@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अन्न को सड़ने के लिए छोड़ देना कितना जरूरी है?

बुधवार, 8 सितंबर 2010

अन्न को सड़ने के लिए छोड़ देना कितना जरूरी है?

विष्य के लिए संग्रहीत भोजन ही वह वस्तु है जिस ने मनुष्य को सोचने और बहुत सारे दूसरे कामों को करने की फुरसत बख्शी। यदि उस के पास कुछ दिनों या महिनों का भोजन न होता तो उस का सारा समय भोजन की तलाश में ही जाया होता रहता। इस रूप में सब से पहले उस के कब्जे में पालतू पशु आए। स्त्रियाँ उन की सार संभाल में लगीं और पुरुष शिकार में। स्त्रियाँ चूंकि आवास के नजदीक रहती थीं तो उन्हों ने पाया कि कुछ पौधों को सायास उगा कर खाद्यान्न उपजाया जा सकता है जो कि उन के सुरक्षित भोजन का आधार बन सकता है। यह खाद्यान्न ही था जिस ने मनुष्य की भोजन की अनवरत तलाश में कुछ विराम दे कर उसे बहुत से कामों को करने का समय दिया। आज का सारा विज्ञान और तकनीक उसी फुरसत के समय की देन है। इस मायने में अन्न और उस का सुरक्षित भंडार मनुष्य के विकास की मूल है। आज भी उसे यदि फुरसत है तो खाद्यान्नों के इन सुरक्षित भंडारों के कारण ही। यदि यकायक ये सुरक्षित भंडार समाप्त हो जाएँ तो मनुष्य की भोजन की तलाश फिर आरंभ हो लेगी, और मनुष्य का विकास वह रुक भी सकता है और पीछे भी जा सकता है।
ही कारण है कि हमारे पूर्वज अन्न का महत्व समझते थे। छांदोग्य उपनिषद कहता है, अन्न ब्रह्म है। दादा जी के लिए अन्न का एक दाना भी बहुत बड़ी चीज थी। वह एक दाना सैंकड़ों दूसरे अन्न के दानों को जन्म दे सकता था। वे अपनी भोजन की थाली को भोजन के बाद पानी डाल कर उसे पी जाते थे, जिस से अन्न का एक कण भी बेकार न जाए। पिताजी जब भोजन कर के उठते थे तो उन की थाली मंजी हुई थाली का भ्रम पैदा करती थी। कोई भी उसे साफ समझ कर भोजन परस सकता था। पहचान के लिए वह थोड़ा सा पानी उस में डाल दिया करते थे। मैं जब सब के बाद भोजन करने बैठता हूँ तो महसूस करता हूँ कि सब्जी शेष न बचे और न बुसे। लेकिन हमारा युग यह कर रहा है कि वह लाखों टन अनाज को सड़ने के लिए खुला छोड़ देता है। 
डॉक्टर मनमोहन सिंह जहीन आदमी हैं। हम समझते थे कि उन के संरक्षण में देश में अन्न बहुत है कोई कमी न होगी। लेकिन देश में लोग भूख से मरते हैं। दूसरी ओर सार्वजनिक धन से खरीदा गया अन्न सड़ने के लिए अभिशापित है।
इस बात पर हर कोई आश्चर्य कर सकता है कि 120 करोड़ मनुष्यों के देश में अन्न सड़ भी सकता है। 120 करोड़ लोग 178 लाख मीट्रिक टन अनाज को सुरक्षित स्थानों पर नहीं रख सकते। इस जुलाई के आरंभ में सरकार के पास 423 लाख मीट्रिक टन अनाज को सुरक्षित रखने की क्षमता थी। लेकिन फिर भी 178 मीट्रिक टन अनाज खुले में पडा़ था जिस के पास वर्षा के मौसम में भीगने और सड़ने के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि देश के पास इस अन्न को सुरक्षित रखने का कोई साधन नहीं हो। अपितु इस देश के पास कम से कम इस से दस गुणा अनाज और सुरक्षित ऱखने का साधन मौजूद था। समस्या यह थी कि वह साधन सरकार को नजर नहीं आ रहा था और नजर आया भी हो तो सरकार उसे खास कारणों से नजरअंदाज कर रही थी। 
