@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: 2007

सोमवार, 31 दिसंबर 2007

जब्भी चाहो मनाऔ नयो साल, मना मती करो ....(1)

आज साल का आखिरी दिन है, कुछ ही घंटों के बाद नया साल २००८ ईस्वी शुरू हो जाएगा। बहुत से लोग हैं जो इस दिन को नए साल के आगमन के रूप में नहीं मनाना चाहते हैं। कोई जबरदस्ती थोड़े ही है, मत मनाइये। पर जो लोग इसे इस रुप में मनाना चाहते हैं, उन के आनन्द में खलल तो मत डालिए। कुछ लोगों ने इसे इसलिए मनाने से मना किया कि यह देशी यानी भारतीय परम्परा नहीं है। पर देशी परम्परा क्या है? हमे कौन बतायेगा?

चलो जितना हमें याद है उतना हम ही बताए देते हैं। जिस से जो लोग इस रात नये साल का लेने से वंचित हो जाऐं, वे आगे वंचित नहीं हों।

जनवरी माह में १४ तारीख को मकर संक्रांति होती है, दक्षिण भारतीय इसे ‘पोंगल’ के नाम से मनाते हैं। मगर यह वर्ष २००८ लीप इयर होने के कारण इस वर्ष मकर की संक्रांति १५ जनवरी को आ रही। यदि २००७ का साल लीप इयर हो जाता, तो पिछले साल २००७ में भी और २००८ में भी मकर संक्रांति १४ जनवरी को ही होती। भारत और भारतीय संस्कृति से प्रभावित अनेक देशों में इस दिन से नए वर्ष का प्रारम्भ माना जाता है। आप चाहें तो इस दिन नववर्ष मना सकते हैं। आप को इस दिन में कोई आपत्ति हो तो आप आगे चलिए।

अब आ गया है मार्च का महीना। २२ मार्च को पूरी दुनियां में दिन-रात बराबर होते हैं। यहीं से उत्तरी गोलार्ध में दिन रात से बड़े होना शुरू होते हैं, आप उत्तरी गोलार्ध के निवासी हैं तो इस दिन को साल के पहले बड़े दिन के रूप में मना सकते हैं। इस समय वसन्त ऋतु होती है। भारत सरकार के (केलेण्डर माफ कीजिए कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है इसलिए) तिथिपत्र में यहीं से साल शुरू होता है और पहला महीना चैत्र होता है। आप चाहें तो इस दिन नया साल मना सकते हैं। हालांकि ऐसा लगता है कि खुद भारत सरकार भी इस दिन नया साल मनाना भूल चुकी है।

इस के बाद आ जाती है चैत्र शुक्ल प्रतिपदा। यह दिन मैं कभी नहीं भूलता। मेरे दादा जी जो एक बड़े मन्दिर के पुजारी थे, इस दिन से लगातार पन्द्रह दिनों तक रोज सुबह मंगला आरती के समय नीम की कोंपलों को काली मिर्च के साथ पीस कर बनाई गयी गोलियों का मिश्री के साथ ठाकुर जी को भोग लगाया करते थे। बाद में गोलियों के खत्म होने तक ठाकुर जी के दर्शनार्थियों को ये गोलियाँ प्रसाद के रूप में निगलनी पड़ती थीं। बाद में मुखस्वाद बदलने के लिए मिश्री भी उपलब्ध रहती थी। मुझे तो पूरे पखवाड़े यह गोलियाँ खानी ही पड़ती थीं, आखिर ठाकुर जी को भी तो मिश्री के पहले वही खानी पड़ती थीं, तो पुजारी के पोते को तो वह खाना लाजमी था। दादाजी जिन्हें हम दाज्जी पुकारते थे कहते थे कि पन्द्रह दिनों तक निरणे ही, अर्थात् सो कर उठने के बाद बिना कुछ खाए-पिए ही, कंचे जितनी बड़ी दो गोलियां रोज खाने से व्यक्ति पूरे साल स्वस्थ रहता है। यह दिन हिन्दु नववर्ष के रूप में मनाया जाने लगा है। विश्व हिन्दु परिषद्, रा.स्व.से.संघ और उस के सभी उपांग संगठन इस दिन को नववर्ष के रूप में मनाते हैं, और औरों को भी मनाने को कहते हैं। इसी दिन से चैत्र नवरात्र प्रारंभ होते हैं। मुझे पूरे नवरात्र नौ दिनों तक एक समय आहारी रहना अच्छा लगता है। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम है। दोनों नवरात्र मौसम के बदलने के समय आते हैं। और एक समय निराहार रहने से पेट को तनिक आराम मिलता है, और वह मौसम का शिकार होने से बच जाता है। आप चाहें तो इस दिन नया साल मना लें। सिन्धी इसी दिन, या अगले दिन, जब भी चान्द दिखे नववर्ष मनाते हैं और तेलगू नववर्ष भी इसी दिन मनाया जाता है।

