@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: माला के मनकों को जुड़ा रखने के लिए मजबूत धागे का सूत्र कहाँ मिलेगा : जनतन्तर कथा (25)

गुरुवार, 7 मई 2009

माला के मनकों को जुड़ा रखने के लिए मजबूत धागे का सूत्र कहाँ मिलेगा : जनतन्तर कथा (25)

हे, पाठक!
अगली प्रातः सूत जी द्रविड़ चेतना के केन्द्र चैन्नई में थे।  सभ्यता विकसित होते हुए भी बर्बर आर्यों से पराजय की कसक को यहाँ जीवित थी। लेकिन उसे इस तरह सींचा जा रहा था जिस से इस युग में सत्ता की फसलें लहलहाती रहें।  प्रकृति के कण कण को मूर्त रूप से प्रेम करने वाला आद्य भारतीय मन उस पराजय को जय में बदलने को आज तक प्रयत्नशील है।  सब से पहले तो उस ने विजेता के नायक देवता को इतना बदनाम किया वह देवराज होते हुए भी खलनायक हो गया।   उस के स्थान पर लघुभ्राता तिरुपति को स्थापित करना पड़ा।  यहाँ तक कि जो थोडा़ बहुत सम्मान वर्षा के देवता के रूप में उस का शेष रह गया था उसे भी तिरुपति के ही एक अवतार ने अपने बचपन में ही गोवर्धन पूज कर नष्ट कर डाला।  पूरा अवतार चरित्र फिर से उसी मूर्त प्रेम को स्थापित करने में चुक गया।  वह मूर्त प्रेम आज भी इस खंड में इतना जीवन्त है कि अपने आदर्श को थोड़ी भी आंच महसूसने पर अनुयायी स्वयं को भस्म करने तक को तैयार मिलेंगे। 

हे, पाठक!
सुबह कलेवा कर नगर भ्रमण को निकले तो सूत जी को सब कहीं चुनाव श्री लंकाई तमिलों के कष्टों के ताल में गोते लगाता दिखाई दिया।  दोनों प्रमुख दल तमिलों के कष्ट में साथ दिखाई देने का प्रयत्न करते देखे।  लेकिन यहाँ भी स्वयं कर्म के स्थान पर विपक्षी का अकर्म प्रदर्षित करने वही चिरपरिचित दृष्य दिखाई दिया जो अब तक की भारतवर्ष यात्रा में सर्वत्र दीख पड़ता था।  दोनों ही दलों में सब तरह से घिस चुका वही पुराना नेतृत्व था।  जिस में अब कोई आकर्षण नहीं रह गया था।  कोई नया नेतृत्व जो द्रविड़ गौरव में फिर से प्राण फूँक दे, दूर दूर तक नहीं था।  हर कोई पेरियार और अन्ना का स्मरण करता था।  लेकिन वह ज्ञान और सपना दोनों अन्तर्ध्यान थे।  सूत जी दोनों दलों के मुख्यालय घूम आए।  सारी शक्ति यहाँ भी मुख्यतः निष्प्राण प्रचार में लगी थी।  दोनों ही अपनी जीत के प्रति आश्वस्त और हार के प्रति शंकालु दिखे। आत्मविश्वास  नाम को भी नहीं था।

हे, पाठक! 
जहाँ सत्तारूढ़ दल अपनी उपलब्धियाँ गिना रहा था वहीं विपक्षी उन की कमियों को नमक मिर्च लगा कर बखान कर रहे थे।  पर जनता? वह स्तब्ध थी, तय ही नहीं कर पा रही थी कि वह किसे चुने और किसे न चुने?  सभी राशन की दुकान पर रुपए किलो का चावल देने का वायदा कर रहे थे।  एक मतदाता कह रही थी कि चावल तो हम रुपए किलो राशन दुकान से ले आएंगे, लेकिन नमक का क्या? वही सात रुपए किलो? और एक कप चाय तीन रुपए की? क्यूँ नहीं कोई ऐसी व्यवस्था करने की कहता कि जितना दिन भर में कमाएँ उस से दो दिन का घर चला लें।  कम से कम कुछ तो जीवन सुधरे।  उस औरत के प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था।  नगर और औद्योगिक बस्तियों में मतदान के लिए कोई उत्साह नहीं था।  मतसूची में दर्ज आधे लोग भी मतदान केन्द्र तक पहुँच जाएँ तो ठीक वरना जो मत डालेंगे वे ही आगे का भविष्य लिख देंगे।

