@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नवंबर 2008

रविवार, 30 नवंबर 2008

कहाँ तक गिरेगी राजनीति?

राजस्थान में 4 दिसम्बर को विधानसभा के लिए मतदान होगा। मेरे शहर कोटा में दो पूरे तथा एक आधा विधानसभा क्षेत्र है जो कुछ ग्रामीण क्षेत्र को जोड़ कर पूरा होता है। वैसे तो इस इलाके को बीजेपी का गढ. कहा जाता है। लेकिन इस बार कुछ अलग ही नजारा है।

मेरे स्वयं के विधानसभा क्षेत्र से और एक अन्य विधानसभा क्षेत्र से राजस्थान के दो वर्तमान संसदीय सचिव बीजेपी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों को संघर्ष करना पड़ रहा  है। संघर्ष का मूल कारण उन दोनों का जनता और कार्यकर्ताओँ के साथ अलगाव और एक अहंकारी छवि का निर्माण कर लेना है।

कुछ दिन पहले मुझे दो अलग अलग लोगों के टेलीफोन मिले। दोनों ही बीजेपी के सुदृढ़ समर्थक हैं। दोनों ने ही बीजेपी उम्मीदवारों को हराने के लिए काम करने की अपील मुझे की। कारण पूछने पर उन्हों ने बताया कि भाई साहब इन दोनों ने राजनीति को अपनी घरेलू दुकानें बना लिया है, ये दुकानें बन्द होनी ही चाहिए। इस का अर्थ यह है कि बीजेपी की घरेलू लडाई को जनता तक पहुँचा दिया गया है।

चुनाव ने नैतिकता को इतना गिरा दिया है कि एक घोषित संत मेरे विधानसभा क्षेत्र में निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं। ब्राह्मणों से उन्हें वोट देने की अपील की जा रही है। कल तो हद हो गई कि बीजेपी के अनेक पदाधिकारी पार्टी से त्यागपत्र दे कर संत जी के पक्ष में खड़े हो गए। अपनी लुटिया को डूबते देख कल ही एक तथाकथिक संत ने बीजेपी उम्मीदवार का अपने ठिकाने पर स्वागत करते हुए घोषणा कर दी कि संसदीय सचिव भले ही बनिए हैं लेकिन इन की पत्नी तो ब्राह्मण है इस लिए सभी ब्राह्मणों को इन्हें ही वोट देना चाहिए। मैं ने चुनावी राजनीति के इतना गिर जाने की उम्मीद तक नहीं की थी।

शनिवार, 29 नवंबर 2008

आतंकवाद के विरुद्ध प्रहार

कल 'अनवरत' और 'तीसरा खंबा' पर मैं ने अपनी एक अपील 'यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं' प्रस्तुत की थी। अनेक साथियों ने उस अपील को उचित पाते हुए अपने ब्लाग पर और अन्यत्र जहाँ भी आवश्यक समझा उसे चस्पा किया। उन सभी का आभार कि देश-जागरण के इस काम में उन्हों ने सचेत हो कर योगदान किया।

कल के दिन अनेक ब्लागों के आलेखों पर मैं ने टिप्पणियाँ की हैं। अनायास ही इन्हों ने कविता का रूप ले लिया। मैं इन्हें समय की स्वाभाविक रचनाएँ और प्रतिक्रिया मानता हूँ। सभी एक साथ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोई भी पाठक इन का उपयोग कर सकता है। यदि चाहे तो वह इन के साथ मेरे नाम का उल्लेख कर करे। अन्यथा वह बिना मेरे नाम का उल्लेख किए भी इन का उपयोग कहीं भी कर सकता है। मेरा मानना है कि यह आतंकवाद के विरुद्ध इन का जिस भी तरह उपयोग हो, होना चाहिए।

ईश्वर का कत्ल
  • दिनेशराय द्विवेदी
कत्ल हो गया है
ईश्वर
उन्हीं लोगों के हाथों
पैदा किया था
जिन्हों ने उसे
मायूस हैं अब
कि नष्ट हो गया है।
उनका सब से बढ़ा
औज़ार





अब तो शर्म करो

  • दिनेशराय द्विवेदी
तलाशने गया था वह
अपनों के कातिलों को 


कातिल पकड़ा गया
तो कोई अपना ही निकला


फिर मारा गया वह 

अपना कर्तव्य करते हुए,

अब तो शर्म करो!


दरारें और पैबंद

  • दिनेशराय द्विवेदी
दिखती हैं
जो दरारें
और पैबंद
यह नजर का धोखा है 


जरा हिन्दू-मुसमां
का चश्मा उतार कर
अपनी इंन्सानी आँख से देख


यहाँ न कोई दरार है
और न कोई पैबंद।




आँख न तरेरे
  • दिनेशराय द्विवेदी
शोक!शोक!शोक!

किस बात का शोक?
कि हम मजबूत न थे
कि हम सतर्क न थे
कि हम सैंकड़ों वर्ष के
अपने अनुभव के बाद भी
एक दूसरे को नीचा और
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के
नशे में चूर थे। 


कि शत्रु ने सेंध लगाई और
हमारे घरों में घुस कर उन्हें
तहस नहस कर डाला।

अब भी
हम जागें
हो जाएँ भारतीय 


न हिन्दू, न मुसलमां 
न ईसाई


मजबूत बनें
सतर्क रहें 


कि कोई
हमारी ओर
आँख न तरेरे।





बदलना शुरू करें

  • दिनेशराय द्विवेदी
हम खुद से
बदलना शुरू करें
अपना पड़ौस बदलें
और फिर देश को
रहें युद्ध में
आतंकवाद के विरुद्ध
जब तक न कर दें उस का
अंतिम श्राद्ध!




युद्धरत

  • दिनेशराय द्विवेदी

वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर

ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का

आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं

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यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं
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यह शोक का दिन नहीं,
यह आक्रोश का दिन भी नहीं है।
यह युद्ध का आरंभ है,
भारत और भारत-वासियों के विरुद्ध
हमला हुआ है।
समूचा भारत और भारत-वासी
हमलावरों के विरुद्ध
युद्ध पर हैं।
तब तक युद्ध पर हैं,
जब तक आतंकवाद के विरुद्ध
हासिल नहीं कर ली जाती
अंतिम विजय ।

जब युद्ध होता है
तब ड्यूटी पर होता है
पूरा देश ।
ड्यूटी में होता है
न कोई शोक और
न ही कोई हर्ष।
बस होता है अहसास
अपने कर्तव्य का।

यह कोई भावनात्मक बात नहीं है,
वास्तविकता है।
देश का एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री,
एक कवि, एक चित्रकार,
एक संवेदनशील व्यक्तित्व
विश्वनाथ प्रताप सिंह चला गया
लेकिन कहीं कोई शोक नही,
हम नहीं मना सकते शोक
कोई भी शोक
हम युद्ध पर हैं,
हम ड्यूटी पर हैं।

युद्ध में कोई हिन्दू नहीं है,
कोई मुसलमान नहीं है,
कोई मराठी, राजस्थानी,
बिहारी, तमिल या तेलुगू नहीं है।
हमारे अंदर बसे इन सभी
सज्जनों/दुर्जनों को
कत्ल कर दिया गया है।
हमें वक्त नहीं है
शोक का।

हम सिर्फ भारतीय हैं, और
युद्ध के मोर्चे पर हैं
तब तक हैं जब तक
विजय प्राप्त नहीं कर लेते
आतंकवाद पर।

एक बार जीत लें, युद्ध
विजय प्राप्त कर लें
शत्रु पर।
फिर देखेंगे
कौन बचा है? और
खेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीच
कभी न आने के लिए चला गया
जीवन यात्रा छोड़ कर।
हम तभी याद करेंगे
हमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगे
अपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,
एक साथ
विजय की खुशी के साथ।

याद रहे एक भी आंसू
छलके नहीं आँख से, तब तक
जब तक जारी है युद्ध।
आंसू जो गिरा एक भी, तो
शत्रु समझेगा, कमजोर हैं हम।

इसे कविता न समझें
यह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा का
युद्ध में कविता नहीं होती।

चिपकाया जाए इसे
हर चौराहा, नुक्कड़ पर
मोहल्ला और हर खंबे पर
हर ब्लाग पर
हर एक ब्लाग पर।

++++++++++++++++++++++++++++++

बुधवार, 26 नवंबर 2008

सब से छोटी बहर की ग़ज़ल

कुछ दिन पहले मैं ने अपने दोस्त पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की छोटी बहर की दो ग़ज़लें पेश की थीं। तब मुझे कतई ये गुमान न था कि उन में से एक दुनिया भर में इकलौती सबसे छोटी बहर की ग़ज़ल भी है। पिछले दिनों जब वे अपने भतीजे की शादी में मिले तो उन से अनवरत पर प्रकाशित इस ग़ज़ल का जिक्र किया तो उन्हों ने बताया कि किसी शायर की एक सात मात्राओं की ग़ज़ल दुनिया की सब से छोटी ग़ज़ल के रूप में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस् में दर्ज है। उन की यह ग़ज़ल सिर्फ पाँच मात्राओं की है।

आइए उन की इस ग़ज़ल को उन्हीं की एक और छोटी बहर की ग़ज़ल के साथ फिर से पढ़ने का आनंद प्राप्त करें .....


आ गए किस मुक़ाम पर  
........................पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’



सुब्ह काम पर
शाम जाम पर

इश्क़ में जला
हुस्न बाम पर

दिल फिसल गया
‘मीम’ ‘लाम’ पर

रिन्द पिल पड़े
एक जाम पर

ग़ारतें मचीं
राम-नाम पर

आ गए ‘यक़ीन’
किस मुक़ाम पर


और ... 
दुनिया की सब से छोटी बहर की ग़ज़ल
हम चले

 ..........................पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

हम चले
कम चले

आए तुम
ग़म चले

तुम रहो
दम चले

तुम में हम
रम चले

हर तरफ़
बम चले

अब हवा
नम चले

लो ‘यक़ीन’
हम चले 
*******************************

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

सब तें मूरख उन को जानी। जनता जिन ने मूरख मानी।।

अनवरत के आलेख पर एक टिप्पणी आई .....
आज तक जैसे लोग चुनकर आए और जिस तरह आए, उससे तो यही मानना पड़ता है कि जनता पागल नहीं तो कम से कम बेवकूफ ज़रूर है।  वरना क्यों कोई सडांध और बीमारी के बीच रहना चाहेगा? वह भी तब जब सारे काम ईमानदारी से करवाने का ब्रह्मास्त्र जनता के ही हाथ में हो?

