@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है

गुरुवार, 15 मई 2008

उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है

कल शाम जब से जयपुर बम विस्फोट का समाचार मिला है मन एक अजीब से अवसाद में है। आखिर इस समाज और राज्य को क्या हो गया है? जिस में आतंकवाद की कायराना हरकतों को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह मिल जाती है। लोग उन के औजार बनने को तैयार हो जाते हैं। वे अपना काम कर के साफ निकल जाते हैं।

लगता है कि न समाज है और न ही राज्य। ये नाम अपना अर्थ खो चुके हैं। पहले से चेतावनी है, लेकिन उस से बचाव के साधन भोंथरे सिद्ध हो जाते हैं। समाज को कोई चिन्ता नहीं है, उस ने अपने अस्तित्व को कहाँ विलीन कर दिया है? कुछ पता नहीं। जैसे ही घटना की सूचना मिलती है। चैनल उस पर टूट पड़ते हैं जैसे कोई शिकार हाथ लग गया हो और एक प्रतिद्वंदिता उछल कर सामनें आती है। कहीं कोई दूसरा उस से अधिक मांस न नोच ले। चित्र दिखाए जाते हैं, इस चेतावनी के साथ कि ये आप को विचलित कर सकते हैं। लोग इन्हें ब्लॉग तक ले आते हैं। विभत्सता प्रदर्शन, कमाई और नाम पाने का साधन बन जाती है। कुछ चैनल अपने को शरलक होम्स और जेम्स बॉण्ड साबित करने पर उतर आते हैं।

मंत्रियों की बयानबाजी आरम्भ हो जाती है। मुख्यमंत्री को तुरन्त प्रतिक्रिया करने में परेशानी है। जैसे यह देश और प्रान्त में पहली बार हो रहा है। वे पहले जायजा (सोचेंगी और राय करेंगी कि किस में उन का हित है, जनता और देश जाए भाड़ में) लेंगी फिर बोलेंगी। प्रान्त के सब से बड़े अस्पताल का अधीक्षक गर्व से कहता है उन पर सब व्यवस्था है, कितने ही घायल आ जाएं। पर व्यवस्था आधे घंटे में ही नाकाफी हो जाती है। रक्त कम पड़ने लगता है। रक्तदान की अपीलें शुरू हो जाती हैं। अपील सुन कर इतने लोग आते हैं कि रक्त लेने के साधन अत्यल्प पड़ जाते हैं। घायलों को जो पहली अपील के बाद सीधे बड़े अस्पताल पहुँचते हैं उन्हें दूसरे अस्पतालों को भेजा जा रहा है। पहले ही पास के अस्पताल पहुंचने की अपील करने का ख्याल नहीं आया।

मुख्यमंत्री जानती हैं कि उन पर दायित्व आने वाला है। आखिर आंतरिक सुरक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है. केन्द्र की नहीं तो वे फिर से पोटा या उस जैसा कानून लागू नहीं करने के लिए केन्द्र को कोसना प्रांऱभ कर देती हैं। यह उन के दल का ऐजेण्डा है और केन्द्रीय नेता उस पर बयान दे चुके हैं।

अगले दिन राज्य भर में राजकीय शोक की घोषणा कर दी जाती है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर और अदालतें बन्द रहती हैं। एक दल को बन्द की याद आती है। वह बन्द की घोषणा कर देते हैं। (सब से आसान है, तोड़फोड़ के आतंक से लोग दुकानें, व्यवसाय बन्द करते ही हैं) बस कुछ रंगीन पटके ही तो गले में डाल कर घूमना है। बन्द रामबाण इलाज है हर मर्ज का। बाजार बन्द कर दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक आतंक की शिकार जनता के सामने दूसरा आतंक परोस दो। पहले वाले की तीव्रता कुछ तो कम होगी। वकीलों ने शोक सभा करनी है, शोक के राजकीय अवकाश से बन्द अदालतों के कारण संभव नहीं हुआ। अब अगले दिन शोक-सभा होगी, फिर अदालतों का काम बन्द। इस के अलावा कोई चारा भी नहीं, काम के बोझ से कमर तुड़ाती अदालतें दो दिन का काम करेंगी तो पेशियाँ बदलने के सिवा क्या कर सकती हैं? वैसे भी हर रोज 80% काम तो वे ऐसे ही निपटाती हैं।