मैं भी यह दिन मनाता हूँ, लेकिन नववर्ष के रूप में इसे मनाना मुझे अच्छा नहीं लगता। एक कारण तो यह कि पूरे दिन निराहार रहने पर भोजन शाम को मिलता है, दूसरे सुबह-सुबह खायी गोलियों से हुआ कड़वा मुहँ दिन भर वैसा ही बना रहता है। खाने पीने का मजा ही चला जाए, तो काहे का नववर्ष। दूसरा कारण जरा वैज्ञानिक है। वर्ष का मतलब है, पृथ्वी जितने समय में सूरज का एक चक्कर पूरा कर ले, यानी ३६५ दिन ६ घंटे। अब कभी तो यह नया साल ३५५ दिनों में यानी साल के पूरे होने में दस दिन पहले ही आ जाता है और तीन साल में एक बार ३८५ दिनों बाद टपकता है कि इन्तजार कर के ही बोर हो जाऐं।

(आप भी इस आलेख को खत्म होने के इन्तजार में बोर हो गए होंगे। इसलिए विराम देता हूँ। शेष कुछ घंटों के बाद नए साल में..............)

शनिवार, 29 दिसंबर 2007

दुनियाँ को बचा लो.....

उधर बेनजीर के कत्ल की खबर टीवी पर आई और इधर ब्रॉडबेंड का बेंड बज गया शाम पाँच बजे नेट लौटा। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन तब तक ब्लॉग जगत में इस पर बहुत कुछ आ चुका था और हत्या से विचलित मानवीय संवेदनाओं का ज्वार तब तक विमर्श तक पहुँच चुका था। जब भी कोई घटना दुनियां के एक बड़े जन समूह के मानस को झकझोर दे तो वह विमर्श के लिए सही समय होता है। सभी के सूत्र घटना से जुड़े होते हैं। यदि विमर्श की दिशा सही हो तो इस समय के विमर्श से सोच को एक नई और सही दिशा प्राप्त हो सकती है। हिन्दी ब्लॉगिंग आज ऐसे विमर्श की सामर्थ्य प्राप्त कर चुका है। वैश्विक आतंकवाद इस समय विश्व के एजेण्डे पर है। हिन्दी ब्लॉगिंग चाहे तो इस विमर्श को प्रारम्भ कर कम से कम भारतीय उप महाद्वीप में इस वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध सोच का एक नया सिलसिला शुरू कर सकती है।

आज वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका ने अविराम युद्ध की घोषणा की हुई है। पर क्या यह युद्घ आतंकवाद के विरुद्ध है? और क्या यह विश्व से आतंकवाद का समूल नाश करने में सक्षम है? क्या वैश्विक स्तर पर आतंकवाद को जन्म देने में खुद अमरीका की भूमिका प्रमुख नहीं? क्या अमरीका अब उन सभी कृत्यों से विमुख हो गया है जिन के कारण आतंकवाद जन्म ही नहीं लेता, अपितु फलता फूलता भी है? क्या आतंकवाद की समाप्ति के लिए अमरीकी पथ सही है? यदि नहीं तो सही रास्ता क्या है। इन तमाम प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए।

आतंकवाद के विरुद्ध खड़े लोगों की कमी नहीं। आतंकवाद को धराशाई करना भी असंभव नहीं। लेकिन इस के खिलाफ सफलतापूर्वक तभी लड़ा जा सकता है जब पहले इस की जन्मभूमि की तलाश कर के इस का उत्पादन बन्द कर दिया जाए। यह एक लम्बा काम है। इस से भी पहले महत्वपूर्ण है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े योद्धाओं की आपसी लड़ाई को समाप्त करना। यहां हो यह रहा है कि योद्धा इस बात को ले कर आपस में भिड़े हुए हैं कि, मेरा सोच ज्यादा सही है। फिर ऐसा वाक् युद्ध छेड़ देते हैं कि आतंकवाद को ही बल मिलता नजर आता है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों को वापस आतंकवाद के साथ खड़ा कर देते हैं। कभी तो लगने लगता है कि आतंकवाद के खिलाफ जोर जोर से बोलने वाले लोग उन्हीं के भाईबन्द हैं और उन्हीं की मदद कर रहे हैं।