 इस टिप्पणी से सहमति की बात तो कोसों दूर है, इस ने मेरा दिल गहरे तक दुखाया। ऐसा नहीं है कि यह वाक्य पहली बार जेहन में पड़ा हो। रोज, हाँ लगभग रोज ही कोई न कोई यह बात मेरे कान में डाल देता है। लेकिन या तो उसे लोगों की नासमझी समझ कर छोड़ देता हूँ। ऐसी ही बात कोई सुधी कहता है तो पता लगता है, हम ने ही उसे गलत समझा था। उसे अभी सुध आने में वक्त लगेगा।

उन मित्र का नाम मुझे पता नहीं, वे  बनावटी नाम से ही ब्लॉग जगत में उपस्थित हैं। पहचान छुपाने के पीछे उन की जरूर कोई न कोई विवशता रही होगी। मुझे उन का नाम जान ने में भी कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मुझे जीवन में जब जब भी लगा कि कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाना चाहता है तो मैं ने उसे जान ने का प्रयत्न कभी नहीं किया। जान भी लूँ तो उस से हासिल क्या? जब कभी मुझे लगा कि मैं कहीं अवाँछित हूँ, तो मैं वहाँ से हट गया। बहुत  ब्लॉग हैं जहाँ लगा कि मैं टिप्पणीकार के रूप में अवांछित हूँ तो मैं ने वहाँ जाना बन्द कर दिया। आखिर हर किसी को अपनी निजता को बनाए रखने का अधिकार है। मैं हर किसी कि निजता की रक्षा का हामी हूँ, सिर्फ अपनी खुद की निजता के सिवा।

मुझे संदर्भित टिप्पणीकार की समझ से भी कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जनता  एक समष्टि है, उस के प्रति तनिक भी असम्मान मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाया। मुझे लगता है जैसे मेरे ईश्वर का अपमान कर दिया गया है। लगता है जैसे मेरी अपनी भावनाएँ किसी ने चीर दी हैं। 

आखिर यह जनता क्या है?

जी,  जनता में मैं हूँ, आप हैं, सारे ब्लागर हैं, सारे टिप्पणीकार हैं, सारे पाठक हैं।
जनता में मेरे माता-पिता हैं, ताई है, चाची है, ताऊ हैं, चाचा हैं। बेटे और बेटी हैं, भतीजे-भतीजी हैं।मुहल्ले के बुजुर्ग हैं, स्कूल और कॉलेज में पढने वाले बच्चे हैं, और वे भी हैं जो किसी कारण से स्कूल का मुँह नहीं देख पाए या कॉलेज तक नहीं जा सके। आप के हमारे नाती है पोते हैं।

जनता में मेरे अध्यापक हैं, गुरू हैं। जनता में राम हैं, जनता में कृष्ण हैं, जनता में ही ईसा और मुहम्मद हैं। जनता में ही बुद्ध हैं, गुरू-गोविन्द हैं।

कुदरत ने इन्सान को दिमाग दिया, कि वह कुछ सोचे, कुछ समझे और फिर फैसले करे। मैं भी ऐसा ही करता हूँ। लेकिन कभी मेरा इन्सान फंस जाता है। दिमाग काम करने से इन्कार कर देता है। तब मेरे पास एक ही रास्ता बचता है,  जनता के पास जाऊँ। मैं जाता हूँ। वह मुझे बहुत प्रेम करती है। मुझे समझती है। वह प्यार से मुझे बिठाती है, थपथपाती है, मुझे आराम मिलता है, वह फिर से सोचना सिखाती है। जब फूल मुऱझा कर गिरने को होता है तो वह उसे फिर से जीवन देती है। जब अंधेरा छा जाता है, तो वही मार्ग दिखाती है। वह मुझे प्राण देती है, मैं जी उठता हूँ।

पश्चिम से ले कर पूरब तक सब परेशान हैं, मंदी का जलजला है, बड़े बड़े किले गिर रहे हैं, प्राचीरें ढह रही हैं, लोग उन के मलबे के नीचे दबे कराह रहे हैं, कुछ उन के नीचे दफ्न हो गए हैं कभी वापस न लौटने के लिए। हर कोई कांप रहा है। फिर भी विश्वास व्यक्त किया जाता है -यह तूफान निकल जाएगा, जितना नुकसान करना है कर लेगा। लेकिन  दुनिया फिर से चमन होगी, बहारें लौटेंगी। फिर से खिलखिलाहटें और ठहाके गूंजेंगे। लेकिन इस आस-विश्वास का आधार क्या है?

वही जनता न? वह फिर से कुछ करेगी, और खरीददारी के लिए बाजार आएगी।

 1975 से 1977 तक देश एक जेलखाना था।  नेता बंद थे और जनता भी। जेलखाने से पिट कर निकले तो उत्तर-दक्षिण, पूरब-पच्छिम एक साथ हो लिए।  उन्हें कतई विश्वास नहीं था कि कुछ कर पाएँगे। वह जनता ही थी जिसने एक तानाशाह के सारे कस-बल निकाल दिए और उन्हें सब-कुछ बना दिया।  लेकिन जब पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण जनता को मूर्ख मान फिर से अपनी ढपली अपना राग गाने लगे, तो उसी ने उन्हें ठिकाने लगा दिया। बताया कि तुम से तो कस-बल निकला तानाशाह अच्छा।

वह चाहती तो न थी,  कि तानाशाह वापस आए, चाहे उस के कस-बल निकल ही क्यों न गए हों। पर विकल्प कहाँ था? विकल्प आज भी कहाँ है? इधर कुआँ है उधर खाई है। दोनों में से एक को चुनना है। क्या करे? वह स्तंभित खड़ी है, एक ही स्थान पर। जिधर से झोंका आता है, बैलेंस बनाने को उसी ओर हो जाती है।  यही एक मार्ग है उस के पास, जब तक कि खाई न पटे, या कुंएँ के पार जाने की कोई जुगत न लग जाए। जिस दिन जुगत लग जाएगी, उस दिन दिखा देगी कि वह क्या है?

सच कहूँ, मेरे लिए,  जनता भगवान है, वही दुनिया रचती है, वही ध्वंस भी करती है और फिर रचती है।
कैसे कहूँ वह मूरख है? वह तो ज्ञानी है। उस सा ज्ञानी कोई नहीं।
तो मूरख कौन?
सब तें मूरख उन को जानी।   जनता जिन ने मूरख मानी।।

सोमवार, 24 नवंबर 2008

तुलना प्रत्याशियों का, कचरे से

कोटा नगर में दो विधानसभा क्षेत्र उत्तर और दक्षिण हैं, इस के अतिरिक्त एक लाड़पुरा विधानसभा क्षेत्र भी है जिस में कोटा नगर की आबादी का एक हिस्सा तथा शेष ग्रामीण इलाका आता है। इस तरह कोटा नसभी अखबारों के कोटा संस्करणों में कोटा नगर की तीन विधान सभा क्षेत्रों के प्रत्याशियों के नित्य के कार्यकलाप नित्य पढने को मिल जाते हैं। आज के लगभग सभी समाचार पत्रों में खबर है कि प्रत्याशी जहाँ जहाँ भी प्रचार के लिए गए उन्हें विभिन्न वस्तुओं से तोला गया।

इन वस्तुओं में लड्डू और फल तो थे ही फलों की विभिन्न किस्में भी थी। कहीं केलों से तुलाई हो रही थी तो कहीं अमरूदों से। कहीं कहीं सब्जियों से भी उन्हें तोला जा रहा था। कहीं मिठाइयों से भी तोला गया था। तुलाई होने के पश्चात यह सब सामग्री प्रत्याशी के साथ आए लोगों और क्षेत्र के नागरिकों में वितरित की जा रही है। बाकी शेष सामग्री तो ठीक है उसे तुरंत ही खा-पी कर निपटा दिया जाता है। लेकिन सब्जियों का क्या होता है? पता लगा यह महिलाओं को रिझाने का तरीका है। जनसंपर्क के दौरान घरों पर जो भी महिलाएँ मिलती हैं उन में यह सब्जी वितरित कर दी जाती है।

कोटा की कचौड़ियाँ मशहूर हैं, कोई कोटा आए और कोटा की कचौड़ियाँ न खाए तो समझा जाता है उस का कोटा आना बेकार हो गया। ये दूसरे शहरों और विदेश तक में निर्यात होती हैं। तो कोटा में प्रत्याशी विभिन्न खाद्य सामग्री से तुल रहे हों तो कचौड़ियाँ कैसे पीछे रह सकती थीं। यहाँ इन्हें कचौरी कहा जाता है। वैसे भी प्रत्याशी जी के साथ चलने वाली फौज को नाश्ते के नाम पर कचौरियाँ और चाय ही तो मिलती है। तो एक प्रत्याशी जी कचौरियों से भी तुल गए।

अदालत में जब इन का चर्चा हो रहा था। तब किसी ने कहा प्रत्याशी को तौलने के लिए तो कम से कम 60 से 90 किलो तक कचौरियाँ चाहिए होंगी इतनी कचौरियाँ एक मुश्त मिलना ही कठिन है। एक सज्जन ने राज बताया कि प्रत्याशी को ऐसे थोड़े ही तौला जाता है। टौकरों में कचौरियाँ भरी जाती हैं तो उन के नीचे वजनी पत्थर भी होते हैं ताकि कम से ही काम चल जाए। पत्थर फोटो में थोड़े ही आते हैं।

एक सज्जन कचौरियों और कचरे के नाम साम्य से प्रभावित थे। उन्हों ने सुझाव दे डाला कि कोटा में पिछले पन्द्रह सालों से भाजपा का नगर निगम पर कब्जा चला आ रहा है लेकिन कचरा है कि कभी साफ होने का नाम ही नहीं लेता है। अनेक मोहल्लों में तो यह शाश्वत समस्या हो चुकी है। उन का कहना था कि भाजपा के प्रत्याशियों को तो कचरे से तौला जाना चाहिए।

इस पर दूसरे ने सुझाव दिया कि यह इतना आसान नहीं है। तीसरा बोला यह कोई ऐसे ही थोड़े ही हो जाएगा। उस के लिए तो एक गुप्त योजना बनाई जाएगी। खूबसूरत बोरों और कार्टनों में बन्द कर के कचरा रखा जाएगा प्रत्याशी जी को उन बोरों और कार्टनों से तोला जाएगा। असल मजा तो तब आएगा, जब उन कार्टनों और बोरों को सामग्री वितरण के लिए खोला जाएगा।

बहुत देर तक यह चर्चा चलती रही। लोग आनंद लेते रहे। मैं सोच रहा था कि क्या आज के प्रत्याशी कचरे से तोलो जाने लायक ही रह गए हैं?  जितना वजन, उतना कचरा!

