाई देते हैं  वे भी नियमों के अधीन होते हैं अलग अलग उत्पादकों और विनिमय कर्ताओं को ये नियम एक विचित्र अज्ञात शक्ति तक प्रतीत होने लगते हैं जिन का पता लगाने के लिए अत्यधिक श्रम के साथ खोजबीन आवश्यक हो जाती है। 

माल उत्पादन के ये नियम उत्पादन के रूप के विकास की प्रत्येक अवस्था में थोड़े बहुत बदल जाते हैं। सभ्यता के युग में ये नियम हावी रहते हैं। आज भी उपज उत्पादक पर हावी है। आज भी समाज का उत्पादन किसी ऐसी योजना के अंतर्गत नहीं होता जिसे सामुहिक रूप से सोच विचार के बाद तैयार किया गया हो। वह इन अंध-नियमों से परिचालित होता रहता है जो अंध शक्तियों की तरह काम करते रहते हैं और अंत में व्यापारिक संकटों के तूफानों के रूप में प्रकट होते रहते हैं। आरंभ में ये तूफान एक अंतराल के बाद आते थे। लेकिन इन दिनों तो हम देख रहे हैं कि एक तूफान की गर्द अभी वापस धरती तक नहीं पहुँचती है कि दूसरा तूफान आता दिखाई पड़ने लगता है। आज ही हम देख सकते हैं कि यूरोप अभी ग्रीस के संकट से नहीं सका था कि उस के सामने इटली एक संकट के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। यूरोप ही क्यों सारी दुनिया का आर्थिक तंत्र इस तूफान के सामने थरथरा रहा है।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भारतीय समाज में गोत्र व्यवस्था : बेहतर जीवन की ओर-13

मने इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में अमरीकी इंडियन गोत्र व्यवस्था के बारे में जाना। कुछ हजार वर्ष पहले तक पूरी दुनिया में मानव समाज ऐसा ही था। बिना किसी वर्ग के एक सरल सामुहिक जीवन जीता हुआ। एक स्वाभाविक रूप से विकसित समाज जिस में शासक-शासित नहीं थे। भारतीय समाज में आज भी गोत्र व्यवस्था के अवशेष देखने को मिलते हैं। एक ही गोत्र के स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंधों की मनाही का कड़ाई से पालन कुछ वर्ष पहले तक किया जाता रहा है। अधिकांश मामलों में आज भी किया जाता है। अधिकांश भारतीय समाज में ये गोत्र पितृसत्तात्मक हैं। यदि कोई दम्पति निस्सन्तान हो और उन्हें किसी संतान को गोद लेना हो तो यह परंपरा देखने को मिलती है कि किसी सगोत्र बालक-बालिका को ही गोद लिया जाए जिस से संपत्ति किसी अन्य गोत्र में न चली जाए। अनेक गोत्रों से मिल कर बिरादरी बनती है जिसे हमारे यहाँ जाति भी कहा जाता है। 

सलन मैं पारोत्रा ब्राह्मण बिरादरी से हूँ। इस बिरादरी में गोत्रों की संख्या कुल 22 के लगभग है। कोई तीस बरस पहले तक विवाह बिरादरी के भीतर ही किया जा सकता था। यदि कोई इस सीमा का उल्लंघन करता था उसे बिरादरी से बाहर समझा जा कर उस से सभी व्यवहार बंद कर दिए जाते थे। बिरादरी आज भी कुल 5-6 सौ परिवारों की है। जब बच्चे अधिक पढ़ने लगे और गोत्र के बाहर बिरादरी में विवाह योग्य जोड़े बनाने में मुश्किल खड़ी होने लगी तो यह तलाश किया जाने लगा कि हम आखिर इतने कम क्यों हैं, आखिर कोई तो और भी बिरादरी अवश्य होगी जिस से हमारा मूल मिलता होगा। तो अधिकांशतः मध्य प्रदेश के धार और इंदौर जिलों में बसने वाले बाबीसा ब्राह्मण बिरादरी तलाश कर ली गई जिनके गोत्र समान थे। कुछ बैठकों और सम्मेलनों के बाद दोनों बिरादरियों का एक संघ बन गया। मान लिया गया कि दोनों एक ही मूल के हैं। दोनों के बीच बेटी व्यवहार आरंभ हो गया। यदि इस मूल की तलाश करते जाएँ तो बहुत सी छोटी-छोटी बिरादरियों के संघ बनाए जा सकते थे। 