आज शाम ब्रॉडबैंड शुरू होते ही सब से पहले हर्षवर्धन के 'बतंगड़' की पोस्ट पर टिप्पणी से ही काम शुरू किया। टिप्पणी अपलोड होती तब तक बैंड फिर बज गया। पता नहीं क्या गड़बड़ होती है 'ज्ञान' जी की तरह कोई हमारे बीच बीएसएनएल से भी होता तो अंदर की बात पता लगती रहती। अगर कोई हो भी तो सामने नहीं आया है। कोई हो उसे इस पोस्ट के बाद सामने आ ही जाना चाहिए। वरना फिजूल में ब्लॉंगर्स की आदत गालियां देने की पड़ जाएगी। वैसे एक टिप मिली है कि ये सब टेलीकॉम कम्पनियों के कम्पीटीशन का नतीजा भी हो सकता है। मै बतंगड़ पर की गई अपनी टिप्पणी यहां भी दे रहा हूँ। ताकि विमर्श का कोई रास्ता बने।

बतंगड़ पर की गई टिप्पणी-

हर्ष जी, कल खबर आते ही ब्रॉडबेंड का बैंड बज गया, अभी पाँच बजे नेट लौटा है। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन अब तक ब्लॉग्स पर बहुत कुछ आ चुका है। आप की पोस्ट पर टिप्पणी से ही बात शुरू कर रहा हूँ। आप की पोस्ट के शीर्षक की अपील, पोस्ट पर कहीं नजर नहीं आई। आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है, वे उन से अलग हैं जिन के लिए मिहिर भोज ने टिप्पणी की है। यह फर्क यदि मिहिर भोज समझ लें, तो हमें एक हीरा मिल जाए। वे यह भी समझ लें कि आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है उन की संख्या मिहिर के इंगित मुसलमानों की संख्या से सौ गुना से भी अधिक है। मेरा तो मानना है कि एक सच्चा मुसलमान एक सच्चा हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, जैन, और सर्वधर्मावलम्बी हो सकता है। जिस दिन हम यह फर्क चीन्ह लेंगे और सच्चे धर्मावलम्बी व इंसानियत के हामी एक मंच पर आ जाएंगे उस दिन से दुनियां में शान्ति की ताकतें विजयी होना शुरू हो जाएंगी। आतंकी कहीं नहीं टिक पाएंगे।

- दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 22 दिसंबर 2007

राजस्थान - रेल और सड़क मार्ग जल्दी ही जाम होने वाले हैं।

मई-जून में राजस्थान में हुए गुर्जर आन्दोलन को अभी लोग भूले नहीं होंगे। पुलिस की गोलियों से छह आन्दोलनकारियों की मृत्यु के बाद इस आन्दोलन की आग दिल्ली, हरियाणा और यू.पी. तक जा पहुँची थी। आन्दोलन ग्रस्त क्षेत्र में प्रवेश करना या वहाँ से बाहर निकलना असम्भव हो गया था और प्रशासन पूरी तरह से पंगु हो गया था। गुर्जर जाति का यह आन्दोलन उन्हें ओबीसी के स्थान पर जन जाति में सम्मिलित िए जाने की मांग को ले कर था। उन की इस मांग का आधार यह है कि राजस्थान में जनजाति आरक्षण का सर्वाधिक लाभ उठाने वाली मीणा जाति और गुर्जरों कि सामाजिक स्थितियां लगभग एक जैसी हैं। यहाँ तक कि गुर्जर बहुत पिछड़ गए हैं और खुद को ठगा सा महसूस करते हैं।