शनिवार, 22 नवंबर 2008

कला की क्यारी में एक ब्याह

पिछले दो दिन से सुबह और रात के समय चौड़ी पट्टी (ब्रॉडबैंड) लिप लिप कर रही है, आज सुबह भी यही हाल रहा। नतीजा है कि चिट्ठे पढ़ने में कमी हो गई। दो दिन काम  भी बहुत रहा, समय नहीं रहा। कल सर्दी की लपट और रात्रि जागरण से आज का दिन सिर जकड़ा रहा।शनिवार के कारण जल्दी घर आ कर कुछ देर सोया तो हलका और स्वस्थ हो गया। ऐसा करना जरूरी भी था। शिवराम जी के तीसरे पुत्र पवन की शादी थी। कल सगाई में नहीं जा सका था। पता था आज उलाहना मिलेगा, जैसे ही शिवराम जी मिले वह भी मिला। कहने लगे आप मेरे परिवार में अपनी स्थिति नहीं जानते। सब लोग आप को पूछते रहे यहां तक कि शशि (उन का मँझला पुत्र) के ससुर आप को पूछ रहे थे। मैं ने क्षमा मांगी। उन सभी से जो कल मुझे पूछ रहे थे। अभी 11 बजे वहाँ से लौटा हूँ।
शिवराम जी का परिवार कला की क्यारी है। वे खुद कवि, नाटककार, नाट्यनिर्देशक, समालोचक संपादक हैं, छोटा भाई पुरुषोत्तम यकीन जो दुनिया में सबसे छोटी बहर की ग़जल लिख चुका है और शायद राजस्थान में सब से अधिक ग़जलें लिखने वाला शायर है। ज्येष्ठ पुत्र रवि पेशे से इंजिनियर लेकिन श्रेष्ठ चित्रकार है और सैंकड़ों कविता पोस्टरों का रचना कर चुका है साथ ही नायाब कवि भी। शशि और पवन नाटकों के कलाकार रहे हैं। मँझला बेटा शशि मुंबई में है तो मेरी बेटी पूर्वा का कम से कम एक दिन उस के परिवार में बीतता है।
इस कला की क्यारी की एक पौध का विवाह हो तो उस में कला की छाप होना अवश्यंभावी था। उस की बानगी इस विवाह के आमंत्रण से मिल सकती है। जिसे मैं यहाँ आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।

नोट : आमंत्रण का पूरा आनंद लेने के लिए दोनों चित्रों को क्लिक करें 

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यह कविता किस ने लिखी यह मैं शिवराम जी से पूछना भूल गया। पर मुझे लगता है यह रवि की है। 

पहली टिप्पणी आने के बाद नहीं रहा गया, शिवराम जी से पूछा तो अनुमान सही था। कविता रवि की ही है।  



  
अन्दर बाएँ छपा चित्र पवन के एक छाया चित्र का रवि द्वारा निर्मित रेखांकन है। पूरा आमंत्रण रवि ने खुद अपनी हस्तलिपि में लिखा है। 

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विवाह के आमंत्रण पत्र पर छपी कविता .......


विवाह बंधन
                                  * रविकुमार

यह बंधन नहीं

शायद बंधनों से मुक्त होना है


प्रेम और जज़्बात की

नवीन सृष्टि में खोना है


यह मुक्ति रचती है

अपने ख़ुद के नये बंधन


अपने अस्तित्व के

अहसास की

रोमांचक शुरुआत है यह


दो  धड़कनों की

एक आवाज़ है यह

एक नए जहाँ का आग़ाज है

.
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

आठवें विषय में एम ए

शाम तीन बजे मैं चिन्ता में डूबा अपनी कुर्सी पर बैठा था कि शाम तक कैसे लक्ष्य पूरा कर सकूंगा। मुझे जल्द से जल्द अदालत के काम पूरे कर अपने लक्ष्य के लिए जाना था। तभी कोई बगल में आ खड़े होने का अहसास हुआ। सीने तक लटकी सलेटी दाढ़ी और कंधों तक झूलते सर के बाल कुर्ता पायजामा पहने कोई खड़ा था। देखा तो चौंक गया, वर्मा जी थे। पुराने बुजुर्ग साथी। मैं खड़ा हुआ, दोनों गले मिले तो आस पास के वकील देखने लगे। मैं ने अपने पास उन्हें बिठाया। पूछा -कैसे हैं? स्कूल कैसा चल रहा है? बेटे क्या कर रहे हैं? आदि आदि। अंत में पूछा -कैसे यहाँ आने का कष्ट किया। कहने लगे -मुझे कोई राय करनी थी। क्या विश्वविद्यालय का परीक्षार्थी एक उपभोक्ता है? मैं विचार में पड़ गया। कहा देख कर बताऊंगा।

मैं ने उन से पूछा कि मामला क्या है? परीक्षा में पेपर दिया,  नंबर आने चाहिए थे 45, मगर आए 00 ही। पुनर्परीक्षण कराया तो 04 हो गए। मैं संतुष्ट नहीं हूँ। अदालत में मुकदमा करना चाहता हूँ। मैं ने पूछा -तो अब तक कारस्तानी जारी है? कहने लगे -जब तक दम है, जारी ही रहेगी।

ये विष्णु वर्मा थे। वर्मा सीनियर सैकंडरी स्कूल के संस्थापक। उन्हों ने बाराँ में आ कर स्कूल खोला था। कि एक कविगोष्ठी में हाजिर हुए, वहीं पहचान हुई। मैं बी. एससी. का विद्यार्थी था। लेकिन नगर में साप्ताहिक गोष्ठियों का एक मात्र आयोजक भी। एक गोष्ठी में कहने लगे -मेरे पास ग्यारहवीं के दस बारह विद्यार्थी कोचिंग के लिए आते हैं और जीव-विज्ञान का शिक्षक नहीं मिल रहा है। आप पढ़ा देंगे? मैं ने हामी भर ली। पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे अंतरंगता बनी और बढ़ती गई।

एक दिन मुझे कहने लगे -दिनेश जी पहली कक्षा का एक बच्चा बहुत परेशान कर रहा है। चार माह हो गए हैं। वह कुछ लिखता ही नहीं है। उस के हाथ में बत्ती (खड़िया पैंसिल) पकड़ाते हैं हाथ पकड़ कर लिखना सिखाते हैं तो जहाँ तक हाथ पकड़ कर लिखाते हैं लिखता है। जहाँ छोड़ते हैं वहीं बत्ती पकड़े रखे रखता है। उस की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। जरा आप देखो।

मैं दूसरे दिन पहली कक्षा में हाजिर। उस बच्चे को देख कर मैं भी दंग रह गया। कोई तरकीब उस पर काम ही नहीं कर रही थी। मैं ने उसे ब्लेक बोर्ड पर बुलाया और बिंदुओं से वर्णमाला का क अक्षर अनेक बार लिखा। उस के सामने पहले अक्षर पर मैं ने चॉक से क बनाया , दूसरे अक्षर पर उस के हाथ में चॉक दे कर उस का हाथ पकड़ कर क बनवाया। तीसरे पर उसे बनाने को कहा। उस का हाथ रुक गया। फिर आधे अक्षर पर उस का हाथ पकड़ कर बनाया और आगे उसे बनाने को कहा तो उस ने पूरा क बना दिया मैं ने ब्लेक बोर्ड पर वर्णमाला के लगभग सभी अक्षर उस दिन बिंदुओं के बना कर उस से उन पर लिखवाया। उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिए। फिर उसे बिना बिंदुओं के लिखने को कहा तो वैसे भी उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिया। वह वर्णमाला के सभी अक्षर लिखने लगा। मैं उसे वर्मा जी को सौंप कर आ गया। उस के बाद उस बालक को कभी लिखने में समस्या नहीं आई।

वर्मा जी तब किसी एक विषय में एम ए थे, और एलएल बी भी, बी एड भी की हुई थी। फिर जब मैं वकालत में आ गया तो पता लगा कि उन को शौक लगा है, अलग विषय में एम ए करने का। वे फिर पढने लगे। आज पता लगा कि वे सात विषयों में एम. ए. कर चुके हैं। आठवें विषय में कर रहे हैं, तब उन के साथ एक पेपर में 00 अंक आने का हादसा हुआ। हम ने साथ बैठ कर कॉफी पी। उन से पूछा कि -कितने साल के हो गए हैं?  तो बता रहे थे -छिहत्तर में चल रहा हूँ।  यह एम ए कब तक करते रहेंगा? तो बताया -जब तक पढ़ने लिखने की क्षमता रहेगी। जिस साल परीक्षा न दूंगा, तो लगेगा कि कोई काम ही नहीं रह गया है। लगता है प्रोफेशनल विद्यार्थी हो गया हूँ।

चार बजे घड़ी देख कर बोले -अब चलता हूँ ट्रेन का समय हो गया है। तीन-चार दिन में मिलूंगा। मेरा मुकदमा लड़ना है। मैं ने उन्हें ऑटो में बिठाया और अपने काम में जुट गया।

बुधवार, 19 नवंबर 2008

पहली वर्षगाँठ की पूर्व संध्या

आज पहली वर्षगांठ की पूर्व संध्या है। कल साल गिरह होगी अनवरत की। एक साल, महज एक साल कोई लंबा अर्सा नहीं होता लेकिन लगता है कि बहुत-बहुत दूर निकल आया हूँ। इतनी दूर कि वह छोर जहाँ से चला था, नजर नहीं आता, या किसी धुंध में छिप गया है। आगे आगे चलता हुआ नजर आता है तीसरा खंबा मेरा पहला प्रयास।

यह अनवरत ही था जिसने हिन्दी ब्लागरी के पाठकों के साथ मेरी अंतरंगता को स्थापित किया। 28 अक्टूबर 2007 को तीसरा खंबा का प्रारंभ हुआ था। मन में बात थी कि जिस न्याय-व्यवस्था में एक अधिवक्ता के रुप में 29 साल जिए हैं, उस की तकलीफों को एक स्वर दूं, जो लोगों को जा कर बताए कि जिसे वे बहुत आशा के साथ देखते हैं उस की खुद की तकलीफें क्या हैं? लेकिन एक पखवाड़ा भी न गुजरा था कि एक बात तकलीफ देने लगी कि कानून और न्याय व्यवस्था एक नीरस राग है और इस के माध्यम से शायद मैं अपने पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकूँ। इस के लिए मुझे खुद को खोल कर अपने पाठकों के बीच रखना पडे़गा। तभी वे शायद यह समझ पाएँ कि तीसरा खंबा लिखने वाला कोई काला कोट पहने वकील नहीं बल्कि एक उन जैसा ही साधारण मध्यवर्गीय व्यक्ति है जो उन की जिन्दगी को समझ सकता है, उन की तकलीफें एक जैसी हैं। यही कारण अनवरत के पैदा होने का उत्स बना।

20 नवम्बर 2007 को अनवरत जन्मा तो उस का स्वागत हुआ। वह धीरे धीरे पाठकों में घुल मिल गया। जब निक्कर पहनता था, जब मैं काफी कुछ पढ़ने भी गया था तभी कभी यह इच्छा जनमी थी कि मैं लिखूँ और लोग पढ़ें। फिर कुछ कहानियां लिखीं कुछ लघु कथाएँ। उन दिनों शौकिया संवाददाता भी रहा, और कानून पढ़ते हुए दैनिक का संपादन भी किया। लेकिन जैसे ही वकालत में आया। सब कुछ भूल जाना पड़ा। यह व्यवसाय ऐसा था जिस का सब के साथ ताल्लुक था, लेकिन समय नहीं था। रोज कानून पढ़ना, रोज दावे और दरख्वास्तें लिखना रोज बहस करना और नतीजे लाना। एक वक्त था जब साल में दिन 365 थे और निर्णीत मुकदमों की संख्या 400 या उस से अधिक। इस बीच बहुत लोगों को सुना, पढ़ा। लेकिन कोशिश करते हुए भी खुद को अभिव्यक्त करने का अवसर ही नहीं था, सिवाय उन दस महिनों के जब एक दैनिक के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखा।