लेकिन जिस रीति से हमारा समाज बदला है। ये बिरादरियाँ वैसे ही नहीं टिकने वाली थीं। पढ़े लिखे लड़के अपने समान पढ़ाई वाली लड़की किसी भी ब्राह्मण बिरादरी से ब्याह कर लाने लगे। बिरादरी इतनी कमजोर हो गई कि वह किसी का बहिष्कार करने में सक्षम नहीं रही। उस ने ऐसे लड़कियों को स्वीकार करना आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे ब्राह्मण कन्या के स्थान पर अन्य कन्याएँ भी बिरादरी में विवाह कर लाई जाने लगीं और बिरादरी कुछ न कर सकी। अब बिरादरी के कायम रहने की एक शर्त यह भी हो गई है कि कोई भी पुरुष किसी भी कन्या को ब्याह लाए उसे बिरादरी में स्थान मिलने लगा। पर ऐसे उदाहरण अभी भी उंगलियों पर ही गिने जा सकते हैं। अभी भी गोत्र और बिरादरी के पुराने मूल्यों का ही अधिकांश लोग निर्वाह करते दिखाई पड़ते हैं। बिरादरी जब मजबूत थी तो दहेज और वैवाहिक खर्चों की सीमाएँ थीं। लेकिन बिरादरी के कमजोर पड़ने से ये दोनों दानव पैर पसारने लगे। लालच की सीमाएँ टूटने लगीं। अब बिरादरी के लोग ही विवाह में ये देखने लगे कि दहेज कितना मिलने वाला है और विवाह कितनी शान से होने वाला है। बिरादरी में पहले सब समान हुआ करते थे। उम्र और विद्वता सम्मान के कारण थे। अब धन उन का स्थान ले रहा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वर्ग भेदों के आने के पहले मानव समाज का जो सुंदर सामाजिक संगठन था, उस  का टूटना अवश्यंभावी था। उस संगठन ने कबीले से आगे कभी विकास नहीं किया। (क्रमशः)

रविवार, 6 नवंबर 2011

कबीलों का महासंघ : बेहतर जीवन की ओर-12

इरोक्वाई
स तरह  कबीलों में संघ बनाने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी। कुछ खास कबीलों ने जो आरंभ में रक्तसंबंधी थे लेकिन अलग हो गए थे फिर से स्थाई एकता बना ली। इस तरह उन्हों ने महासंघ बना कर एक राष्ट्र के गठन की ओर पहला कदम उठाया। अमरीका में इरोक्वा लोगों का महासंघ ऐसे संघ का सब से विकसित रूप था। यह पाँच कबीलों का संघ था। मछली, शिकार में मारे गए जानवरों का मांस और पिछड़े ढंग की बागवानी की उपज इन का भोजन था।  ये लोग बाड़ों से घिरे गाँवों में निवास करते थे।  उन में मिले जुले गोत्र थे और एक ही भाषा की अनेक बोलियाँ बोलते थे। पन्द्रहवीं शताब्दी के आरंभ में अस्तित्व में आए इस महासंघ ने अपनी शक्ति को महसूस करते ही आक्रमणकारी रुख अपना लिया और आसपास के बहुत बड़े इलाके को हथिया लिया। वहाँ के निवासियों को या तो भगा दिया या फिर नजराने देने पर मजबूर कर दिया। वे कभी बर्बर युग की इस निम्नावस्था से आगे नहीं बढ़ पाए। उन के सामाजिक संगठन का सब से उन्नत रूप इरोक्वाई महासंघ ही था। 