मुख्यमत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे सिन्धिया ने चुनाव के पहले यह वायदा किया था कि उन के मुख्यमंत्री बन जाने पर वे केन्द्र सरकार को सिफारिश करेंगी कि गुर्जर जाति को जन जाति में सम्मिलित किया जाए। वसुन्धरा मुख्यमंत्री बन गयीं और तीन साल गुजर जाने पर भी सिफारिशी चिट्ठी केन्द्र सरकार को नहीं भिजवाने पर गुर्जरों का सब्र का बांध टूट गया। व्यापक आन्दोलन के पहले ही दिन चली पुलिस की गोलियों ने पशुपालक संस्कृति के लोगों को हिंसा और तोड़-फोड़ की ओर ढकेल दिया। चिट्ठी नहीं जाने का मुख्य कारण मीणा जाति का दबाव रहा। उन की जनसंख्या राजस्थान में गुर्जरों से दुगनी है और विधायक मंत्री लगभग चौगुनी। राजस्थान पुलिस और प्रशासन में मीणा अफसरों का बाहुल्य है। जिस से गोलियां चलवाने में उन के योगदान की चर्चाओं के जोर पकड़ने ने आन्दोलन को हिंसात्मक रूप देने में भरपूर योगदान दिया।

राजस्थान सरकार ने आन्दोलन को विराम देने के लिए रिटायर्ड हाईकोर्ट जज जसराज चोपड़ा को नियुक्त कर मामले की जांच के लिए एक सदस्यीय आयोग बना दिया। इ मंगलवार को चोपड़ा रिपोर्ट राज्य सरकार के पास पहुँच चुकी है और जस की तस केन्द्र सरकार को भेजी दी गई है। रिपोर्ट में गुर्जरों को वर्तमान परिभाषा के अनुसार जनजाति घोषित किए जाने योग्य नहीं माना है। लेकिन राज्य सरकार से उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए विशेष प्रयत्न किए जाने की सिफारिश की गयी है। भाजपा सांसद रामदास अग्रवाल ने घोषणा कर दी है कि राज्य सरकार ने वायदा पूरा कर दिया है, सिफारिश का कोई वायदा किया ही नहीं गया था।

गुर्जर नेता रोष में हैं। तरह-तरह के बयान आ रहे हैं, राजस्थान के अखबारों के मुखपृष्ठ का आधे से अधिक इन्हीं समाचारों से लदा रहता है। राजस्थान के निवासियों ने गुर्जरों का आन्दोलन देखा है, उन्हें आना-जाना, दूरस्थ रिश्तेदारों से मिलने-जुलने, शादी-ब्याह आदि-आदि काम महीने-पन्द्रह दिनों में निपटाने लेने चाहिए और अपने मित्रों-रिश्तेदारों को भी इस की खबर कर देनी चाहिए, बाद में पछताना न पड़े। रेल और सड़क मार्ग जल्दी ही जाम होने वाले हैं।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

प्रशंसा करने के पहले सब के लिए उस की ज्वलनशीलता जाँच लें

अधिकतर इन्सान एक से अधिक शादियां नहीं बनाते, न आदमी, न औरतें। जो बनाते हैं, उन के अनुभव की जानकारी हमें नहीं। कोई अनुभवी-भुक्तभोगी हो, उसे इस कड़ी से प्रेरणा प्राप्त हो जाए और वह सभी प्रकार के भयों से मुक्त हो कर अपने अनुभव को सांझा करना चाहे तो अपने ब्लॉग का उपयोग कर अन्य ब्लॉगरों-पाठकों को लाभान्वित करे।  कोई उन का आभार मानें या न मानें, मैं जरूर आभारी रहूँगा, बल्कि अभी से हो जाता हूँ।

अब अपने एकल विवाह के अनुभव की बात कहें, (नहीं तो भाई लोग कहेंगे- हमारा पूछता है, पहले अपना तो बता) तो हमारा अनुभव है कि कभी भी अपनी पत्नी के सामने किसी अन्य महिला की प्रशंसा नहीं करना चाहिए, अन्यथा चाय भी पानी हो जाती है। एक-दो बार इस का परिणाम भी भुगत चुके हैं।

हमें नहीं पता था कि सार्वजनिक जीवन में कुछ अन्य लोग भी पत्नियों जैसा व्यवहार कर जाते है, अन्यथा हम अपने इस अनुभव का वहाँ भी प्रयोग करते और मुफ्त में शिकार न बनते।

आज कल चिट्ठाजगत के बहरूपिए की भांति नित्य रंग बदलने से जो असुविधा हो रही है, उससे सभी थोड़े-बहुत परेशान हैं और रोज चिट्ठे पढ़ने के लिए मेरी तरह ब्लॉगवाणी पर निर्भर हैं। बहुत दिनों के बाद हम ने अनवरत पर छोटी सी तुकबन्दी पोस्ट की जो तुरन्त ही ब्लॉगवाणी पर आ भी गई।

इस पोस्ट में चिट्ठाजगत में कल आए एक सुखद परिवर्तन की जरा सी प्रशंसा थी। नतीजा भुगता। पाँच मिनट में ही अनवरत ब्लॉगवाणी  से गायब। इसे क्या कहें?  ईर्ष्या, जलन या और कुछ?  कोई बताएगा?