नाम के अनुरूप तीसरा खंबा को न्याय-प्रणाली के इर्द गिर्द ही रखा जाना था। उस से विचलित होना नाम और उस की घोषणा का मखौल हो जाता। अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया अनवरत ने। यहाँ जो चाहा वह सब लिखा। कुछ साथियों 'यकीन', 'महेन्द्र', 'शिवराम' और आदरणीय भादानी जी की एकाधिक रचनाओं को भी रखा। लोगों ने उसे सराहा भी, आलोचना भी हुई। पर  समालोचना कम हुई। लेखन की निष्पक्ष समालोचना का अभी ब्लागरी में अभाव है। लेकिन ऐसी समालोचना की जरूरत है जो लोगों के लेखन को आगे बढ़ा सके, उन्हें उन के अंतस में दबे पड़े उजास और कालिख को बाहर लाने में मदद करे। उन्हें हर आलेख के साथ एक सीढ़ी ऊपर उठने का अवसर दे।

संकेत रूप में कुन्नू सिंह का उल्लेख करना चाहूंगा। वे नैट के क्षेत्र में जो कुछ नया करते हैं, उसे पूरे उत्साह के साथ सब के सामने रखते हैं, बिलकुल निस्संकोच। उन का दोष यह है कि हिन्दी लिखने में उन से बहुत सी वर्तनी की अशुद्धियाँ होती हैं। हो सकता है लोगों को उन के इस वर्तनी दोष के कारण उन का लेखन कुरूप लगता हो। जैसा कि कुछ दिन पहले किसी ब्लागर साथी ने अपने आलेख में इसका उल्लेख भी किया। लेकिन रूप ही तो सब कुछ नहीं। किसी भी रूप में आत्मा कैसी है यह भी तो देखें। आज जब कुन्नू भाई ने तीसरा खंबा पर टिप्पणी की तो उस में हिज्जे की केवल दो त्रुटियाँ थीं। कुछ दिनों के पहले उन्होंने घोषणा की थी कि वे जल्दी ही हिन्दी लिखना भी सीख लेंगे। कुछ ही दिनों  में उन की यह प्रगति अच्छे अच्छे लिक्खाडों से बेहतर है। लोग चाहें तो मेरे इस कथन पर आज हंस सकते हैं, लेकिन मैं कह रहा हूँ कि वे इसी तरह प्रगति करते रहे और नियमित रूप से लिखते रहे तो वे चिट्ठाजगत की रैंकिंग में किसी दिन पहले स्थान पर हो सकते हैं।

शास्त्री जी ने खेमेबंदी का उल्लेख किया। जहाँ बहुत लोग होते हैं उन्हें एक खेमे में तो नहीं रखा जा सकता। हम जब स्काउटिंग के केम्पों में जाते थे तो वहाँ बहुत से तम्बू लगाने पड़ते थे। अलग अलग तम्बुओं में रह रहे लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती थी, लेकिन प्रतिद्वंदिता नहीं। सब लोग एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते थे। लक्ष्य होता था हर प्रकार के जीवन को बेहतर बनाना। वही हमारा भी लक्ष्य क्यों न हो? हो सकता है लोग अलग अलग राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित हों। एक को अन्यों से बेहतर मानते हों। लेकिन राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों का भी कुछ लक्ष्य तो होगा ही। यदि वह लक्ष्य मानव जीवन को ही नहीं सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन को बेहतर बनाना हो तो राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों के ये भेद एक दिन समाप्त हो ही जाएँगे। अगर यह एक लक्ष्य सामने हो तो सारे रास्ते चाहे वे समानांतर ही क्यों न चल रहे हों एक दिन कहीं न कहीं मिल ही जाएँगे और गणित के नियमों को भी गलत सिद्ध कर देंगे।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

शाम की दावत और भांवरें

सगाई समारोह से निकले तो दोपहर का पौने एक बज चुका था। कुछ देर में ही लंच शुरू होने वाला था। मैं होटल के कमरे में पहुँचा तो  वहाँ नजारा कुछ और था। पूरा कमरा हमारी ससुराल से कमरा खचाखच भरा था।मैं जैसे घुसा था वैसे ही उलटे पांव बाहर निकला। मैं ने सोचा शहर में किसी से मिल लिया जाए। होटल से बाहर निकलता उस से पहले ही पकड़ा गया। मेहमान आते जा रहे थे। अधिकांश परिचित और संबंधी। उन से बात करना भी तो उपलब्धि थी। हर एक से नयी नयी सूचनाएँ मिलती थीं। उन के साथ होटल के रिसेप्शन पर ही बैठ गया। बातें करता रहा और साथ साथ सुडोकू भी। उस दिन के दोनों अखबारों के सुड़ोकू हल करते करते लंच का बुलावा आ लिया। 

लंच के लिए जमीन पर पट्टियाँ लगी थीं। पत्तलें पत्तों स्थान पर कागज की थीं और दोने भी वैसे ही। भोजन मे कत्त थे, बाफले थे, चावल थे, दाल थी, गट्टे की सब्जी थी और थी हरे धनिये की चटनी। (इन सब की खसूसियत के लिए एक अलग पोस्ट की जरूरी है, वह फिर कभी।) मैं ने अपने लिए बिना घी का बाफला मंगा लिया। सब कुछ बहुत स्वादिष्ट था। अपनी खुराक से कुछ कम ही खा कर उठ लिए। फिर भी खाते ही रात की अधूरी नींद हावी होने लगी। हम खाने आखिरी पंगत (पंक्ति) में थे। होटल के अपने तल पर पहुँचे तो हॉल में मण्डप की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। देवी-देवताओं, पूर्वजों का विवाह में सम्मिलित होने के लिए आव्हान किया जा रहा था। यहाँ हवन होना था, और उस के बाद दुल्हिन के माता-पिता, भाई-भाभी जो पूजा में बैठे थे उन्हें और दुल्हिन और उस के भाई बहनों को कपड़े आदि की पहरावनी होनी थी। हमारा वहाँ कोई काम न था। महिलाओं को वहाँ होना था। हम ने महिलाओं को वहाँ भेजा और खुद बिस्तर के हवाले हो लिए। शाम को  पांच बजे तक मण्डप का काम चलता रहा। तब तक हमने सोने की कोशिश की। लेकिन शादी और निद्रा दोनों एक दूसरे के शत्रु हैं। कोई न कोई आता रहा, जगाता रहा। शाम को उठ कर कॉफी पी और फ्रेश हो कर नीचे आए तो जहाँ शादी की मुख्य दावत होनी थी वहाँ तैयारियाँ चल रही थीं। हम शहर घूमने निकल गए। बाजार देखा। रविवार होने के बावजूद रौनक थी। अभी साप्ताहिक अवकाश की आदत झालावाड़ के बाजार को आम नहीं हुई थी। पान खाया, बींदणी और सालियों के लिए बंधवाया। वापस आए तो सभी महिलाएँ सांझ की दावत के लिए सजने लगी थीं।  कमरे पर पहुँचे तो सलहज अपनी ननदों को विदाई उपहार दे रही थी। उसे पता था कि सब भांवर के वक्त ही निकलना शुरू कर देंगे।

आठ बजे करीब दावत शुरू हो गयी। वहाँ आधे लॉन में बूफे की व्यवस्था थी, आधे में दूल्हा-दुल्हिन के लिए मंच सजा था। हम घूमते हुए देखते रहे क्या क्या है दावत में। नौ बजे करीब जब आधे से अधिक लोग भोजन कर चुके थे तब बारात आई, तोरण मारा गया। दूल्हे को मंच पर लाया गया। वहीं उस के कलश बंधाया गया। फिर वरमाल हुई। हमने इस बीच भोजन पर हाथ साफ करना शुरू किया। वहीं हमारे एक मुवक्किल मिल गए हमें अपनी बाइक पर बिठा कर घर ले गए। हमें  मोबाइल चार्ज करना था यह भी लोभ था कि एक बार नेट देख लेंगे। उन के यहाँ जा कर नेट पर मेल देखी भर, एक दो जरूरी मेल का जवाब दिया अंग्रेजी में, हिन्दी टाइपिंग उपलब्ध नहीं थी। वापस आ गए। दावत का अंत चल रहा था। आते जाते रास्ते में सर्दी लगी थी।खुद भी कॉफी पी और छोड़ने आने वाले को भी पिलाई। कमरे पर पहुँचे तो ससुराल का कुनबा दूल्हे-दुल्हिन की पगपूजा में देने वाले उपहार बींदणी के हवाले कर अकलेरा जा चुके थे। हमारे साथ आई सालियाँ भी उन के साथ हमारे ससुर जी से मिलने के लिए उन के साथ चली गई थीं। कमरा खाली था। रात के एक बज रहे थे। हम वहीं सो गए। सुबह तीन बजे नींद खुली तो पीछे से पंडित जी की आवाज सुनाई दी। नव वर-वधू को गृहस्थी के गुर ऊंची आवाज में सिखाए जा रहे थे। यानी पगपूजा का वक्त हो चला था। बींदणी को उठा कर वहाँ भेजा। साढ़े चार बजे वर-वधू के साथ ऊपर आई तो आगे आगे ढोल बज रहा था। नींद खुल गई। वधू एक कमरे में चली गई, वस्त्र परिवर्तन के लिए। दुल्हे को हॉल में बिठा दिया। करीब एक घंटा लगा। वर-वधू की विदाई का समय हुआ तो वर की जूतियाँ गायब। यही एक अंतिम रस्म रह गई थी। खैर,  कुछ दे दिला कर सालियों से जूतियाँ वापस मिलीं। इस बीच हम फ्रेश हो लिए। इधर वर-वधू की विदाई हुई उधर हम ने अपना सामान अपनी कार में रखा और रात वाले मुवक्किल के घर आए। रात को मोबाइल वहीं छूट गया था। वहाँ चाय पीनी पड़ी। रवाना होते होते सात बज रहे थे।

पूरी शादी में जो खास बात थी कि लेन-देन, दान दहेज का प्रदर्शन न हुआ। वह कुछ खास हुआ भी न था। यह एक अच्छी बात थी। इन के दिखावे से समाज में प्रतियोगिता होती है और इन्हें बढ़ावा मिलता है। बहुत सी परंपराओँ का निर्वाह किया गया था। लेकिन फिर भी वह आनंद नहीं था जो तेंतीस बरस पहले हमारी शादी के वक्त में था। सादगी बहुत कम थी लेकिन आनंद बहुत था। कभी मौज आई तो उस शादी की दास्तान भी आम होगी।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

"सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी"

सुबह खटपट से नींद खुली। देखा तो हॉल के बाहर बरतन खड़क रहे थे, मैं उठ बैठा। रजाई से बाहर निकलते ही सर्दी का अहसास हुआ। सोचा हमें आवंटित कमरा खुला हो तो कुछ गरम पहनने को ले लिया जाए। बाहर निकले तो लंगर वाला गैस सुलगा कर दूध गरम कर रहा था। यानी मेरी कॉफी का इन्तजाम हो चुका था, दूध उबलते ही एक कप में चीनी और कॉफी ही तो मिलानी थी। मैं वहीं काउंटर पर खड़ा हो गया। सामने दूसरे तल पर जा रही सीढ़ियों पर छोटी वाली साली और बींदणी बैठी थी,  शायद चाय के इन्तजार में।  मोबाइल में समय देखा तो सवा चार हो रहे थे।  बींदणी कार्तिक में मुहँ-अंधेरे ही स्नान कर रही थी। मैं ने कहा -सात-आठ किलोमीटर दूर चन्द्रभागा में स्नान करा लाते हैं, आज विष्णु जी ससुराल से लौट रहे हैं, बड़ा पुण्य होगा, हम भी बहते जल में हाथ धो लेंगे। तो बोली -कल अखबार में पढ़ा था कि वहाँ पानी साफ नहीं है। यहाँ बाथरूम में ट्यूबवेल का साफ ताजा पानी आ रहा है, यहीं स्नान करेंगे। उन्हों ने चाय पी और कमरे वालों के लिए साथ ले ली।

कॉफी पी कर हम अपने कमरे में आए। बींदणी स्नान करने घुस गईथी। सालियाँ वहीं किसी कमरे में चली गईं जहाँ सुबह की संध्याएँ गाई जा रही थी। विनायक स्थापना होने के बाद से यह परंपरा है कि सुबह होने के पहले ही घर और पड़ोस की स्त्रियाँ मिल कर देवताओं के गीत और कुछ विवाह गीत गाती हैं। यूँ कहिए गीत से ही विवाह  वाले घर में दिन शुरू होता है। जब तक कमरे वाले सब स्नान न कर लें तब तक हमारा नंबर आने वाला न था। कमरे में बिस्तर खाली थे। रात केवल तीन घंटे ही सो सका था, मैं वापस रजाई के हवाले हो लिया। 

मैं स्नान कर के नीचे उतरा तब तक नौ बज चुके थे। नाश्ते की तैयारी थी। उस के बाद सगाई होनी थी। वैसे सगाई तो शादी होने के बहुत पहले ही हो जाया करती थी, जो रिश्ते के पक्के होने का प्रमाण होती थी। लेकिन सगाई अब दिखावे की होती है, और बहुत सारे लोग उसे न देखें तो उस का कोई अर्थ नहीं। इस लिए आम तौर पर लग्न झिलाने के दिन या  फिर शादी के दिन उस की रस्म पूरी की जाती है। देखने वाले यह देखते हैं कि सगाई में क्या क्या दिया गया? सगाई के पहले या बाद दुल्हन की गोद भरने की रस्म होती थी, उस का अस्तित्व अब खतरे में है। उस के साथ-साथ अंगूठी पहनाने की रस्म होने लगी है उसे नया नाम "रिंग सेरेमनी"  दे दिया गया है। यह काम भी सगाई के उपरांत निपटा लिया जाता है। कुल मिला कर समारोह  "सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी" हो चुका है।

उधर शेड वाले हॉल  में जहाँ रात को भोजन हुआ था। वहाँ सगाई की तैयारी थी। आधे हॉल में गद्दे और उस पर सफेद चांदनी बिछी थी। एक तरफ बीचों बीच दूल्हे की चौकी थी, पंडित जी बैठे तैयारी कर रहे थे। बाकी आधे हॉल में दूल्हे की चौकी की तरफ मुहँ किये पचास कुर्सियाँ करीने से लगी थीं। हॉल के बाहर के मैदान में मेजें सजी थीं जिन पर नाश्ता लगाया जा रहा था। कुछ ही देर में नाश्ता शुरू हो गया। कोटा की जैसी कचौड़ियां, दही- चटनी, खम्मन ढोकला, कलाकंद और सेव-नमकीन। सब कुछ स्वादिष्ट था। जी चाहता था सब कुछ डट कर खाएँ, पर पेट और दिन में बनने वाले कच्चे भोजन का खयाल कर केवल चखा और कॉफी पी ली। अब तक बहुत मेहमान आ चुके थे। मेरे ससुर जी के अलावा ससुराल पूरी ही आ चुकी थी, साले, उन की पत्नियाँ (सालाहेलियाँ), उन के बच्चे, ब्याहता लड़कियाँ और उन के पति, बच्चे। नजदीक और दूर के लगभग सभी रिश्तेदार, सब आपस में बतियाने लगे। नए नए समाचार मिल रहे थे। किस किस का तबादला हुआ? किसे नौकरी मिली? कौन पास हुआ,  कौन फेल? किस का रिश्ता किस से होने जा रहा है?  आने वाले दो महिनों में किस किस की शादियाँ होने वाली हैं। कौन कौन पिता, दादा, मामा, नाना, चाचा, ताऊ, बुआ, मौसी आदि बन गए हैं।

नाश्ता चल रहा था कि उधर सगाई में चल कर बैठने का हुकुम हो गया। दुल्हन के पिता गैर हाजिर थे। उन्हों ने रात को ही मुझे बता दिया था कि वे अकलेरा जाएँगे जहाँ उन का पदस्थापन है क्यों कि उस दिन निर्वाचन की महत्वपूर्ण बैठक है और उस से मुक्ति नहीं मिल सकी है। मुझे कह गए थे सगाई के वक्त उन की कमी मैं पूरी करूँ। मै वहाँ पहुँचा तो, लेकिन वहाँ दुल्हन के मामा मौजूद थे। मैं वह जिम्मेदारी उन्हें पूरी करने को कह कर आजाद तो हो गया लेकिन इस जिम्मेदारी से बरी नहीं कि सब कुछ ठीक से संपन्न हो जाए। मैं अपने फूफाजी के पास आ बैठा और बतियाने लगा। वे अपने बड़े बेटे के साथ कोटा से आए थे जो यहीं पड़ोस के मेडीकल कॉलेज अस्पताल में सीनियर स्पेशलिस्ट रेडियोलॉजी है। उसे सप्ताह में दो दिन इमर्जेंसी सेवा के लिए झालावाड़ रहना पड़ता है, एक दिन अवकाश का मिल जाता है, सप्ताह में दो-तीन दिन अदालतों में गवाहियों के लिए जाना पड़ता है। बचा एक दिन उस दिन वह कोटा से आ कर डूयूटी कर वापस चला जाता है। बाकी दिन अस्पताल जूनियर स्पेशलिस्ट से काम चलाता है। हर सरकारी नौकरी में ये अतिरिक्त काम न केवल मूल काम में बाधक हो जाते हैं अपितु काम पर से केन्द्रीयता को हटा देते हैं। पूफाजी से ही पता लगा उन का एक बेटा अब भोपाल से रायपुर स्थानांतरित हो गया है और भिलाई रहता है। वहाँ तो हमारे संपर्क के एक ब्लागर भी हैं। तो हमने दोनों से फोन पर बात की और दोनों को मिलवा दिया। दोनों बहुत प्रसन्न हुए।

उधर सगाई का काम चलता रहा। दूल्हे और उस के परिजनों को सुंदर कपड़ों और उपहार दिए गए। सगाई संपन्न होते ही दूल्हे की दायीं ओर एक चौकी और लगाई गई वहाँ  दुल्हन को बैठाया गया। वहाँ दोनों ने एक दूसरे को अंगूठियाँ पहनाई गईं और दुल्हन की गोद भरी गई। यह समारोह भी संपन्न हुआ। मैं ने फूफाजी को कहा -शादी के पहले तक दूल्हा लेफ्टिस्ट होता है और शादी के बाद दुल्हन (पत्नी)। वे कहने लगे बात सही है। (जारी)

शनिवार, 15 नवंबर 2008

शादी के पहले की रात

रोका या टीका, सगाई, लग्न लिखना, भेजना, लग्न झिलाना, विनायक स्थापना, खान से मिट्टी लाना, तेल बिठाना, बासन, मण्डप, निकासी, अगवानी, बरात, द्वाराचार, तोरण, वरमाला, पाणिग्रहण, सप्तपदी, पलकाचार, विदाई, गृह-प्रवेश, मुहँ-दिखाई, जगराता आदि विवाह के मुख्य अंग हैं। इन सभी का अभी तक हाड़ौती में व्यवहार है। इन में बासन के लिए ताऊ रामपुरिया जी और रौशन जी ने सही बताया। वर के यहाँ बारात जाने के और वधू के यहाँ पाणिग्रहण के एक दिन पहले महिलाएं बैण्ड बाजे के साथ सज-धज कर कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के मटका, उस पर एक घड़ा और उस पर ढक्कन सिर पर रख कर लाती हैं। इस तरह के कम से कम पाँच सैट जरूर लाए जाते हैं। जब महिलाएं बासन ले कर घर पहुंचती हैं तो द्वार पर वर या वधू के परिवार के जामाता उन के सिर पर से बासन उतार कर गणपति के कमरे में ला कर रखते हैं और इस के लिए बाकायदे जमाताओं को नेग (कुछ रुपए) दिए जाते हैं।

महिलाएँ बासन लेने चल दीं उस का ज्ञान मुझे सुड़ोकू भरते हुए दूर जाती बैंड की आवाजों से हुई। कोई पौन घंटे बाद वे बासन ले कर लौटी। सुडोकू हल करने में कुछ ही स्थान रिक्त रह गए थे कि साले साहब ने फिर से हाँक लगा दी। हम अखबार वहीं लपेट कर चल दिए। हमें बाकायदा तिलक निकाल कर 101 रुपए और नारियल दिया गया। हम ने अकेले सारे बासन उतारे, और कोई जामाता तब तक विवाह में पहुँचा ही नहीं था। महिलाएँ होटल के अंदर प्रवेश कर गईं थीं, हम बाहर निकल गए। हमें आजादी मिल गई थी। बेतरतीबी से जेब में रखे गए 101 रुपए पर्स के हवाले कर रहे थे कि साले साहब सामने पड़ गए, नोट हाथ में ले कर मजा लिया -मेहन्ताना कम तो नहीं मिला? मैं ने जवाब दिया -वही हिसाब लगा रहा हूँ। छह बासन उतारे हैं एक का बीस रुपया भी नहीं पड़ा कम तो लग रहा है। वे बोले -ये तो एडवांस है। अभी पूरी शादी बाकी है, कसर पूरी कर देंगे। वे हमें पकड़ कर फिर से लंगर में कॉफी पिलाने ले गए।