स महासंघ में कबीलों को सभी अंदरूनी कबायली मामलों में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त थी। रक्त संबंध महासंघ का आधार था। महासंघ के निकाय के रूप में एक संघ-परिषद होती थी जिस के सदस्य पचास साखेम थे। इन पचासों का पद और प्रतिष्ठा समान थी। महासंघ से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय परिषद करती थी। महासंघ के ये पचास पद कबीलों और गोत्रों में बाँट दिया गया था। जब कोई पद खाली हो जाता था तो संबंधित गोत्र फिर से उस का चुनाव कर लेता था। गोत्र अपने किसी भी प्रतिनिधि को कभी भी हटा सकते थे। लेकिन नए प्रतिनिधि को स्वीकार करने का अधिकार संघ परिषद के पास था। संघीय साखेम कबीलों में भी साखेम थे और उन्हें कबीलों की परिषद में भाग लेने और मत देने का अधिकार था। संघ-परिषद को अपने सभी निर्णय सर्वसम्मति से लेने होते थे। मत कबीलेवार लिए जाते थे, जिस का अर्थ था कि हर कबीले को और हर कबीले के परिषद सदस्य को एकमत होना होता था तभी निर्णय होता था। पाँचों कबीलों की परिषदों में से किसी के भी द्वारा संघ परिषद बुलाई जा सकती थी लेकिन स्वयं संघ परिषद को अपनी बैठक बुलाने का अधिकार नहीं था।  संघ परिषद की बैठक आम जनता के सामने होती थी जिस में किसी को भी बोलने का अधिकार था। लेकिन निर्णय संघ परिषद ही करती थी। महासंघ का कोई अधिकृत मुखिया या प्रमुख नहीं होता था। महासंघ के दो सर्वोच्च युद्धकालीन नेता होते थे, जिन की शक्ति समान और अधिकार भी समान होते थे। 
इरोक्वाई युद्ध नृत्य

स तरह के समाज विधान के अंतर्गत इरोक्वा लोग कई सदियों तक रहते रहे। इस समाज संगठन में राज्य का अस्तित्व नहीं था। उत्तर अमरीकी इंडियनों के सामाजिक अध्ययन से पता लगता है कि यह एक कबीला था जो धीरे-धीरे पूरे महाद्वीप पर फैल गया था। कबीलों के विभाजन के फलस्वरूप जनगण, कबीलों के पूरे समूह बन गए थे। किस प्रकार भाषाएँ इतनी बदल गई थीं कि वे एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे। उन की प्राचीन एकता के चिन्ह लगभग गायब हो गए थे। कबीलों के गोत्र भी अनेक गोत्रों में बँट गए थे। शिशुवत यह सीधा-सादा गोत्र संगठन अत्यन्त विलक्षण था। न सेना, न पुलिस, न सामन्त, न राजा, न गवर्नर, न न्यायाधीश, न अदालतें और न ही जेलखाने थे, तब भी काम बड़े मजे और आराम से चलता रहता था। कोई झगड़ा उठ खड़ा होता था तो अलग अलग गोत्रों और कबीलों के लोग उसे मिल बाँट कर निपटा लेते थे। रक्त-प्रतिशोध की स्थिति भी तभी आती थी जब किसी तरह झगड़ा नहीं निपटता था इस लिए उस की नौबत कम ही आती थी। मृत्यु दंड इसी चीज का सभ्य नाम है जिस में सभ्यता की अच्छाइयाँ भी हैं और बुराइयाँ भी। 
80 फुट लंबा इरोक्वाई घर
स समय आज से कहीं बहुत अधिक मामलों को मिल कर तय करना पड़ता था। कई-कई परिवार एक साथ मिल कर सामुदायिक ढंग से घर चलाते थे। जमीन पूरे कबीले की संपत्ति थी। अलग अलग घरों को केवल छोटे-छोटे बगीचे अस्थाई रूप से मिलते थे। जिन का जिस मामले से संबंध होता था वे ही उस का फैसला कर लेते थे। अधिकतकर मामले तो पुराने रीति रिवाज के अनुसार स्वतः ही निपट जाते थे। सामुदायिक कुटुम्ब गोत्रों को भलीभाँति ज्ञात था कि बूढ़ों, बीमारों और युद्ध में अपंग हुए लोगों के प्रति उन का क्या कर्तव्य है। सब स्वतंत्र और समान थे, स्त्रियाँ भी। वहाँ न दासों के लिए स्थान था और न ही दूसरे कबीलों को अपने अधीन रख पाने की गुंजाइश थी। 1651 के लगभग इरोक्वाइयों ने एरीयों को जीता उन्हों ने महासंघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया तब उन्हें अपने इलाकों से खदेड़ दिया गया। यह समाज कैसे मनुष्य पैदा करता था यह इस से पता लगता है कि जो गोरे लोग इंडियनों के सम्पर्क में आए और जो भ्रष्ट नहीं हुए थे उन्हों ने इन बर्बर लोगों की आत्मगरिमा, सीधे-सरल स्वभाव, चरित्र बल और वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वर्ग भेद उत्पन्न होने के पहले  संपूर्ण मानव जाति और मानव समाज ऐसा ही था। यदि हम उन की हालत की तुलना आज के मनु्ष्य की हालत से करते हैं तो हम वर्तमान मजदूरों,छोटे किसानों और प्राचीन काल के गोत्र के स्वतंत्र सदस्य के बीच गहरी खाई पाते हैं।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