म घर में दो वयस्क प्राणी हैं और एक पचास किलोग्राम गेहूँ का कट्टा तीन माह में हम खा डालते हैं। यही तीन-चार माह बरसात के होते हैं। यदि हम चाहें कि हम बरसात भर का गेहूँ जून या मई के महीने में खरीद कर अपने घर में रख लें तो हमें कम से कम पचास किलोग्राम के दो कट्टे तो सहेज कर रखने होंगे। इस का सीधा अर्थ यह हुआ कि बरसात के मौसम के लिए पचास किलोग्राम अनाज का एक कट्टा प्रति व्यक्ति आवश्यक है। डाक्टर मनमोहन सिंह ने परसों संपादकों से बात करते हुए यह खुद स्वीकार किया है कि वे देश की सैंतीस प्रतिशत आबादी अर्थात लगभग पैंतालीस करोड़ लोग देश में गरीबी की रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अब यदि इन पैंतालीस करोड़ लोगों के पास किसी भी तरह से बरसात भर का अन्न मई-जून माह में पहुँचा दिया जाता तो वह सारा खाद्यान्न सुरक्षित हो जाता। जिन लोगों के पास वह अन्न पहुँचता वे उस की प्राण प्रण से रक्षा करते क्यों कि वह उन के लिए जीवन दायक होता। इस अन्न की मात्रा मात्र 225 लाख मीट्रिक टन होती। लेकिन फिर भी वह उस अनाज से अधिक होती जो सड़ने के लिए सरकार और उस की ऐजेंसियों ने खुले में छोड़ दिया था। यह संभव भी था और अपेक्षित भी। 
डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विख्यात अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जिन से बातें करने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा तक को आनंद मिलता है वे अवश्य ही इस का मार्ग खोज सकने में समर्थ थे कि यह अनाज कैसे इन लोगों के पास पहुँच कर सुरक्षित हो सकता है। अनाज की सब से बड़ी सुरक्षा यही है कि वह उस मनुष्य के पास पहुँच जाये जिसे उसे उपयोग में लेना है। 
पर डाक्टर मनमोहन सिंह ने ऐसा नहीं किया या नहीं कर सके। उस का कारण भी स्पष्ट है। फिर बरसात में अनाज के दाम नहीं बढ़ते। निजी भंडारण करने वाले लोग जो मुनाफा बरसात में वसूलते हैं वह नहीं वसूला जा सकता था। फिर महंगाई नहीं बढ़ती। और महंगाई नहीं बढ़ती तो विकास कैसे होता? विकास की दर कैसे कायम रह पाती। विकास के लिए आवश्यक है कि मुनाफाखोरों को प्रसन्न रखा जाए। इसी कारण तो उन्हें हमारे डाक्टर साहब मनमोहक लगते हैं। महंगाई नहीं बढ़ती तो विपक्ष वाले क्या करते? इसी कारण उन्हें भी डाक्टर साहब मनमोहक लगते हैं। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि अन्न को सड़ने के लिए छोड़ देना कितना जरूरी है?