हम ने अपने एक पुराने क्लर्क को फोन किया था तो कॉफी पीते पीते वह मिलने आ गया। आज कल वह यहीं झालावाड़ में स्वतंत्र रूप से काम कर रहा है। कहने लगा -उस का काम अच्छा चल रहा है। कुछ पैसा बचा लिया है, मकान के लिए प्लाट देख रहा है। मेरे साथ सीखी अनेक तरकीबें खूब काम आती हैं। अनेक लोगों के पारिवारिक विवाद उस ने उन्हीं तरकीबों से सुलझा दिए हैं। तीन-चार जोड़ियों को आपस में मिला चुका है, घर बस गए हैं पति-पत्नी सुख से रह रहे हैं। यहाँ के वकील पूछते हैं, ये तरकीबें कहाँ से सीखीं? तो मेरा नाम बताता है। कहने लगा -भाई साहब, लोगों के घर बस जाते हैं तो बहुत दुआ देते हैं। वह गया तब महिलाएँ प्रथम तल पर ढोल और बैंड के साथ नृत्य कर रही थीं। बासन लाने के बाद महिलाओं का नृत्य करना परंपरा है। हम भी उस का आनंद ले रहे थे। महिलाओं, खास तौर पर लड़कियों और दो चार साल में ब्याही बहुओं ने इस के लिए खास तैयारी की थी। नाच तब तक चलता रहा जब तक नीचे से भोजन का बुलावा नहीं आ गया। तब तक आठ बज चुके थे। सब ने भोजन किया। वापस लौटे तो मैं ने शहर मिलने जाने को कहा तो हमारी बींदणी बोली हम भी चलते हैं। मैं, पत्नी और दोनों सालियाँ एक संबंधी के घर मिलने चले गए। वहाँ पता चला उन की पत्नी को हाथ में फ्रेक्चर है। लड़की पढ़ रही थी। वे चाय-काफी के लिए मनुहार करते रहे। उन की तकलीफ देख कर हम ने मना किया फिर भी कुछ फल खाने पड़े। रात को बारह बजे वहाँ से लौटे तो होटल में सब मेहमान बातों में लगे थे। हमारे कमरे में महिलाओं के सोने के बाद स्थान नहीं बचा था। मैं हॉल में गया तो वहाँ सभी पुरुष सोये हुए थे, फिर भी स्थान रिक्त था। मैं वहीं एक रजाई ले कर सोने की कोशिश करने लगा। स्थान, बिस्तर और रजाई तीनों ही अपरिचित थे, फिर बीच बीच में कोई आ जाता रोशनी करता किसी से बात करता। पर धीरे-धीरे नींद आ गई। जारी

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र, शादी और सुड़ोकू

कोटा से आलनिया तक सड़क अच्छी थी। लेकिन जैसे ही आलनिया से चले सड़क की दुर्दशा देखने को मिली। मरम्मत की हुई थी। लेकिन वह बिलकुल बेतरतीब तरीके से, केवल काम चलाऊ। कार 40-45 कि.मि.प्रति घं. की गति से चली। कोटा जिले का अंतिम गांव पड़ा सुकेत, और उसके बाद आहू नदी का पुल था। नदी में अभी भरपूर पानी था। नदी के उस ओर झालावाड़ जिला शुरू हो गया।  बस यहीं से लगा कि मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में आ गए हैं। सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी, कोई खड़का तक नहीं। पन्द्रह किलोमीटर कैसे निकले? पता ही नहीं चला। सड़क पर सफेदे के मार्क लगे हुए, सड़क के किनारे पेड़ों पर भी लाल-सफेद निशान बनाए हुए लगा जैसे सिविललाइन्स में आ गए। झालावाड़ में घुसते ही बायीं और एक नयी विशाल इमारत बनी थी, बिलकुल आधुनिक बाहर से पूरी की पूरी लाल पत्थरों से जड़ी। यह था "मिनि सचिवालय"। यहाँ से अब झालावाड़ जिले का प्रशासन चलता है। जिला कलेक्टर और उस के अधीन जिला मुख्यालय के सभी कार्यालय इसी मिनि सचिवालय में हैं। अभी अदालतें पुराने गढ़ में चल रही हैं लेकिन जल्दी ही वे भी इसी इमारत के पास बनी अदालतों की नयी इमारत में आने वाली हैं।

वसुंधरा राजे सिंधिया ने एक पिछड़े जिले को अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था। जहाँ राज परिवार के प्रति विशेष श्रद्धा अभी कायम थी। उस का लाभ उन्हें मिला, इस विधानसभा क्षेत्र में उन्हें चुनौती देने का साहस अभी भी किसी को नहीं। झालावाड़ जिस की किसी रूप में कोई अहमियत नहीं थी, सिवा इस के कि जालिम सिंह झाला ने इसे बसाया और यहीं से राज चलाया। पास ही छह-सात किलोमीटर की दूरी पर पुराना एतिहासिक नगर झालरापाटन स्थित है जो चन्द्रभागा नदी के पूर्वाभिमुख बहने से तीर्थ है। वहीं वल्लभ संप्रदाय का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐतिहासिक प्राचीन सूर्य मंदिर स्थित है। चन्द्रभागा के किनारे बना शिव मंदिर और उस में स्थित छह फुट ऊँचा शिवलिंग दर्शनीय है। सारा कारोबार भी इसी नगर में है। संस्कृति और धर्म सब कुछ यहीं। नतीजा यह कि झालावाड़ केवल प्रशासनिक नगर बन कर रह गया। कोई रोजगार नहीं तो आबादी भी सीमित ही रही।

वसुंधरा से रिश्ता जुड़ने के बाद यहाँ सब कुछ हुआ। पूरे नगर की गली-गली में लौह-जाल युक्त कंक्रीट की सड़कें बनीं, मिनि सेक्रेट्रियट बना। मेडीकल कॉलेज खुला और पूरा का पूरा अस्पताल नया बना। पुराना अस्पताल अब धऱाशाई कर दिया गया है, उस का भी पुनर्निर्माण चल रहा है। इस तरह एक अच्छा चिकित्सा केन्द्र यहाँ बन गया और लोग चिकित्सा के लिए यहाँ आने लगे। स्नातकोत्तर महाविद्यालय पहले से ही था, उस का भी विकास हुआ।  इंजिनियरिंग, पोलोटेक्नीक और आईटीआई खुले। बीएड कालेज खुले। बीएसटीसी पहले से ही झालरापाटन में था। लॉ-कॉलेज खुला।  विद्यार्थियों की संख्या यहाँ बढ़ गई,  कर्मचारी यहाँ आए और बाजार भी विकसित होने लगा। खेल के लिए क्रिकेट का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बना, उद्यान आदि बने। कुल मिला कर झालावाड़ तरक्की करने लगा। अब वह पहले की तरह सुस्त नहीं है, वहाँ गति पैदा हो चुकी है और जीवन बोलने लगा है।

हम होटल पहुंचे तो हमारे साले साहब की टीम वहाँ विराजमान थी, उन्हें आए हुए भी कोई एक घंटा ही हुआ था। वे रहने वाले तो मनोहरथाना के थे, लेकिन दूल्हा वाले झालावाड़ के उन्हें बारात ले कर जाने में असुविधा रही होगी। उन्हों ने हमारे साले साहब को यहीं बुलवा लिया था। वे भी मस्त थे, सारा इंतजाम दूल्हे वाले ही कर रहे थे, उन्हें कुछ नहीं करना पड़ रहा था। दुल्हन वाले सिर्फ मेहमान थे, और हम उन के भी मेहमान। होटल तीन मंजिला थी। भूतल रोज के ग्राहकों के लिए था। प्रथम तल शादी के मेहमानों के लिए आरक्षित और द्वितीय तल सारा मेडीकल कॉलेज/अस्पताल ने बुक करवा रखा था। उस में वे कर्मचारी रहते थे जो अकेले थे और जिन के परिवार वहाँ थे जहाँ से वे स्थानान्तरित हो कर आए थे। हमें भी पहले तल पर एक कमरा दे दिया गया, अ़टैच टायलट युक्त। उसी में हमने अपना सामान डाला। वह छह लोगों के लिए पर्याप्त था।

थोडी देर बाद साले साहब आए, हमें देख कर प्रसन्न हो गए। तुरंत चाय कॉफी की व्यवस्था की जिस का लंगर इसी तल्ले पर चल रहा था। तुरंत कॉफी आ गई। मैं ने सोचा आस पास कुछ टहल कर आऊँ,  दो घंटे कार जो चलाई थी। पर साले साहब ने रोक लिया, -कहीं मत जाना। बैंड वाला आ चुका है महिलाएँ बासन लेने जाएँगी। वापस आएँगी तो कौन उतारेगा? मैंने कहा -यार! हम तो अब सब से सीनियर हैं, हम से जूनियर चार-पाँच तो हो ही गए हैं। वे बोले -वे आएँगे तब ना, सब कल ही आएँगे। तब तक तो सब काम आप को ही करने होंगे। हम रुक गए। होटल का ही जायजा लिया। होटल के बाहर अच्छी खासी पार्किंग की जगह थी। एक अच्छा सा लॉन था जिस में दावत का स्थाई इंतजाम लगा था और होटल के पिछवाड़े एक टीन शेड में बड़ा सा रसोईघर था। एक और शेड था, बड़े हॉल जैसा जिस में शादी के दीगर कार्यक्रम हो सकते थे। हमने दरयाफ्त की तो पता लगा शाम का भोजन वहीं बन रहा है और उस हॉल नुमा शेड में ही खिलवाया जाएगा।

हम लौटे तब तक महिलाएँ बासन लेने जाने की तैयारी कर रही थीं। हमें कम से कम एक घंटा तो वहीं रुकना था, जब तक बासन नहीं लाए जाते। तब तक क्या करें? वहीं होटल के रिसेप्शन पर रुक गए, वहाँ अखबार थे जिन्हें सुबह ही पढ़ा जा चुका था। तब याद आया कि हमेशा समय की कमी से सुड़ोकू छूट जाती है। हमने तुरंत अखबार लपका और सुड़ोकू वाला पन्ना ले कर पेन निकाला और लगाने लगे अपनी गणित।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

शादी के पहले टूटी सगाई

भगवान् विष्णु सदा की भांति अपनी ससुराल क्षीर सागर में अवकाश बिता कर लौटे। इस दिन को इतना शुभ मान लिया गया है कि चार माह से इन्तजार कर रहे जोड़े बिना ज्योतिषी की राय के ही इस दिन परिणय संस्कार के लिए चुन लेते हैं। इस कारण शादियाँ बहुत थीं। नगरों में कोई वैवाहिक स्थल ऐसा नहीं था जहाँ बैंड नहीं बज रहा हो। मुझे भी शादी में जाना पड़ा। शादी थी मेरी बींदणी शोभा के चचेरे भाई की पुत्री की। पुरानी प्रथा जो लगभग पूरे विश्व में सर्वमान्य रही है कि शादी कबीले के भीतर हो लेकिन गोत्र में नहीं, उस का पालन हम आज भी 90 से 95 प्रतिशत तक कर रहे हैं। कन्या के विवाह योग्य होते ही गोत्र के बाहर और कबीले में छानबीन शुरू हो जाती है और ज्यादातर मामले वहीं सुलझ लेते हैं।