अमंरीकी इंडियन कबीले : बेहतर जीवन की ओर-11

म ने देखा की गोत्र अमरीकी इंडियन जनों में समाज की इकाई के रूप में था। उन से मिल कर बिरादरी बनती थी और अनेक बिरादरियाँ मिल कर एक कबीले का निर्माण करती थी। कई छोटे कबीले सीधे गोत्रों से भी मिल कर बनते थे जिन में बिरादरी जैसी बीच की कड़ी नहीं होती थी। हर कबीले का अपना अलग नाम और इलाका होता था। कबीले की बस्ती के स्थान के अलावा आसपास बहुत विस्तृत क्षेत्र शिकार और मछली पकड़ने के लिए होता था। इस के बाद बहुत विस्तृत तटस्थ भूमि होती थी जो दूसरे कबीले तक चली जाती थी। यदि दो कबीलों की भाषाएँ मिलती जुलती होती थीं तो तटस्थ भूमि  का विस्तार कम होता था। यदि दो कबीलों के बीच भाषाओं के बीच कोई संम्बन्ध नहीं होता तो यह तटस्थ भूमि अधिक विस्तृत होती थी। अस्पष्ट सीमाओं से घिरा यह इलाका कबीले का सामुहिक क्षेत्र होता था जिसे पड़ौसी कबीले भी मानते थे। यदि कोई अन्य इस सीमा में घुसता तो कबीला अपने इलाके की रक्षा करता था। सीमाओं की अस्पष्टता से कठिनाई तभी उत्पन्न होती थी जब आबादी अधिक हो जाती थी। 
र कबीले की अपनी खास बोली होती थी। सच तो यह है कि कबीला और बोली दोनों सारतः समवर्ती शब्द हैं। अमरीका में उपविभाजन से नए कबीले और नई बोलियाँ अभी दो शताब्दी पहले तक बनती रहीं। कबीलों को गोत्रों द्वारा चुने गए साखेमों और युद्धकाल के नेताओं का अभिषेक करने का अधिकार होता था। यहाँ तक वे गोत्रों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें अपदस्थ भी कर सकता था क्यों की वे कबीले की परिषद के सदस्य होते थे। जहाँ कुछ कबीले महासंघ बना लेते थे यह अधिकार कबीलों के प्रतिनिधियों की संघीय परिषद को सौंप दिया जाता था।  हर कबीले की समान धारणाएँ (पौराणिक गाथाएँ) होती थीं। उन्हों ने अपनी धारणाओं को तरह तरह के देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों का रुप दिया हुआ था लेकिन उन्हें कोई आकार देकर मूर्तियाँ नहीं बनाई थीं। यह प्रकृति तथा महाभूतों की पूजा थी जो धीरे-धीरे बहुदेववाद का रूप धारण कर रही थी। उन के नियमित त्यौहार थे जिनमें खासकर नृत्यों और खेलों के माध्यम से पूजा की जाती थी। 
र कबीले की एक कबायली परिषद होती थी। जो कबीलों के आम निर्णय करती थी। इस में सभी गोत्रों के साखेम और युद्धकाल के नेता सम्मिलित होते थे। परिषद की बैठक खुले रूप में होती थी। बीच में परिषद बैठती और आस-पास कबीले के बाकी सदस्य बैठा करते थे। सभी को बहस में हिस्सा लेने और अपनी राय प्रकट करने का अधिकार होता था। फैसला परिषद करती थी। इरोक्वा लोगों में परिषद को अपना फैसला एक मत  से करना होता था।  दूसरे कबीलों के साथ संबंध रखने का काम कबायली परिषद करती थी। वह दूसरे कबीलों के दूतों का स्वागत करती थी और उन के पास अपने दूत भेजती थी। वह युद्ध की घोषणा और शांति-संधि करती थी। युद्ध छिड़ जाने पर लड़ने के लिए आम तौर पर वे ही भेजे जाते थे जो स्वेच्छा से तैयार होते थे।  एक कबीलों की उन कबीलों से युद्ध की स्थिति होती थी जिन से कोई शांति संधि नहीं होती थी। ऐसे शत्रुओं के खिलाफ कुछ विशिष्ठ योद्धा सैनिक अभियान संगठित करते थे।  युद्ध नृत्य आयोजित होता था, जो कोई नृत्य में शामिल हो जाता था समझा जाता था कि वह युद्ध में जाने को तैयार है। तुरंत टुकड़ी तैयार कर अभिायान के लिए भेजी जाती थी। कबायली इलाके पर कोई हमला होता था तो स्वयं सेवक ही उस की रक्षा करते थे। ऐसे दस्तों के कूच करने और लौटने पर उत्सव आयोजित किए जाते थे। ऐसे अभियानों के लिए परिषद की इजाजत लेना जरूरी नहीं था और परिषद उस की इजाजत देती भी नहीं थी। 
कुछ कबीलों में एक प्रधान मुखिया भी होता था। लेकिन उसे बहुत कम अधिकार प्राप्त थे। वह साखेमों में से एक होता था। जब कोई तुरंत निर्णय करने वाली समस्या उठ खड़ी होती थी तो प्रधान मुखिया फैसला कर देता था जो कबायली परिषद द्वारा अंतिम फैसला करने तक लागू रहता था। अमरीकी इंडियन कभी कबायली व्यवस्था से आगे नहीं बढ़ सके। थोड़े थोड़े लोगों के अनेक कबीले जिन के बीच बड़े बड़े सीमान्त प्रदेश होते थे एक दूसरे से कटे हुए रहते थे। उन में सदा लड़ाइयाँ चलती रहती थीं। जिस का परिणाम यह था कि थोड़े से लोग बहुत विशाल इलाके में फैले हुए थे। कहीं कोई अस्थाई संकट आ जाता था तो रक्त-संबंधी कबीलों में सहयोग हो जाता था पर संकट दूर होते ही यह मोर्चा फिर से बिखर जाता था। कुछ खास इलाकों में कबीलों ने स्थाई संघ बना कर अपनी एकता कायम कर ली। (क्रमशः)