पर हम इतना जरूर बता दें कि हम अभी भी ताजा चिट्ठों के लिए ब्लॉगवाणी ही देख रहे हैं। हाँ, इतना जरूर सीख गए हैं कि किसी की प्रशंसा करने के पहले यह देख लेना जरूरी है कि यह प्रशंसा किसी के लिए ज्वलनशील तो नहीं। 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

मजा अब आया चिट्ठाजगत का

तबीयत हो गयी बाग बाग
देख कर चिट्ठाजगत आज।

नित बदल रहा है रूप
और था कल, कुछ और है आज।

घबड़ाए थे कल, कराहे भी थे,
आई होगी कुछ सांस आज।

कहा है बुजुर्गों ने मत देखो,
कपड़े बदलती लड़की को, आएंगे बुरे विचार।

सज रही है दुलहन अभी,
आने तक मंच पर, उस का करो इन्तजार।

रविवार, 2 दिसंबर 2007

ओले-ओले

सिर गंजा है इस लिए मुंढ़ाने की जरूरत नहीं और ओलावृष्टि से घबराना पड़ता हैब्लागिंग की शुरूआत में ही आईएमई रेमिंगटन की कलई खुल गई तीसरा खंबा की पहली पोस्ट उस का सबूत हैअब इस ब्लाग का टंकणकर्ता इस्क्रिप्ट पर हाथ मांज रहा है इस लिए आगामी पोस्टें गति पकड़ लेने पर ही देखने को मिलेंगीआशा है पाठक लम्बे अन्तराल के लिए क्षमा करेंगे
: दिनेशराय द्विवेदी

सोमवार, 26 नवंबर 2007

मुसीबत बुलाने से आती है ... आ बैल मुझे मार ....

कहते हैं, मुसीबत कह कर नहीं आती। वह कर आएगी, तो क्या कोई आने देगा? कभी नहीं। मुसीबत हमारे बुलाने से आती है। अब आप खुद बुलाएंगे तो वह कह कर क्यों आएगी?

मैंने भी अपनी मुसीबत खुद बुलाई। एक तो यह विश्व-जाल अपने आप में मुसीबतों की नानी है। उस पर कानून ढूंढते ढूंढते हिन्दी चिट्ठे पढ़ने लगा। मन में हूक उठी कि खुद का भी चिट्ठा हो, और उस में लिखा जाए। इस बीच हिन्दी आई एम ई पकड़ में आ गई और हमने उस पर हाथ साफ कर लिया। हम समझ बैठे कि हम इस मुई चिट्ठाकारी के काबिल हो गए। एक दिन एक चिट्ठा पढ़ते हमारे बरसों पहले गायब हो चुके गुरू जी का नाम पढ़ने को मिला तो पहली बार एक टिप्पणी चेप दी।

कुछ दिन बाद पता लगा कि फुरसतिया भाई सीरियसली हमारे गुरू जी का पता तलाश कर रहे हैं। भाई ने पता ढूंढने के काम में एक और चिट्ठाकार को मेल किया, हमें उसकी कॉपी भेज दी। हम धन्य हो गए। साथ में अपना चिट्ठा शुरू करने की सलाह का कांटा फेंका और यहीं हम फंस गए। हमने मुसीबत न्योत दी।

खैर हम ने अपना चिट्ठा चालू कर लिया। पहली ही पोस्ट ने अपने होUnderwoodKeyboardश उड़ा दिए, सारे संयुक्त शब्दों में पूरे अक्षर और उनके साथ हलन्त नजर आ रहे थे। ब्लॉगर पर जाकर उन्हें दुरूस्त करने की जुगाड़ करने में जुटे तो शब्द के शब्द गायब होने लगे। उन्हें दुबारा टाइप किया। जब हमने पोस्ट को दुरूस्त कर लिया तो पब्लिश भी कर दिया। अब भी बहुत कसर रह गई थी। हम समझ गए थे कि हम दौड कर जलते अंगारों पर चढ़ गए हैं। वापस जाना भी मुश्किल और खड़ा रहना भी मुश्किल। हमने झांसी की रानी का स्मरण करते हुए वहीं रुकना तय कर लिया। बहुत देर से समझ आई कि हिन्दी आ11817379026761ई एम ई का रेमिंग्टन मोड गड़बड़ कर रहा था। जाल पर ढूंढा, रवि रतलामी जी के सारे आलेख पढ़ डाले। तब जाना कि बहुत बड़ी मुसीबत सामने खड़ी है।