इस कन्या का मामला भी इसी तरह से सुलझा लिया गया था। कन्या के माता-पिता दोनों अध्यापक हैं और कन्या भी स्नाकतोत्तर उपाधि हासिल करने के उपरांत बी.एड. कर चुकी थी। कबीले (बिरादरी) में ही लड़का भी मिल गया। दोनों के माता पिता ने बात चलाई लड़की देखी-दिखाई गई और तदुपरांत सगाई भी हो गई तकरीबन एक-डेढ़ लाख रुपया खर्च हो गया। शादी की तारीख पक्की हो गई। निमंत्रण कार्ड छपे। टेलीफून मोबाइल की मेहरबानी कि होने वाले दुल्हा-दुलहिन रोज बात करने लगे।

एक दिन शाम को अचानक पिता के मोबाइल फून की घंटी बजी। पता लगा होने वाले दूल्हा होने वाली दुलहिन से बात करना चाहता है।पिता ने फून बेटी को दे दिया, बेटी फून ले कर छत पर चली गई। करीब पन्द्रह मिनट बाद वापस लौटी तो उस की आँखें लाल थीं और गले का दुपट्टा आँसुओं से भीगा हुआ। माँ ने पूछना शुरू किया तो, वह कुछ न बोले। माँ उसे एक तरफ ले गई। तरह तरह की बातें की। आखिर बेटी ने रोते रोते बताया कि मम्मी ये शादी तोड़ दो वरना हो सकता है अगले साल मैं जिन्दा न रहूँ। बात क्या है? पूछने पर कहने लगी -उन का पेट बहुत बड़ा है। वह कभी नहीं भरेगा। माँ-बाप ने तुरंत निर्णय किया और सम्बन्ध तोड़ दिया। शादी के निमंत्रण जो छप चुके थे नष्ट कर दिए गए। लड़के वालों को संदेशा भेजा कि जो सामान सगाई में उन्हें दिया था भलमनसाहत से वापस लौटा दें। सामान कुछ वापस आया कुछ नहीं आया। पर फिर से लड़के की तलाश शुरू हो गई।

आखिर कबीले के बाहर मगर ब्राह्मण समुदाय में ही एक संभ्रान्त परिवार में लड़का मिला। परिवार पूर्व परिचित था। सारी खरी-खोटी देख ने के उपरांत शादी तय हो गई। साले साहब सपत्नीक आ कर निमन्त्रण दे गए थे, तो हमें जाना ही था। बींन्दणी की दो बहनें भी शनिवार को दोपहर तक आ गईं। अदालत में दो दिनों का अवकाश था ही। करीब तीन बजे दोपहर अपनी कार से चल दिए झालावाड़ के लिए। हमें वहाँ के होटल द्वारिका पहुंचना था। जहाँ शादी होनी थी।

कोटा से 20 किलोमीटर दूर नदी पड़ती है, आलनिया। इस पर बांध बना है पूरे साल बांध से रिसता हुआ पानी धीरे धीरे बहता रहता है। इस नदी के पुल से नदी किनारे दो किलोमीटर दूरी पर प्रस्तर युग की गुफाएं हैं जिन में प्रस्तरयुग की चित्रकारी देखने को मिलती है। पुल पार करते ही सड़क किनारे ही नाहरसिंही माता का मंदिर बना है। प्राचीन मातृ देवियों के नाम कुछ भी क्यों न हों आज वे सभी दुर्गा का रूप मानी जाती हैं उसी तरह उन की पूजा होती है। मंदिर के सामने ही जीतू के पिता का ढाबा है। जीतू जो मेरा क्लर्क है, उसे हम घर पर सुरक्षा के लिए छोड़ आए थे। उस के ढाबे पर गाड़ी रोक कर उन्हें बताया कि वह अब सोमवार शाम ही लौटेगा। मेरे साथ जा रही तीनों देवियाँ सीधे माता जी के दर्शन  करने चली गईं। पीछे पीछे मैं भी गया। वापस लौटे तो चाय तैयार थी। कुल मिला कर आधे घंटे का विश्राम पहले 20 वें किलो मीटर पर ही हो गया। शेष बचे 60 किलोमीटर वे हम ने अगले एक घंटे में तय कर लिए और पाँच बजे हम होटल द्वारिका में थे। (जारी)

बुधवार, 12 नवंबर 2008

युद्ध विराम में दाल-मैथी की रेसिपी

मैं ने अपनी थकान का उल्लेख किया था। लेकिन चर्चा हुआ खाने का। खाने के मामले में जीभ और पेट दोनों में तालमेल का होना जरूरी है वर्ना इन दोनों की घरेलू लड़ाई गज़ब ढाती है। इस युद्ध में थकान और अनिद्रा सम्मिलित हो जाए तो फिर मैदान का क्या कहना? उस में राजस्थान की प्रसिद्ध हल्दीघाटी की तस्वीर दिखाई देने लगती है। फिर लड़ाई अंतिम निर्णय तक जारी रहना जरूरी है। या तो ये जीते या वो, राणा जीते या भीलों के साथ जंगल चले जाएँ और गुरिल्ला युद्ध जारी रखें। हमारा हाल कुछ हल्दीघाटी ही हो रहा है। यह गुरू नानक की दुहाई जो एक युद्ध विराम मिल गया है घावों की दुरूस्ती के लिए। देखते हैं कल के इस युद्ध-विराम का कितना लाभ हमारी ये हल्दी-घाटी उठा पाती है।

मैं सोचता था, दाल-मेथी की रसेदार सब्जी जैसी सादा और स्वादिष्ट सब्जी तो सभी को पता होगी। मगर यहाँ तो उस की भी रेसिपी पूछने वालों की कमी नहीं। दीदी लावण्या ( लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्`), रंजना जी [रंजू भाटिया] और pritima vats ने तो अनभिज्ञता प्रकट की और रेसिपी की मांग कर डाली और ताऊ रामपुरियाविष्णु बैरागी जी ने उस की तारीफ की। ज्ञान जी Gyan Dutt Pandey बोले -हम होते तो खिचड़ी खाते! पर ऐसे में मैं इस मौसम की मैथी-दाल ही पसंद करता। खिचड़ी जरा थोड़ी सर्दी कड़क होने पर अच्छी लगती।

अब हमें कोई चारा नहीं सूझ रहा था कि करें तो क्या करें? कि देवर्षि नारद ने मार्ग सुझाया कि मैं हर मामले में नारायण! नारायण! करते भगवान् विष्णु की शरण लेता हूँ,  तुम भी किसी को तलाशो।  सो हम पहुँचे देवी (शोभा) की शरण। उन से अपनी विपत्ति का हल पूछा? वे किसी तरह बताने को तैयार नहीं। आखिर तीन किस्तों में सुबह-दोपहर-शाम में हम ने उन से दाल-मैथी का राज जाना। आप को बताएँ इस शर्त पर कि अगर बनाएँ तो खाएँ और परिवार को खिलाएँ जरूर और फिर बताएँ कि कैसी लगी?

तो बस आप ले लीजिए 150 ग्राम मूंग की छिलके वाली दाल और सब्जी वाले से खरीदिए एक पाव यानी 250 ग्राम जितनी हो सके उतनी ताजा मैथी की हरी पत्तियाँ तथा एक टुकड़ा अदरक। मैथी में यदि डंठल अधिक हों तो कठोर-कठोर डंठल तोड़ कर निकाल दें और मैथी को चलनी में डाल कर नल चला दें पानी से धुल जाएगी। उस में हाथ न चलाएँ नहीं तो उस का स्वाद कम हो सकता है। अब मैथी को चाकू से काट कर बारीक कर लें।  मसालों में नमक, लाल मिर्च, जीरा और हींग आप की रसोई में जरूर होंगे। इन में से कुछ न हो तो पहले से व्यवस्था कर लें।  प्रेशर-कुकर में दाल के साथ स्वाद के अनुरूप नमक डाल कर अपनी रुचि और कुकर की जरूरत के माफिक न्यूनतम पानी डाल कर पकाएँ। एक सीटी आने पर कुकर को उतार लें, भाप निकाल कर उस का ढक्कन खोल दें। उस में मैथी की पत्तियाँ और एक अदरक के टुकड़े का कद्दकस पर कसा हुआ बुरादा डालें और एक बार उबल जाने दें। बस थोड़ी देर में सब्जी तैयार होने वाली है। इस से आगे दो रास्ते हैं।

यदि आप तेल-घी का तड़का पसंद नहीं करते तो आँच पर से उतार कर उस में स्वाद के अनुसार मिर्च डाल दें और एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग को एक चाय चम्मच भर पानी में घोल कर सब्जी में डाल कर चम्मच चला दें। बस सब्जी तैयार है। सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

दूसरा अगर तड़का लगाना हो तो खाली भगोनी में एक चम्मच देसी-घी डालें और गरम होने पर जरूरत माफिक जीरा डालें उस के सिकने पर पहले से पीस कर चूर्ण की गई एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग डाल दें और दो सैंकड में उस भगोनी में कुकर से दाल-मेथी डाल दें। चम्मच से चला कर उतार लें और वैसे ही सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

यह तो हुई दाल-मैथी की रेसिपी। है न बहुत सादा। शोभा ने इसे भी तीन किस्तों में बताया तो मुझे भी लगा कि ये भी कोई रेसिपी है। पर स्वादिष्ट इतनी कि बस पेट की खैर नहीं। फिर हमारे बचपन की तरह ऊँची कोर की थाली के एक ओर किसी चीज की ओट लगा कर नीचे रह गए हिस्से की और रसीली दाल-मैथी परोसी जाए और उसी थाली में रोटी या पराठा रख कर खाया जाए तो मजा कुछ और ही है। साथ में एक नए देसी गुड़ का टुकड़ा हो और मिर्च स्वाद में कम रह जाने में ऊपर से सूखी पूरी लाल मिर्च को हाथ से चूरा कर सब्जी में डाल कर खाएँ तो लगे कि वैकुण्ठ की डिश जीम रहे हैं।

और PD को कह रहा हूँ कि यह भी उन्हें यम्मी पोस्ट ही लगेगी। आप को कैसी लगी? जरूर बताएँ। आगे बताएँगे रहा हुआ मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में हुई शादी का हाल।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

