@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी

शनिवार, 14 मई 2011

क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी

 यह पोस्ट कल रात ब्लागर पर प्रकाशित हो चुकी थी। लेकिन मेंटीनेंस शट डाउन के दौरान वापस ड्राफ्ट में चली गई। इस में से चित्र भी गायब हो गया था उसे पुनः लगा कर नए सिरे से प्रकाशित की जा रही है। 
रमेश कुमार जैन 'सिरफिरा'
'अनवरत' को अनवरत होना चाहिए। लेकिन इसे अनवरत रखने वाला व्यक्ति एक है। कभी यह व्यक्ति अवकाश पर भी चला जाता है। कभी काम के बोझ से इतना थक जाता है कि उसे समय नहीं होता। नतीजा यह होता है कि यह अनवरतता बीच बीच में टूटती है। मसलन कल अभिभाषक परिषद कोटा में संगोष्ठी थी। साथ में वकालत के काम भी। शाम को इस व्यक्ति को एक विवाह में कोई आठ-दस किलोमीटर दूर हाजरी दर्ज करवानी थी। उधर ही एक कोचिंग ले रही परिचित छात्रा को भी मिलना था। ये सब काम कर के लौटा तो देर इतनी हो गई कि कुछ लिखने के स्थान पर कुमार शिव की एक ग़ज़ल से परिचित करवाना उचित समझा। आज भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। सुबह का निकला शाम पाँच बजे घर पहुंचा और तुरंत ही एक विवाह समारोह में जाना पड़ा। वहाँ से लौटते लौटते सा़ढ़े नौ बज गए। फिर वकालत का दफ्तर भी संभाला। वर्ना कल अदालत में यह व्यक्ति क्या करता? अब अनवरत को अनवरत रख पाना कठिन लग रहा था कि 'सिरफिरा' जी ने मुश्किल हल कर दी।
हुआ यूँ कि यह व्यक्ति परसों अनवरत पर पोस्ट बना कर निपटा तो पता लगा कि यह पोस्ट तो 'सिरफिरा' पर ही हो गई है। इस पर कुछ टिप्पणियाँ भी आईं। लेकिन खुद 'सिरफिरा' जी गायब रहे। पता लगा वे व्यस्त थे और इस पोस्ट को देख ही नहीं पाए थे। उन्हों ने आज ही इस पोस्ट को पढ़ा और प्रतिक्रिया में अपनी चार टिप्पणियाँ धड़ाधड़ चेप दीं। बहुत से पाठक इस पोस्ट को पढ़ चुके थे और 'सिरफिरा' की टिप्पणियों को पढ़ने शायद ही दुबारा इस पोस्ट पर आते। इसलिए उन की प्रतिक्रियाओं को अनवरत पर स्पेम बना दिया। (आदरणीय बड़े भाई अमर कुमार जी क्षमा करें) पर उन  टिप्पणियों को रोका नहीं है। यहाँ उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है। जरा आप भी पढ़ कर देखें ...

टिप्पणी नं. 1

गुरुवर जी, प्रणाम! आपने कमाल कर दिया पूरी पोस्ट ही इस नाचीज़(तुच्छ) सिरफिरा पर लिख डाली. अब बाकी लोगों को भी रश्क हो रहा होगा. आठ-आठ बार पोस्ट और टिप्पणियों में अब तक जिक्र हो चुका है. कुछ लोग अब इसमें राज की बात सोच-सोचकर परेशान हो रहे होंगे?

गुरुवर:-पढ़ने वाले जो हैं वो पूँछ पकड़ के लटक जाते हैं। अब हमने क्या लिख दिया था ऐसा, कि पहली पहली टिप्पणी ही मिली कि सौ में पहला नाम तो हमारा लिख लेना। एक ने तो ये भी कह दिया कि एक सौ एकवाँ नाम मेरा भी लिख लेना। देखिए ना पहले-पहले कहने वाला तो अतिभावुकता में कह गया। लेकिन सब से बाद वाला बहुत होसियार निकला। भैय्या कह रहा है कि पहले सौ तो पूरा कर लो। बीच में जितने लोग आए उन सब की गिनती कर ली है। अभी तो दहाई का आँकड़ा भी पूरा नहीं बनता। अब ऐसे तो सहकारी चलने से रही। अब लगता है कि बाकी के अस्सी-बयासी का आँकड़ा जुटाने में काफी समय लगने वाला है। तब तक किया क्या जाए?

सिरफिरा:-उपरोक्त पैराग्राफ बहुत अच्छा है. इसमें व्यंग भी है, कटाक्ष भी है और साथ में मज़बूरी भी है.

गुरुवर:-एक हमको गुरू कहने वाले रमेश कुमार जैन साहब हैं जो खुद को सिरफिरा कहे जाते हैं।
सिरफिरा:- उपरोक्त टिप्पणी पढ़कर सभी जान भी जायेंगे कि-हम कितने बड़े "सिरफिरे" हैं

गुरुवर:-सब से पहले तो सिरफिरा जी ने खुद को बेस्ट सेल्स मेन साबित कर के मुझे ही ग्राहक बनाने को काँटा डाल दिया है.
सिरफिरा:- गुरुवर! लोग बाल वाले को कंधी बेचना "कला" नहीं मानते बल्कि "गंजे" को कंधी बेचना ही कला हैं.किताब न खरीदने वाले को किताब बेचना ही कला होती है.