हे, पाठक!  
सूत जी, आस पास के कुछ ग्रामों में घूम-फिर अपने यात्री निवास लौटे तो बुरी तरह थक चुके थे।  भोजन कर सोने को शैया पर आए तो दिन भर की यात्रा पर विचार करते रहे।  ग्रामों में चुनाव के प्रति तनिक उत्साह तो था।   लेकिन निराशा वहाँ भी दिखाई दी।  स्थानीय समस्याओं के हल और विकास के प्रति राजनेताओं की उदासीनता की कथाएँ हर स्थान पर आम थीं।  सूत जी भारतवर्ष में अब तक जहाँ जहाँ गए थे वहाँ यह एक सामान्य बात दिखाई दे रही थी कि विकास की भरपूर आकांक्षाएँ लोगों के मन में थीं।   लेकिन उस के लिए मौजूदा राजनैतिक ढ़ाँचे पर विश्वास उतना ही न्यून था।  विश्वास की हिलोरें भारतवर्ष को किस ओर ले जाएंगी इस का संकेत तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।  सब कहीं जनता की आकांक्षाएँ एक जैसी थीं।  लेकिन उन आकांक्षाओं को कहाँ दिशा और राह मिलेगी?  यह कहीं नहीं दिखाई देता था।  लगता था पूरा भारतवर्ष अब भी खंड खंड में बंटा हुआ था।  वे सोचने लगे।  इस माला का धागा इतना कमजोर है कि कहीं टूट न जाए।  किस तरह वह सूत्र मिलेगा जिन से एक नया मजबूत धागा बुना जा सके, जिस में  इस माला के धागे के टूटने और बिखर जाने के पहले  माला के मनकों को फिर से एक साथ पिरो दे।  सोचते सोचते निद्रा ने उन्हें आ घेरा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

12 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

निराशा तो खैर हर तरफ दिख रही है सिवाय उत्साह का विषय आपकी जनतन्तर कथा बनती जा रही है.

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

इस कथा से आशा का नया संचार होगा .

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत गति पकड चुकी है ये कथा. सुंदर...


बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....


रामराम.

ghughutibasuti ने कहा…

देखिए क्या होता है। हम आशा को ही क्लस कर थामे रह सकते हैं,वही कर रहे हैं।
घुघूती बासूती

Himanshu Pandey ने कहा…

इकबाल का यह शेर याद आता है, कहीं कुछ आशा भर दे तो ठीक -
"पिरोना एक ही तसवीह में इन बिखरे दानों को
जो मुश्किल है तो मुश्किल को आसाँ करके छोड़ूँगा ।"

आमीन । जय हो जनतन्तर कथा !

Abhishek Ojha ने कहा…

जनता तो हर जगह स्तब्ध है ! किसे चुने ! अंधों में काने भि नहीं मिल रहे.

Anil Pusadkar ने कहा…

हर ओर निराशा ही है और सब कुछ महज़ औपचारिकता है,देश का चलना भी।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

एक बात तो तय है कि माला के मनकों को जुड़ा रखने के लिए मजबूत धागे का सूत्र राजनीतिज्ञों में तो नहीं ही है.

Arvind Mishra ने कहा…

माला -हैदराबादी मोतियों की याद हो आयी !

Priyankar ने कहा…

हाल तो जो है सो है पर सूत्रधार की पारम्परिक शैली बहुत जमी .

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

दक्खिन की जनता अजब है। उत्तर के लॉजिकानुसार वोट नहीं देती!

RAJ SINH ने कहा…

दिनेश जी आपका आक्लन और तर्जे बयानी दोनो ही बेजोड . उत्तर भारत के लिये अछ्छी बात यह है अब उस्के और हिन्दी के लिये घ्रिणा कुछ कम हुयी है .