शादी की थकान का दिन

आखिर एक छोटा सा सफर कर के, एक विवाह में शामिल हो, वापस घर पहुँच गए। एक तो पेशा ऐसा कि उस में बाहर जाना नुकसानदेह होता है। अवकाश का दिन भी अपने ऑफिस के काम का होता है। पूरे सप्ताह और पूरे माह कितना ही काम इकट्ठा होता रहता है जो अवकाश के पल्ले बांध दिया जाता है। अब अगर दो अवकाश एक साथ बाहर चले जाएँ तो उस का दबाव तो बन ही जाता है। नतीजा यह कि सोमवार सुबह नौ बजे जब घर पहुँचे तो हालत खराब थी। रात को मुश्किल से दो घंटे भी सोना नसीब नहीं हुआ था ऊपर से ठंड और खा गए, सर चकरा रहा था। घर पहुँचते ही अदालत की डायरी संभाली तो कुछ मुकदमे ऐसे थे जिन में हाजिर रहना आवश्यक था। इस लिए स्नान किया और कुछ नाश्ता कर के अदालत को चल दिए। श्रीमती जी (शोभा) की हालत शायद मुझ से भी बुरी थी। एक तो जब से कार्तिक लगा है वह मुहँ अन्धेरे ही स्नान कर रही है। अब तक मैं उसे टोकता रहता था और वह इस से दूर रहती थी। इस बार मैं ने उसे कुछ नहीं कहा तो वह यह सब कर रही है।  दूसरे वह रात को बिलकुल ही नहीं सोई थी तो उस ने आते ही बिस्तर पकड़ लिया था। अदालत के लिए निकलने के पहले उसे जगा कर कहना पड़ा कि वह गेट और दरवाजे लगा ले।

इस बीच जीजाजी का फोन आ गया था कि उन की माता जी की बरसी है तो हमें दोपहर का भोजन वहीं करना है। यूँ कुछ तला खाने की इच्छा नहीं थी, फिर भी सोचा कि अदालत से जल्दी आ कर तीन बजे करीब भोजन कर लिया जाएगा। फिर खा कर नींद निकाल ली जाएगी। लेकिन सोचा कभी हुआ है? अदालत में ढाई बजे लगा कि अभी एक घंटा और लग ही जाएगा। तो जीजाजी को फोन कर के मना किया कि मैं अभी न आ सकूँगा। वहाँ से छुट्टी मिली कि मैं कभी भी आ सकता हूँ। दिन भर अदालत में नींद से अलसाया काम करता रहा। बेचारी नींद उसे जगह नहीं मिल रही थी तो तीन बजते-बजते वह भी गायब हो गई। एक मुकदमे में एक गवाह से शाम चार बजे जिरह शुरु हई तो अदालत समझ रही थी कि पन्द्रह मिनट का काम है। पर गवाह बिलकुल फर्जी निकला और उस से अपना पक्ष जितना साबित कर सकते थे करवा लिया। पोने पाँच बजे अदालत पूछने लगी कि यदि और समय लगना हो तो अगली पेशी तक के लिए जिरह डेफर कर दी जाए। पर हम पूरी करने पर तुल गए और पाँच बजे छूटे।

घर पहुँचे तो पता लगा अभी तक श्रीमती शोभा जी बिस्तर में हैं। हमें अहसास हुआ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी बीमारी ने घऱ किया हो। पर पता लगा कि दिन में उन्हें भी कुछ आगतों का स्वागत करना पड़ा। उन का भी जीजाजी के यहाँ जाने का मन नहीं था। खैर मुझे तो जाना ही था। मैं कह कर गया कि मैं वहाँ से कुछ भी खा कर नहीं आऊंगा, वह खाने की तैयारी रखे। मुझे वापस लौटने में घंटे भर से अधिक लगा। वहाँ से कुछ खाद्य सामग्री साथ आयी। फिर शोभा ने चपाती और मैथी-दाल की रसेदार सब्जी बनाई। दो दिन में विवाह की दावतों के सब पकवान फीके पड़ गए। फिर हमारा दफ्तर चालू हो गया। रात को बारह बजे ही सो पाए।

यह था,  शुद्ध ब्लागरी वाला आलेख। आप को विवाह और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के चुनाव क्षेत्र की एक वैवाहिक मेहमान की रिपोर्ट पेश करेंगे अगली कड़ी में। आज यहीं से रुखसत होते हैं। सब को राम! राम!

रविवार, 9 नवंबर 2008

पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की छोटी बहर की दो गज़लें

मैं कल से ही बाहर हूँ।  कल आप ने शिवराम की दो कविताएँ पढ़ीं। आज की इस पूर्व सूचीबद्ध कड़ी में पढिए मेरे अजीज दोस्त शायर पुरुषोत्तम 'यकीन' की छोटी बहर की दो गज़लें ...
 हम चले

  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


हम चले
कम चले

आए तुम
ग़म चले

तुम रहो
दम चले

तुम में हम
रम चले

हर तरफ़
बम चले

अब हवा
नम चले

लो ‘यक़ीन’
हम चले
*****



चुप मत रह                                                                 
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

चुप मत रह
कुछ तो कह।


ज़ुल्मो-सितम
यूँ मत सह।

कर न कभी
व्यर्थ कलह।

नद-सा तू
निर्मल बह।

कह दे ग़ज़ल
मेरी तरह।

ज़ुल्म का गढ़
जाता ढह।

मिल बैठो
एक जगह।

नज़्द मेरे
आए वह।

प्यार ‘यक़ीन’
करता रह।
 

*****                                                                         

शनिवार, 8 नवंबर 2008

शिवराम की कविताएँ 'बवंडर' और 'तौहीन'

दो दिन कोटा से बाहर हूँ, कम्प्यूटर और जाल हाथ लगे न लगे, कुछ  कह नहीं सकता। 
पहले से सूची-बद्ध की गई इस कड़ी में पढ़िए शिवराम की शिवराम की कविताएँ  'बवंडर' और 'तौहीन' ...
बवंडर
 यह बवंडर भी थमेगा एक दिन 
थम गई थीं जैसे सुनामी लहरें

आखिर यह बात 
आएगी ही समझ में 
कि- यह दुनियाँ 
ऐसे नहीं चलेगी
और यह भी कि 
कि- आखिर कैसे चलेगी 
यह दुनिया? 

ज्यादा दिन नहीं चलेगा 
यह बवंडर बाजारू
थमेगा एक दिन
 ... शिवराम
***** 
 
तौहीन 
सातवें आसमान के
पार जाना था तुम्हें
तुम उड़े ,
और ठूँठ पर जा कर बैठ गए

यह उड़ान की नहीं,
परों की तौहीन है
तुम्हारी नहीं, 
हमारी तौहीन है।  
... शिवराम 
*****

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

होमोसेपियन बराक और तकिए पर पैर

दो नवम्बर, 2008 ईस्वी को तकिए पर पैर रखे गए थे। पूरे पाँच दिन हो चुके हैं। बहुत हटाने की कोशिश की, पर मुए हट ही नहीं रहे। कल तो बड़े भाई टाइम खोटीकार जी का हुकुम भी आ गया।
डा. अमर कुमार said...अब तकिये पर से पैर हटा भी लो, पंडित जी ! अब कुछ आगे भी लिखो, अपनी मस्त लेखनी से.. !    6 November, 2008 11:18 AM
खैर पैर तो अब बराक हुसैन ओबामा के साथ तकिए पर जम चुके हैं, हटाए न  हटेंगे। पाँच बरस की हमारी गारंटी, और अमरीकी वोटरों की जमानती गारंटी है। इस  के बाद भी पाँच बरस की संभावना और है, कि जमे ही रहें। पर पैर तकिए पर जम ही जाएँ तो इस का मतलब यह तो नहीं कि बाकी शरीर भी काम करना बंद कर दे। इन्हें तो काम करना होगा और पहले से ज्यादा करना होगा। आखिर पैरों की तकिए पर मौजूदगी को सही साबित भी तो करना है।

पूरब,  पश्चिम और दक्षिण में पहुँचे गोरे बहुत बरस तक यह समझते रहे कि वे अविजित हैं, और सदा रहेंगे। अमरीकियों ने यह तो साबित कर दिया कि उन का ख़याल गलत था। देरी हुई, मगर इस देरी में उन की खाम-ख़याली की भूमिका कम और काले और पद्दलितों की इस सोच की कि गोरे लोग बने ही राज करने को हैं, अधिक थी। अब सब को समझ लेना चाहिए कि ये जो होमोसेपियन, है वह किसी भेद को बर्दाश्त नहीं करेगा, एक दिन सब को बराबर कर छोड़ेगा।

अमरीका तो अमरीका, दुनिया भर के लोग ओबामा की जीत से खुश हैं। लेकिन यह खुशी वैसी ही सुहानी है, जैसे दूर के डोल। सारी दुनिया में जो लोग होमोसेपियन्स में किसी भी तरह का भेद करते हैं। उन्हें होशियार हो जाना चाहिए कि एक दिन उन के खुद के यहाँ कोई  होमोसेपियन बराक हो जाएगा और अपने पैर तकिए पर जमा देगा।

याद आ रही है महेन्द्र 'नेह' की यह कविता .....

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं’
महेन्द्र नेह
हम सब जो तूफानों ने पाले हैं
हम सब जिन के हाथों में छाले हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

जब इस धरती पर प्यार उमड़ता है
हम चट्टानों का चुम्बन लेते हैं
सागर-मैदानों ज्वालामुखियों को
हम बाहों में भर लेते हैं।

हम अपने ताजे टटके लहू से
इस दुनियां की तस्वीर बनाते हैं
शीशे-पत्थर-गारे-अंगारों से
मानव सपने साकार बनाते हैं।

हम जो धरती पर अमन बनाते हैं
हम जो धरती को चमन बनाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

फिर भी दुनियाँ के मुट्ठी भर जालिम
मालिक हम पर कोड़े बरसाते हैं
हथकड़ी-बेड़ियों-जंजीरों-जेलों
काले कानूनों से बंधवाते हैं।

तोड़ कर हमारी झुग्गी झोंपड़ियां
वे महलों में बिस्तर गरमाते हैं।
लूट कर हमारी हरी भरी फसलें
रोटी के टुकड़ों को तरसाते हैं।

हम पशुओं से जोते जाते हैं
हम जो बूटों से रोंदे जाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

लेकिन जुल्मी हत्यारों के आगे
ऊंचा सिर आपना कभी नहीं झुकता
अन्यायों-अत्याचारों से डर कर
कारवाँ कभी नहीं रुकता।

लूट की सभ्यता लंगड़ी संस्कृति को
क्षय कर हम आगे बढ़ते जाते हैं
जिस टुकड़े पर गिरता है खूँ अपना
लाखों नीग्रो पैदा हो जाते हैं।

हम जो जुल्मों के शिखर ढहाते हैं
जो खूँ में रंग परचम लहराते हैं

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
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रविवार, 2 नवंबर 2008

तकिए पर पैर

  

तकिए पर पैर
दिनेशराय द्विवेदी

सबसे नीचे, पैर!
दिन भर ढोते 
शरीर ,

बीच में,  उदर
भोजन का संग्रह,

सब से ऊपर, सिर
नियंत्रित करता
सब को,

वहीं एक छिद्र
भकोसता हुआ
पेट के लिए,

रात चारपाई पर
होते सब बराबर
लंबायमान 
एक सतह पर,

टूट जाते अहम्
सिर और पेट के,


कभी  होते
सिर के बजाय पैर
 तकिए पर।
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