वे साजिश रचते हैं, कामयाब होते हैं। आप अभी सूत्र तलाश कर रहे होते हैं। तक वे अपनी कामयाबी के मेक की वीडियो चैनलों को मेल कर देते हैं। चैनल चीखने लगते हैं, उन्हीं का स्वर। उन के  हाथ बटेर लग गई है। अखबारों में शोक संदेशों की 'क्यू'लगी है। अमरीका के झाड़ बाबा से ले कर राष्ट्रीय पार्टी के जातीय प्रकोष्ठ की मुहल्ला कमेटी के मंत्री तक के बयान आए जा रहे हैं। संपादक देख रहा है उसे कौन, कैसे नवाजता है? किस से कितना बिजनेस मिलता है और मिल सकता है? किस का शोक छापना है किस का नहीं?

सायकिल और बैग बेचने वाले नहीं जानते उन से माल किस ने खरीदा, या उन्हों ने किस को बेच दिया। उन को केवल सेल्स से मतलब है। वे बता देते हैं उन्हों ने बच्चों और महिलाओं को बेचे हैं। कफन बेचने वाले को पता नहीं कफन किस के लिए खरीदा जा रहा है? जीवित के लिए या मृत के लिए, या कि कल बेचा हुआ कफन कल उसी के लिए तो काम नहीं लिया जाएगा?

अचानक इस्पाती समाज भंगुर दिखाई देने लगता है। न जाने कब इस की भंगुरता टूटेगी? टूटेगी भी या नहीं। या ऐसे ही यह विलुप्त हो जाएगा। एक से एक-एक में, कई एकों में। वह बूढ़ा याद आता है जो मरने के पहले अपने बेटों से अकेली लकड़ियाँ तुड़वा रहा था और गट्ठर किसी से न टूटा अब गट्ठर भी टूट रहा है। बस पहले उसे बाँधने वाली रस्सी की गाँठ खोल लो, फिर एक एक लकड़ी.......

और ......... यह हम भारत के लोगों द्वारा रचा गया गणराज्य? अब गण की उपेक्षा करता हुआ। विदेशी साम्राज्य को विदा कर अस्तित्व में आया और अब कह रहा है हम विश्व अर्थव्यवस्था से अछूते नहीं रह सकते, और विश्व आतंकवाद से भी।

आज आज और रहेगा याद यह आतंकवाद। कल भुलाएंगे और परसों से कोई और ब्रेकिंग न्यूज होगी चैनलों पर। फिर से बयानों की क्यू होगी। बधाई या शोक संदेश? कुछ भी। आज भोंचक्के लोग परसों फिर रोटी की जुगाड़ में होंगे, और चैनल भी, उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है।

11 टिप्‍पणियां:

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

द्विवेदी जी चैनलों के लिए यह सब महज 'माल' है. संवेदनशीलता नदारद है. आप बुद्धिजीवी हैं, वकील हैं और संवेदनशील भी हैं. इसीलिए तो वक्त निकाल कर यह सब लिखते हें. मैंने 'मोहल्ला' पर अपनी किसी टीप में कहा है कि सारे बुद्धिजीवी सरमायेदारों के लिए विवेक खोकर काम करते हैं. आपकी यह बेशकीमती पोस्ट अगर अरण्यरोदन बनकर रह जाए तो 'किम् आश्चर्यम?'

एक गुजारिश है, अगर आप ब्लॉग शीर्षक के नीचे लिखी लाइन में 'दुनियाँ' को 'दुनिया' कर दें तो मेरी इज्ज़त रह जायेगी क्योकि मैं आपको पसंद करने लगा हूँ; और अपनी पसन्द के साथी की ग़लत भाषा मैं बरदाश्त नहीं कर पाता. यह लिखने के लिए क्षमा चाहता हूँ!