मुसीबत कह रही थी- या तो बेटा इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग सीख ले या ब्लॉगर में उठापटक कर वरना इस मुई चिट्ठाकारी सपना देखना छोड़, ये तेरे बस की नहीं। हम अब तक जलते अंगारों पर दूर तक चले आए थे। वापस जाने में भी जलना ही था। हमने फिर तय किया- जलना है तो पीठ दिखा कर नहीं जलेंगे।

ताजा खबर है कि हंम जलते अंगारों पर जल रहे हैं, इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग सीख रहे हैं, रेमिंग्टन का भूत पीछा नहीं छोड़ रहा है। यह पोस्ट इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग पर ही टाइप की है, समय लगा है मात्र डेढ़ घंटा।

शनिवार, 24 नवंबर 2007

टंगड़ीमार को टंगड़ी मार। नाम बडी चीज है......

नाम बड़ी चीज है, इस नाम के लिए ही तो दुनियां भर में दंगम-दंगा है। हर कोई चाह रहा है, उसका नाम हो जाए। हर कोई इसी में लगा है। इस जमाने में आदमी हर चीज में शॉर्टकट ढूंढ़ता है। यह भी कोई बात हुई, जो चीज सस्तें में काला बाजार में मिल जाए उस के लिए मॉल जा कर मंहगे में खरीदें, जब कहीं जाने के लिए पांच मिनट का रास्ता हो तो पांच घंटे के रास्ते से जाया जाए। सो आदमी नाम के लिए भी शॉर्टकट ही ढूंढता है। भला आदमी नाम कमाने के लिए अच्छे-अच्छे रास्ते चुनता है और भटकता रहता है। दूसरे कई झटपट ग‍लियों में घुस जाते हैं और फटाफट नाम कर जाते हैं। भला आदमी टिपियाता रहता है।

नाम करने के कई आसान तरीके हैं। किसी रास्ते चलते आदमी के टांग अड़ा कर देख लीजिए। चलता आदमी गिर पड़ेगा, जो उसे उठाने आ गए वे उठाने के पहले पूछने लगेंगे, किस ने मारी टंगड़ी? अब हो गया न नाम। लोग फौरन जान जाएंगे कि कौन है टंगड़ीमार। अब लोग भले ही टंगड़ीमार के नाम से ही याद रखें, पर इस से क्या? नाम तो हो ही गया न।

अब इस टंगड़ीमार नाम में भी रेल की तरह अनेक क्लासें हैं। जनरल, सैकण्ड-स्लीपर से ले कर फर्स्ट-एसी तक की। वहां नियम है कि जितनी बड़ी क्लास में जाना चाहो उतने का ही टिकट खरीद लो। यहां भी ठीक ऐसा ही नियम है जितने बड़े टंगड़ीमार बनना चाहो उतने ही बड़े को टंगड़ी मार दो। अब बात अभी तक समझ नहीं आ रही हो तो उदाहरण देता हूं। छोटा नेता बनना हो तो चपरासी को झापड़ मारो और अफसर के कमरे में घुस लो, बड़ा बनना हो तो कलेक्टर का गाल आजमा सकते हो। बस शर्त ये है के उस समय हल्ला करने वाले, देखने वाले होने चाहिए जो इस को खबर बना दें। कही आस पास मीडिया हो तो सोने में सुहागा है। उनने तो फोटो खींच कर अपने अखबार में चिपकाने हैं। हर चैनल को वीडियो फुटेज चाहिए ही चाहिए हर घंटे। इस काम के लिए कोई न मिले तो अपने कैमरा-मोबाइल वाले दोस्त को पटा कर तैयार रखो। वह वीडियो फुटेज को कम्प्यूटर में उतारे और दो-तीन चैनलों को मेल कर दे। सभी चैनल अपने पास उसे एक्सक्लूसिव बताऐंगे और एक डेढ़ मिनट की फुटेज को बार-बार रिपीट कर दिखाएंगे।