टिप्पणी नं. 2
गुरुवर:-हाँ हम ने ये मन जरूर बना लिया था कि ब्लागिंग वाली किताब जिसे अविनाश जी और रविन्द्र प्रभात जी ने संपादित किया है उसे जरूर खरीदेंगे। उस के खरीदने की कुछ अतिरिक्त वजहें भी हैं। जैसे उस किताब को नहीं खरीदूंगा तो लोग समझेंगे मैं ब्लागर ही नहीं हूँ। हूँ भी तो चलताऊ किसम का। दूसरी वजह ये थी कि इस बात को कौन जानता कि मैं ने किताब नहीं खरीदी। लेकिन ये पोल खुल सकती है। कभी कोई मेरे घर आ जाए और उस किताब को देखने की ख्वाहिश रखे तो मैं उसे क्या दिखाऊँ। एक वजह और थी, वह ब्लागरों के सामुहिक श्रम का नतीजा है। इसलिए मैं उसे पढ़ना ही नहीं अपने पास रेफेरेंस बुक के बतौर रखना भी चाहता हूँ। दूसरी किताब जो रविन्द्र जी का उपन्यास है उसे इसलिए खरीदना चाहता हूँ कि कहीं रविन्द्र जी नाराज न हो जाएँ।

सिरफिरा:- गुरुवर! कभी हमारा मन या जेब कहे किसी किताब को खरीदना नहीं चाहता है. मगर मात्र डर(लोग क्या कहेंगे), दिखावा(हमने इतनी किताबें पढ़ रखी हैं) और खुश(फँलाना लेखक नाराज न हो जाएँ) करने के लिए क्यों खरीदनी पड़ती है. ऐसा क्यों होता है ? शायद आजकल किताबों में आम-आदमी की जरूरत की चीजें गुम सी हो गई है. वैसे इस मामले में बहुत लक्की हूँ. पेशेगत अक्सर लेखक द्वारा मुझे "सप्रेम भेंट" कर दी जाती, क्योंकि किताब के विमोचन व समीक्षा गोष्टी में आमंत्रित किया जाता है.शायद लेखक इस लालच में देता हो उनका समाचार जरा फोटो-सोटो के साथ अच्छी-सी जगह छाप दूंगा.

गुरुवर:-अब ज्यादा क्या सोचना? ऑर्डर कर ही देता हूँ। सिरफिरा जी को मेल करता हूँ कि दोनों किताबें भिजवा दो और उन की कमीशन-उमीशन काट कर जो भी कीमत बनती है वह बता दो, जो उन के बैंक खाते में जमा करवा दूँ। वैसे मैं उन्हें मेल करना भूल जाऊँ तो वे इस पोस्ट को ही ऑर्डर मान कर मुझे किताबें भेज सकते हैं. कीमत के बारे में बताते ही उनके खाते में रुपए जमा करा दिए जाएंगे।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपकी ईमेल नहीं मिली है, मगर आपका ऑर्डर मिल गया है और "हिंदी साहित्य निकेतन" लिख भी दिया है. अब देखते हैं कि-कब तक भेजी जाती हैं. बाकी आपकी सभी शर्तें मंजूर हैं.

गुरुवर:-अभी तो वो लफड़ा और शेष है जो हमारे इस बीज वाक्य से पैदा हुआ कि सहकारी प्रकाशन चलाया जाए। इस बारे में अब हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। हमारे पास सब कुछ करने वाले सिरफिरा जी जो हैं। वे कहते हैं-"मैंने काफी समय........लेखक को रॉयल्टी देने को भी तैयार हूँ.

सिरफिरा:- गुरुवर! जो कह दिया वो पत्थर की लकीर है. मौखिक रूप से नहीं कहा है बल्कि मैंने अपना निर्णय लिखा है. स्वार्थी राजनीतिक कहते हैं, लिखते नहीं.