Pankaj Oudhia ने कहा…

सही कहा आपने। आज एक होटल मे टीवी देख रहा था। उसमे केन्द्र और राज्य के विरोधी राजनीतिक दलो के नुमाइन्दे तेज स्वरो मे अपनी राजनीति कर रहे थे। पास खडे एक वेटर ने कहा इन दोनो के बीच भी एक बम लगा देना चाहिये ताकि मातम के माहौल मे लाशो की राजनीति करने वाले दस बार सोचे।

एक तरफ इतनी दर्दनाक घटना और दूसरी ओर आधा देश क्रिकेट मे जुटा है। कहते है पडोसी देश की साजिश है। अरे, वही के खिलाडियो को बुलाकर तो यह जश्न मना रहे है।

सही कहा आपने समाज का स्वरुप खोता जा रहा है। बहुत दुखद है सब कुछ।

डा. अमर कुमार ने कहा…

सवा सोलह आने सहमत
उन्हें अपनी रोटी का जुगाड़ तो करना ही है ।

रोटी का जुगाड़ भला किसको नहीं करना होता है ?
किंतु रोटी के संवेदनहीन तरीके से जुगाड़ की पैरवी तो करियो मति, दद्दू्श्री ।

उनको सच दिखाने से कौन रोकता है ? किंतु किसी दुर्घटना की ख़बर को दुर्घटना की ख़बर तक ही सीमित रक्खो, भाई ! उसको चटनी अचार के साथ एक कमोडिटी के रूप में तो मत पेश करो । क्या उपभोक्तावाद मानवता के सभी सीमाओं को चट कर गयी ?

और इस प्रकार के कवरेज़ से अंततः हीरो बन कर कौन उभरता है ?
हूज़ी, जीहाँ.. मैने कहा हूज़ी आतंकी !

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

९/११ का हादसा, बम्बई, हैद्राबाद्, जयपुर और ना जाने कितने और धमाके होँगेँ ? :-(
आपने सही लिखा है --
-- लावण्या

Udan Tashtari ने कहा…

बिल्कुल सही कह रहे हैं. बार बार दोहराया जाता है यह सब-कभी इधर कभी उधर. कोई हल निकालता नहीं दिखता.

अति निन्दनीय एवं दुखद घटना.

Rajesh Roshan ने कहा…

दुखद घटना. इस लेख का मर्म ही झकझोरने वाला है. ब्लॉग पर थोड़े हिट और टिप्पणियों के लिए रक्त रंजित चित्र लगाये जा रहे है या फ़िर इनकी इतनी समझ नही है!! फ़िर बाकी सारा काम तो रोटी के लिए हो रहा है. कितनी भी दुश्वरिया हो लेकिन इतनी संवेदना इंसान में होनी चाहिए की उसका मर्म समझ सके. बाकी आप लेख बहुत कुछ कहता है और हमे अपने अन्दर झाकने को मजबूर करता है.

Abhishek Ojha ने कहा…

सत प्रतिशत सच !

PD ने कहा…

kuchh kahne ki halat me nahi hun..

ghughutibasuti ने कहा…

आप सही कह रहे हैं। जो एक शहर में हुआ कल वह हर शहर कस्बे में होगा। शोक सभा व बंद के अलावा भी शायद कुछ किया जा सकता है। ये हत्यारे बंद ही तो चाहते हैं।
घुघूती बासूती

कुश ने कहा…

जब कुछ इंसान मर जाते है
तो बहुत सारे इंसान मारे जाते है..

जयपुर जैसे शांतिप्रिय शहर में ऐसी घटना की उम्मीद नही की थी.. अभी तक मन विचलित है..

ईश्वर से प्रार्थना है हादसे के शिकार लोगो को शांति मिले और दोषियो को सज़ा..

बलबिन्दर ने कहा…

कुछ कर पाने में असहाय अधिकतर इंसानों के आक्रोश को आपने शब्दों में बखूबी ढाला है।