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

इरोक्वाई बिरादरियाँ : बेहतर जीवन की ओर-10

रोक्वाई गोत्र के सद्स्यों का कर्तव्य था कि वे एक दूसरे की मदद और रक्षा करें।  सदस्य अपनी रक्षा के लिए गोत्र की शक्ति पर निर्भर करता था। यदि बाहरी व्यक्ति किसी सदस्य को चोट पहुँचा जाए तो उसे सारे गोत्र की चोट समझ कर उस का बदला लेते थे। रक्त प्रतिशोध को इरोक्वाई लोग बिना शर्त मानते थे। यदि कोई बाहरी व्यक्ति किसी इरोक्वाई को मार डालता तो पूरा गोत्र खून का बदला खून से लेने के लिए कटिबद्ध हो जाता था। पहले मध्यस्थता के प्रयास किए जाते थे। इस का तरीका यह होता कि मारने वाले के गोत्र के लोग घटना पर दुखः प्रकट करते और कोई मूल्यवान भेंट भेजते। यदि मरने वाले का गोत्र उसे स्वीकार कर लेते तो मामला निपट जाता अन्यथा। मरने वाले का गोत्र एक टुकड़ी मारने वाले का पीछा करें और मार डालें। ऐसा करने पर हत्यारे के गोत्र को शिकायत का कोई अवसर नहीं होता था और समझा जाता था कि हिसाब चुक लिया गया। 

र गोत्र के पास एक खास नाम या कई खास नाम होते थे जिन के उल्लेख से पता लगता था कि वह व्यक्ति किस गोत्र का है। गोत्र अजनबियों और बाहरी व्यक्तियों को अंगीकार कर के उन्हें कबीले में सम्मिलित कर सकता था। जो युद्धबंदी मारे नहीं जाते थे वे अपनाए जाने पर कबीले के सदस्य बन जाते थे और उन्हें कबीले के सदस्य के सभी अधिकार प्राप्त हो जाते थे। पुरुष अजनबी को भाई या बहिन और स्त्रियाँ संतान मान लेती थीं। जिन गोत्रों की सदस्य संख्या कम हो जाती थी वे अक्सर दूसरे गोत्रों से सामुहिक भर्ती कर लेते थे। किसी को अपनाए जाने का काम अनुष्ठान पूर्वक होता था और यह एक तरह से धार्मिक अनुष्ठान बन गया था। हर गोत्र का पृथक कब्रिस्तान होता था या अनेक गोत्रों का सामुहिक कब्रिस्तान होने पर एक गोत्र की पंक्ति एक साथ होती थी। माँ और उस के बच्चों को एक ही पंक्ति में दफनाया जाता था लेकिन पिता को उस के बच्चों के साथ नहीं दफनाया जा सकता था क्यों कि उस का गोत्र अलग होता था। गोत्र की एक परिषद होती थी जो वास्तव में गोत्र के सभी स्त्री-पुरुषों की जनसभा होती थी। सभी सदस्यों का मत बराबर होता था। यह परिषद शांतिकाल के साखेमों और युद्धकाल के नेता का चुनाव करती थी और उन्हें हटाती थी। गोत्र के सदस्य के मारे जाने पर वह प्रायश्चित की भेंट को स्वीकार करती थी या फिर रक्त प्रतिशोध का निर्णय करती थी। वही अजनबियों को अपना सदस्य बनाती थी। यह जनसभा गोत्र की सार्वभौम सत्ता थी। इस तरह गोत्र इरोक्वाई समाज का की एक इकाई के रूप में काम करता था।