टिप्पणी नं. 3


गुरुवर:-मुझे और दूसरे ब्लागरों को अब कुछ करने की जरूरत ही नहीं है सिवाय इस के कि सौ का आँकड़ा पूरा कर लिया जाए। उन में से पाँच व्यक्तियों का एक निदेशक मंडल चुन दिया जाए जो इस बात को तय करे कि किस किताब को छापा जाना है और किस किताब को नहीं? कितनी किताबों का सैट एक साथ छापा जाए। उस की लागत क्या आएगी? और उस के लिए कितना धन चाहिए? समस्या केवल ये है कि उन किताबों को छाप कर क्या किया जाएगा। सब से पहली दस प्रतियाँ तो लेखक को मुफ्त में दे दी जाएँ। फिर उस से पूछा जाए कि वह अपने करीबी लोगों को बाँटने के लिए कितनी किताबें खरीदने की मंशा रखता है? उतनी और उसे नकद बेच दी जाएँ। अब जितनी किताबें बचें उन के विक्रय के लिए खुद सिरफिरा जी से यह कांट्रेक्ट कर लिया जाए कि वे कितने कमीशन पर उन को बेच-बाच कर ठिकाने लगा सकते हैं। मुझे लगता है कि सिरफिरा जी इस के लिए तैयार हो जाएंगे। उन से यह कांट्रेक्ट हो जाएगा तो हम अपने शहर के बुक सेलर को भी कहेंगे कि वह भी किताबें उन से मंगा कर ही बेचे। इस तरह सिरफिरा जी का धंधा भी चमकेगा और लगे हाथ सहकारी की किताबें भी दूसरी किताबों के साथ बेचने में सिरफिरा जी को आसानी होगी। यदि सिरफिरा जी जल्दी से किताबें बेच डालें और रकम वापस आ जाए तो फिर दूसरा सैट जल्दी निकालने की सोची जा सकती है।
मेरा मानना है कि सारी किताबों के केवल पैपरबैक ही छापे जाएँ। कवर पेज रंगीन और आकर्षक हो जिसे यदि रेलवे की व्हीलर की स्टाल पर रखा जाए तो भले ही ग्राहक खरीदे या न खरीदे, लेकिन एक बार हाथ से छू कर जरूर देखे। कुछ ब्लागर तो किसी रेलवे स्टाल पर अपनी पुस्तक देख कर ही अतिसंतुष्ट हो सकते हैं। इस में मेरा भी फायदा है वो ये कि कीमत कम होने से मैं उसे खरीद भी सकता हूँ और उस की कीमत देख कर अपनी पत्नी जी को उन की आँखें चौड़ी करने से बचा सकता हूँ।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपकी राय और योजना उचित होने के साथ तर्क संगत भी है. मेरा धंधा चमकाने की सोचने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! अगर रेलवे की स्टाल वाले को दूसरों से थोडा अधिक कमीशन मिलता है.तब उसकी बिक्री(हमारी किताबों की) दूसरों से ज्यादा होती हैं. यह आपकी नहीं, सब को अपनी पत्नियों से शिकायत (आँखें चौड़ी करने की) होती हैं.

स ..... बस....... अब बहुत हो चुका। हालाँ कि अभी टिप्पणी नं. 4 शेष है। लेकिन आज के लिए ये तीन टिप्पणियाँ पर्याप्त हैं। वैसे चौथी टिप्पणी में खुद 'सिरफिरा' जी ने कहा है कि टिप्पणियाँ आगे भी हैं। इसलिए चौथी टिप्पणी को रोक दिया है। सिर्फ एक दिन के लिए। उन की अगली टिप्पणी के साथ उसे भी पढ़ लीजिएगा।

2 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

कल इस पोस्ट पर कुछ टिप्पणियाँ भी अवतरित हो चुकी थीं लेकिन ब्लागर मेंटीनेंस में वे उड़ गई हैं। यहाँ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं ...


HAKEEM YUNUS KHAN has left a new comment on your post "क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी":

आपकी कोशिशें अच्छी हैं .
क्या आप हमारी वाणी के सभी सदस्यों को इस योजना में शामिल कर सकते हैं ?
जैसे कि यह लिंक है जो कि आप के एग्रीगेटर का सदस्य है.
यह आपका सदस्य क्यों है ?
और अगर है तो क्या यह आपकी योजना का लाभ उठा सकता है ?


Sunil Kumar has left a new comment on your post "क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी":

sirfira ji ne sir ghuma diya savere savere bat to lagbhag theek hi hai

Arvind Mishra has left a new comment on your post "क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी":

मेरा तो सिर फिर गया है -गोल गोल ..ये माजरा क्या है ?


Khushdeep Sehgal has left a new comment on your post "क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी":

अरविंद जी वाला हाल अपना भी है...

ऐसे में...
होठों को करके गोल, सीटी बजा के बोल...
के भईया आल इज़ वैल...

जय हिंद...


Patali-The-Village has left a new comment on your post "क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी":

आपकी कोशिशें अच्छी हैं|धन्यवाद|


संजय भास्कर has left a new comment on your post "क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी":

आपकी कोशिशें अच्छी हैं

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

गुरुवर जी,चरण स्पर्श!
आपके "उद्यमी ठाला नहीं बैठता" और "क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी" लेख पर क्रमश: 16 और12 टिप्पणियाँ आई थीं. सिरफिरा ने भविष्य की सोचकर टिप्पणियाँ अपने पास रख ली थीं और जैसा कल हुआ था. उसकी जानकारी नहीं थी इसलिए सब टिप्पणियों का जवाब ईमेल से भेज दिया था. आपकी हमारे ऊपर इतनी कृपया दृष्टि से टिप्पणियाँ आनी कम हो गई है. गुरु-चेले की बातचीत कभी खत्म नहीं होती है, क्योंकि गुरु ज्ञान का भंडार होता है और चेला अज्ञानी होता.चेला प्रश्न करके गुरु से ज्ञान प्राप्त करता है.


अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?