13 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपनी आवश्यकतानुसार घर पर रखने से भंडार प्रबन्धन की कम आवश्यकता पड़ेगी।

Arvind Mishra ने कहा…

अन्न भंडारण और अन्न की जमाखोरी की असलियत को उजागर किया आपने :) यह शोचनीय स्थिति है !

Udan Tashtari ने कहा…

अफसोसजनक स्थिति है.

राज भाटिय़ा ने कहा…

इमान दार बेचारे.....

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

"डॉक्टर मनमोहन सिंह जहीन आदमी हैं। हम समझते थे कि उन के संरक्षण में देश में अन्न बहुत है कोई कमी न होगी। दूसरी ओर सार्वजनिक धन से खरीदा गया अन्न सड़ने के लिए अभिशापित है।"

यह तो ऐसा ही है कि हर चीज़ के लिए भगवान को ज़िम्मेदार ठहराना! गलती करे पावार और बदनाम है सिंह सा’ब :)

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

बेहतर विश्लेषण...
हम अभिशप्त हैं...

ghughutibasuti ने कहा…

यह बरबादी मानवता के मुँह पर तमाचा है और यह भी दर्शाती है कि हमारी सरकार को हमारी व हमारी मान्यताओं की कितनी चिन्ता है। किसी भी भारतीय घर में अन्न की बरबादी सहन नहीं की जाती चाहे लोग कितने ही धनवान क्यों न हों।
सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सब करने के बाद भी सरकार यह नहीं समझ पाती कि असन्तोष को कौन पैदा कर रहा है कौन उसकी जड़ों में खाद पानी डाल रहा है!
जो भूखा भारतीय अनाज को ऐसे बर्बाद होते देखता होगा उसके मन मे कैसी ज्वाला उठती होगी? वह ज्वाला पेट की ज्वाला से जरा भी कम तेज नहीं होती होगी। यही ज्वाला एक दिन पूरे देश को निगल जाएगी और हमारी सरकार और अधिक पुलिस व सेना को इस आग को बुझाने के लिए आग में झोंकेगी।
जय हो।
घुघूती बासूती

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@cmpershad
किसी भी मंत्री की गलती सरकार की गलती होती है। प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया है। यह गलती प्रधानमंत्री की पार्टी की भी है। सरकार अनेक प्रकार की सबसिडियाँ देती है। लखपतियों और करोड़पतियों को देती है। दिवालियां कंपनियों के अरबों के सरकारी और बैंक कर्जे माफ किए जाते हैं। लेकिन क्या गरीबों को बरसात के चार माह का अनाज खरीदने के लिए सबसिडी नहीं दी जा सकती। सबसिडी न भी दें तो क्या उन्हें खाद्यान्न ऋण नहीं दिया जा सकता।
सरकार आटा मिलों को प्रोत्साहित कर रही है। आटे के पैकेटों की बिक्री बढ़ी है। अब परिवार साल भर का अनाज खरीद कर रखने के बजाए हर माह आटा खऱीदता है। अन्न संग्रहण क्षमता तो यूँ कम होती गई है। उस के अनुपात में सार्वजनिक अन्न संग्रहण क्षमता क्यों नहीं विकसित की गई। यह सरकार की गलती है। यह तो एक नीति है कि एक साफ छवि वाले डाक्टर मनमोहन और अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बना कर बिठा दो जिस की आड़ में सब खेल चलते रहें। मुखौटा बनने वाला कम दोषी नहीं है। अपराध के सबूत छिपाने या नष्ट करने वाले की सजा भी उतनी ही होती है जितनी अपराध करने वाले की।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

सड़े अनाज की, हो सकता है, सरकार बीयर बनाकर ग़रीबों में बांटने की योजना रखती हो ताकि ग़रीब बीयर पीकर भूखे रहने का दर्द भूल सके. इसलिए सरकार की ना-नुकर को यूं ही हल्के में नहीं लेना चाहिये...

Abhishek Ojha ने कहा…

मुफ्त में बाटेंगे तो इन्फ्लेशन बढ़ जाएगा :) अभी देखिये तो कितना कंट्रोल में है.

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@अभिषेक ओझा
मुफ्त में बाटेंगे तो इन्फ्लेशन बढ़ जाएगा :) अभी देखिये तो कितना कंट्रोल में है.
सुप्रीम कोर्ट का आदेश मुफ्त में बांटने का कहाँ है? वह तो यह कहता है कि मुफ्त में बांट दिया जाए पर सड़ने न दिया जाए।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…


बेहतरीन लेखन के बधाई

356 दिन
ब्लाग4वार्ता पर-पधारें

उम्मतें ने कहा…

चिंतनपरक ! सार्थक !