मरीका की खोज के समय इंडियन कबीले ऐसे ही मातृवंशीय गोत्रों में संगठित थे। जो कबीले पाँच-छह या अधिक गोत्रों से मिल कर बने थे उन में तीन-चार कबीले एक समूह में संगठित हो जाते थे तथा शेष अन्य समूह में। इन समूहों को बिरादरी कहा जा सकता था। सेनेका कबीले में दो बिरादरियाँ थीं। ये बिरादियाँ वास्तव में उन समूहों का प्रतिनिधित्व करती थीं जिन में वे सब से पहले विभाजित हुए थे। गोत्रों के भीतर विवाह वर्जित था। इससे एक कबीले के लिेए यह आवश्यक था कि उस में कम से कम दो गोत्र हों जिस से कबीला स्वतंत्र रूप से अस्तित्व कायम रख सके। बिरादरी के कार्य सामाजिक और धार्मिक प्रकार के होते थे। जैसे एक कबीले में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर दूसरी बिरादरी अंतिम क्रिया और दफनाने की व्यवस्था करती थी जब कि मृतक बिरादरी के लोग मातम मनाने में लग जाते थे। किसी गोत्र में साखेम के चुनाव को बिरादरी के दूसरे गोत्र मंजूरी देते तो ठीक था लेकिन किसी गोत्र को आपत्ति होती थी तो बिरादरी की परिषद बैठती थी और वह भी चुनाव को अस्वीकार कर देती थी तो चुनाव रद्द माना जाता था और दूसरे साखेम का चुनाव करना पड़ता था। बिरादरियाँ यदि सैनिक टुकड़ी के रूप में काम करती थीं तो हर गोत्र की वर्दी और झंडा अलग होता था। जिस तरह कई गोत्रों से मिल कर एक बिरादरी बनती थी उसी तरह कई बिरादरियों के मेल से कबीले का निर्माण होता था।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

गोत्र आधारित समाज : बेहतर जीवन की ओर-9

ल्यूइस एच. मोर्गन विशेष ज्ञान रखने वाले ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्हों ने  मनुष्य के प्राक् इतिहास को एक निश्चित क्रम प्रदान करने का प्रयत्न किया। उन्हों ने अपने जीवन का अधिकांश भाग अमरीका के इरोक्वा लोगों के बीच बिताया था। इरोक्वाई लोग उन दिनों न्यूयार्क राज्य में रहते थे और मोर्गन को उन के एक कबीले (सेनेका) ने उन्हें अंगीकार कर लिया था। इन लोगों में नियम था कि एक-एक जोड़ा आपस में विवाह करता था और दोनों पक्षों में से कोई भी आसानी से विवाह को भंग कर सकता था। विवाहित जोड़ों से उत्पन्न संतानों के कारण पिता, माता, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, बुआ, मामा, ममेरे फुफेरे भाई-बहन आदि संबंध वैसे ही थे जैसे भारतीय परिवारों में आम तौर पर मिलते हैं। इरोक्वाई पुरुष अपनी संतानों के साथ अपने भाइयों की संतानों को भी अपने पुत्र-पुत्री कहते थे और अपनी बहन के पुत्र-पुत्रियों को भांजा भांजी कहते थे। उधर स्त्रियाँ अपनी बहनों के पुत्र पुत्रियों को अपने ही पुत्र पुत्री कहती थीं लेकिन अपने भाइयों के पुत्र पुत्रियों को भतीजा भतीजी कहती थी। इस समुदाय में मातृसत्ता प्रचलित थी। 