अब ममता बेन को ही ले लो, उन्हें लोग पूरे जग में जानते हैं बंगाल के लिए। वे अक्सर बंगाल में अपनी टंगड़ी आजमाती रहती हैं। इन दिनों उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें, उन की तरफ किसी की तवज्जो ही नहीं थी, सब के सब कराती टंगड़ी देखने में लगे थे। वाह, कैसी टंगड़ी मारी सरदार जी को, बड़ा बुश से हाथ मिलाने चले थे। वा‍कई क्या टंगड़ी थी? साली सरकार ही गिरने को आ गई थी। मगर गिरी नहीं। अभी तक पीसा की मीनार की तरह झुकी खड़ी है। वे लगे रहे अपनी टंगड़ी की तारीफ अखबारो, चैनलों को देखने में। उन्हें क्या गुमान था कि उधर नन्दीग्राम में नक्सलियों से जो गोली-गोली, गन-गन का घरेलू ड्रामा चल रहा है उस में कोई टंगड़ी मार जाएगा। मगर बैन ने टंगड़ीमार को टंगड़ी जा ही मारी। अब कोई सरदार जी का घुटना नहीं सहला रहा। सब बैन की टंगड़ी देखने में लगे हैं।

बुधवार, 21 नवंबर 2007

टिप्पणियों की बॉटल चाहिए, ब्लॉगेरा या ब्लॉगर्कुलोसिस हो गया है मुझे।

मुझे अचानक जाने क्या हो गया। जब जी चाहा सारा काम छोड़ कर सीधे कम्प्यूटर पर जा बैठता और इण्टरनेट चालू कर लेता। इस बात का ख्याल नहीं रहता कि ब्रॉड बैंड की अनुमत डाउनलोडिंग करने की क्षमता का पूरा उपयोग पहले ही कर चुका हूं और अभी महीना समाप्त होने में पूरे चौदह दिन बाकी हैं। इस बात का भी ख्याल नहीं रहता कि मुझे यह सब काम अब रात को दो बजे से सुबह आठ बजे के बीच में ही करना चाहिए, जिस से फालतू रूपए न लगें। सब से पहले खोलता अपना गूगल खाता और फिर अपना ई-मेल खाता। देखता कोई मेल तो नहीं है। मेल होती तो पढ़ता और जिस का देना होता, उस का जवाब देता। फिर खोलता चिट्ठाजगत, ब्लॉगवाणी और फिर नारद। मनचाहे चिट्ठों को पढ़ता और उन में अपनी टिप्पणियां। फिर खोलता अपना खुद का चिट्ठा, देखता इस के स्वरूप को कैसे ठीक किया जा सकता है। लिपि में आ रही गलतियों को ठीक करने का प्रयास करता। न मुझे खाने की फुरसत थी, न अपने घर के और ऑफिस के कामों की। पत्नी परेशान थी। उस के भी कई काम अटके पड़े थे, जिन को मैं नहीं कर पा रहा था। आखिर पहला चिट्ठा बन गया, प्रकाशित भी हो गया।

अब तक मुझे पता लग गया था कि मैं ब्लागेरिया, ब्लॉगेरा या ब्लॉगर्कुलोसिस जैसी किसी बीमारी का शिकार हो गया हूं। पर ब्लॉगेरिया तो एक किस्म के मच्छरों से फैलता है। इस कारण यह तो निश्चित हो गया कि यह ब्लॉगेरिया नहीं था। क्या था इस का पता लगाने के लिए किसी विशेषज्ञ चिकित्सक की तलाश कर पाता, उस से पहले ही लक्षण परिवर्तित होने लगे। अब मुझे बार-बार प्यास लगने लगी, वह भी पानी पीने की नहीं अपने ब्लॉग को बार बार खोल कर पीने की। मुझे अब तक कोई चिकित्सक ऐसा नहीं मिला था जो मुझे रोग का ठीक ठीक नाम तो बता दे। जिस से मेरा इलाज शुरू हो।

यार दोस्तों को मैं कम्प्यूटर पर ही बैठा नजर आने लगा, तो उन्हों ने भी मेरे रोग का अंदाज लगाना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में वे मेरी पत्नी के साथ मिल कर किसी चिकित्सक की तलाश में जुट गए। मेरा प्रोफेशनल काम खराब होने लगा था। मैं स्वयं भी इस बीमारी से छुटकारा पाना चाहता था। पर यह बीमारी थी कि पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं लें रही थी। छोड़ती भी तो कैसे, किसी को बीमारी का नाम तक पता नहीं इलाज तो दूर की बात ठहरी।