मोर्गन ने रक्त संबंधियों के इस समूह के लिए लैटिन शब्द gens का प्रयोग किया जो अपने यूनानी पर्याय genos की तरह समान आर्य धातु gan से उत्पन्न हुआ है जिस का अर्थ है जन्म देना। Gens, Genos, गोथिक भाषा का kuni, एंग्लो सेक्सन भाषा का kyn, अंग्रेजी भाषा का kin और संस्कृत भाषा के जन का अर्थ एक ही है और वह है रक्त संबंध या वंश। मोर्गन ने इरोक्वा जनों के, विशेष रूप से सेनेका कबीले के गोत्रों को आरंभिक गोत्रों का क्लासिकीय रूप माना। इस कबीले में आठ गोत्र होते थे, जिन के नाम पशुओं के नाम से भेड़िया, भालू, कछुआ, ऊदबिलाव, हिरन, टिटिहरी, बगुला और बाज थे। इन सभी गोत्रों में कुछ प्रथाएँ प्रचलित थीं। 

न प्रथाओं में सब से पहली थी कि वे अपने दो प्रकार के नेताओं का चुनाव करते थे। एक शांतिकाल का नेता होता था जिसे वे साखेम कहते थे। दूसरा युद्धकाल का नेता होता था। साखेम गोत्र में से ही चुना जाता था। यह पदवी आम तौर पर वंशगत होती थी क्यों कि इसे तुरंत भरना पड़ता था। युद्धकाल का नेता गोत्र के बाहर से भी चुना जा सकता था और यह पद कुछ समय तक रिक्त रह सकता था। लेकिन मातृसत्ता के चलते साखेम का पुत्र उस का स्थान नहीं ले सकता था क्यों कि वह दूसरे गोत्र का सदस्य होता था। लेकिन साखेम का भाई या भांजा अक्सर उस के स्थान पर चुन लिया जाता था। चुनाव में सभी स्त्री-पुरुष भाग लेते थे। लेकिन केवल चुन लेना पर्याप्त नहीं था। यह जरूरी था कि साखेम को शेष सातों गोत्र भी स्वीकार करें, तभी उसे साखेम के पद पर बिठाया जाता था। यह काम इरोक्वा लोगों के पूरे महासंघ की आम परिषद किया करती थी। गोत्र के भीतर साखेम का अधिकार पितातुल्य केवल नैतिक प्रकार का होता था। उस के पास दमन के कोई साधन नहीं थे। साखेम होने के कारण वह सेनेगा कबीले की कबीला परिषद का सदस्य होता था और इरोक्वाई महासंघ की आम परिषद का भी। युद्ध-काल का नेता केवल सैनिक अभियान के दौरान ही आदेश दे सकता था। गोत्र साखेम को और युद्धकाल के नेता को कभी भी पदच्युत कर सकता था और यह निर्णय स्त्री-पुरुष सब मिल कर करते थे। पद से हटाए जाने पर ये गोत्र के सभी सदस्यों के समान सामान्य व्यक्ति या योद्धा रह जाते थे। कबीले की परिषद गोत्र की इच्छा के विरुद्ध भी साखेमों को उन के पद से हटा सकती थी। 

दूसरी विशिष्ठ और बुनियादी प्रथा यह थी कि गोत्र के सदस्य को उसी गोत्र के भीतर विवाह करने की अनुमति नहीं थी। इस नियम को पूरी सख्ती के साथ लागू किया जाता था।  यही वह बंधन था जो गोत्र को एक साथ बांधे रखता था। इस से ऐसा रक्त संबंध उत्पन्न हुआ था कि समुदाय के लोग गोत्र के रूप में संगठित थे। मृत व्यक्तियों की संपत्ति गोत्र के शेष लोगों में बाँट दी जाती थी। हर हालत में संपत्ति को गोत्र  के भीतर ही रहना था। संपत्ति नाम मात्र की होती थी इस कारण से वह गोत्र के भीतर उस के निकट संबंधियों को बाँट दी जाती थी। पुरुष मरता था तो संपत्ति उस के सगे भाई बहनों को और उस के मामा के बीच बाँट दी जाती थी। लेकिन जब कोई स्त्री मरती थी तो संपत्ति उस के बच्चों और उस की सगी बहनों के बीच बाँट दी जाती थी।  लेकिन उस के भाइयों को उस का कोई हिस्सा नहीं मिलता था। क्यों कि वे दूसरे गोत्र के होते थे। पति-पत्नी भी एक दूसरे की संपत्ति प्राप्त नहीं कर सकते थे और बच्चे पिता की संपत्ति प्राप्त नहीं कर सकते थे। (क्रमशः)

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

राज्य पूर्व के समाज : बेहतर जीवन की ओर-8

स श्रंखला के पिछले आलेख में मैं ने कहा था कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया ... और कि राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। लेकिन इस के विपरीत धारणाएँ रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है। वे कहते हैं- बिना किसी राज्य के जीवन कैसे संभव है? राज्य न होगा तो मनुष्य आपस में लड़-खप कर खुद ही नष्ट हो जाएगा। पर जब राज्य न था तब भी मनुष्य समाप्त नहीं हुआ। हमारी समस्या यह है कि हम ने उन समाजों के बारे में लगभग कुछ नहीं जाना जिन में राज्य नहीं था।

ब भी हम भारतीय इतिहास का अध्ययन करते हैं तो  हमारा श्रीगणेश सैंधव सभ्यता के नगरों से होता है जिन का अस्तित्व बिना किसी राज्य व्यवस्था के संभव नहीं था। लेकिन ये नगर तो यकायक इतिहास के पृष्ठों से गायब हो गए और एक लंबा काल ऐसा निकल गया, जिन के बारे में हमें निश्चितता के साथ कुछ भी नहीं पता। फिर हमारी भेंट इस बीच के काल में रचे हुए वैदिक श्रुति ग्रंथों से होती है जिन में हमें जन की उपस्थिति मिलती है।  उस के बाद हम यकायक बुद्ध और महावीर के काल में आ जाते हैं। इस काल में हमें कुछ राज्य भी मिलते हैं और कुछ गण भी।  ये जन और गण  क्या थे? ये निश्चित रूप से एक निश्चित भूभाग पर निवास करते मानव समाज थे जिन के पास राज्य नहीं था। लेकिन ऐसी व्यवस्था थी जिस में वे मनुष्य जीवन को व्यवस्थित रख सकते थे।

ग्वेदिक काल के जन के बारे में हमें ऋग्वेद से सांकेतिक जानकारी मिलती है। यह समाज की सर्वोच्च इकाई होती थी। ऋग्वेद में जन शब्द का प्रयोग 275 बार हुआ है। समाज कुल, ग्राम, विश् तथा जन में संगठित था। कुल सब से छोटी इकाई होते थे। कुलों से ग्राम निर्मित होते थे। ग्राम स्वशासी और आत्मनिर्भर होते थे। यह संगठन निश्चित रूप से गोत्रीय संगठन थे। इन की व्यवस्था किस प्रकार की रही होगी उस के कुछ स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलते। लेकिन वहाँ राज्य जैसी व्यवस्था का अभाव दिखाई देता है। क्यों कि कोई स्थाई सशस्त्र इकाई वहाँ नहीं है। अर्थव्यवस्था निर्वाह अर्थव्यवस्था थी जिस में अधिशेष के बचे रहने लायक गुंजाइश नहीं थी। अधिशेष के अभाव में राज्य की आवश्यकता ही नहीं थी। बाद के काल के गणों के मुखिया का पद भी आनुवंशिक नहीं था। उसे कोई अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। सभी निर्णय समाज के सामने परिषदें किया करती थीं। जिस में हर व्यक्ति को अपना मत रखने का अधिकार होता था। सब की राय को ध्यान में रख कर ही परिषदें निर्णय किया करती थीं। हमें भारत में राज्यों की स्थापना के पूर्व की समाज व्यवस्था के बारे में संकेत तो अवश्य मिलते हैं लेकिन उन से संपूर्ण रूपरेखा स्पष्ट नहीं होती।

विश्व की कुछ ऐसी व्यवस्थाओं का अध्ययन भिन्न-भिन्न लोगों ने किया है जो गोत्रों पर आधारित थीं। उन में अमेरिका की इरोक्वाई समुदाय का नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन द्वारा किया गया अध्ययन महत्वपूर्ण है। यह अध्ययन भारतीय स्थितियों को समझने के लिए भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम भारत के जातीय समाजों में उसी की भांति की गोत्र व्यवस्था पाते हैं। आज भी अनेक मामलों में हमारे भारतीय राज्य को इस गोत्र व्यवस्था से जूझना पड़ रहा है।