इधर चिट्ठे में पोस्टें बढ़ती जा रहीं थीं, उधर प्यास और बढ़ती जा रही थी। एक ब्लॉग और तैयार था। पहला नौसिखिया जैसे गया था। पहली पोस्ट को तीस बार ठीक करना पड़ा था।

इस बार मैं ऐसा नहीं करना चाहता था। इसे अनुभवी नहीं तो कम से कम एक शॉर्ट ट्रेनिंग प्राप्त के उत्पाद जैसा तो होना ही चाहिए था। अब प्रयास इतनी बढ़ गई कि टिप्पणियों की बॉटल चढ़ाने की नौबत आ गई। वैसे भी डा‍क्टर उन्हें मर्ज का अता-पता नहीं लगता यही करते हैं। डाला मरीज को अस्पताल के बिस्तर पर और चढ़ा दी बॉटल। मरीज का इधर-उधर भागना बंद। ज्यादा हुआ तो बॉटल में एकाध एम्प्यूल नीन्द के इंजेक्शन का और ठूंस दिया। मरीज के परिजनों को भी चैन, कि कम से कम हमें तो परेशान नहीं कर रहा। फालतू रिश्तेदार और यार- दोस्तों को भी अस्पताल आ कर मिलने का काम मिल जाता है। कइयों को घूमने-फिरने का और कइयों को बीबी की बन्दिश से निकल भागने का बहाना तक मिल जाता है।

ढूंढने और प्रयास करने पर तो भगवान भी मिल जाते हैं। अब तक जिस-जिस को मिले उन के नामों की सूची में से कोई जीवित शेष नहीं है। मुझे भी ढूंढने पर सर्च इंजन की मदद से एक डाक्टर मिल ही गया, जो कम से कम बॉटल तो चढ़ाने कों तैयार हो ही गया है। मगर यहां एक और समस्या मुंह बाए खड़ी है। मेरे शहर में ही नहीं, बड़े-बड़े शहरों तक में भी टिप्पणियों की बॉटल नहीं मिल रही है। इस चिट्ठे को पढ़ने वाले किसी भी सज्जन को कहीं टिप्पणी बॉटल के स्टॉक का पता लगे तो वह मु्झे मेरे ई-पते drdwivedi1@gmail.com पर मेल करे या फिर इस पोस्ट को पढ़ने के बाद जूते-चप्पल पहने [या खोले बिना ] इस पर कम से कम एक टिप्पणी तो पोस्ट कर ही दे। जिस से बॉटल मिलने तक तो प्यास बुझाई जा सके।

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

सुप्रभात............

श्री गणेश: .......

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अनवरत प्रकाशित होते रहने के लक्ष्य, प्रयास और चाहत के साथ यह चिट्ठा अपना श्री गणेश करता है। प्रयास रहेगा कि यहां तमाम तरह की जनरूचि की सामग्री हो, लेकिन उपयोगी हो और सामाजिक-सांस्कृतिक को गिराने के बजाए उन्हें ऊंचा उठाए। समाज के बारे में समझ अधिक यथार्थपरक बनी रहे, समाज को आगे ले जाने के सही रास्ते की तलाश जारी रहे। इस तलाश में अधिक से अधिक लोग अपनी चेतना, ज्ञान, कुशलता और साधनों से जुटें। एक नए मानव समूह का निर्माण की दिशा में आगे बढ़ें। इस तलाश के बीच वैचारिक भिन्नता रहे लेकिन आपसी सह-जीवन प्राथमिक शर्त हो। सह-जीवन हमारा वर्तमान है और सर्वाधिक मूल्यवान भी। उसे कटुतापूर्ण और प्रदूषित क्यों किया जाए। आज देखने में आता है कि हम भूतकाल को महत्व देते हुए वर्तमान में तलवारें खींच लेते हैं। भविष्य सुनहरा होना तो दूर रहा, हमारा वर्तमान भी लहूलुहान हो पड़ता है। हम इस वर्तमान को महत्व दें, इसे सहज, सुन्दर, सामाजिक और यथार्थ परक बनाने का प्रयास करें। यही भविष्य की नींव है।

सभी सुधी लोगों का सहयोग अनवरत को प्राप्त होगा। इसी आकांक्षा के साथ .......बिस्मिल्लाह।।

...... दिनेशराय द्विवेदी